SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [२३९ विचारोंको बन्द कर देना चाहिये। मैं क्या था. क्या हूँगा, क्या है यह भी विना नहीं करना, न यह विकला करना कि मैं शय ह। शास्ता मेरे गुरु है न किसी श्रण व हे अनुगर विचारना । स्वयं प्रज्ञ से सर्व विल्लोको हटाकर तथा सर्व बाहरी वा भाचरण क्रिपाओं का भी विकल्प हटाकर भीतर ज्ञानदर्शनसे देवना तब तुर्न ही स्वात्मधर्म मिल जायगा । स्वानुभव होकर परमानदका लाभ होगा। जैन सिद्धान्तमें भी इसी स्व नुभव पर पहुचाने का मार्ग सर्व विषयों का त्याग ही बताया है। सर्व प्रकार उपयोग हटकर जन्म में जमता है तब ही स्व नुभव उ पन्न होता है । गौतम बुद्ध कहते हैंअपने आपमें जाननेयोग्य इस धर्मके पास मैंने उपनीत किया है, पहुचा दिया है। इन वचनोंसे स्वानुभव गोचर निर्वाण स्वरूप अनात, अमृत शुद्धात्माकी तरफ सरेत साफ माफ हो'हा है। फिर कहते है-विज्ञोद्वारा अपने आपमें जाननेयोग्य है । अपने आपमें वाक्य इमी गुप्त तत्वको बत ते है, यहा वास्तवमें परम सुख परमा मा है या शुद्धात्मा है। (९) फिर तृष्णाकी उत्पत्ति व्यवहार मार्गको बनाया है। बच्चे के जन्ममें गधर्वका गर्भमें आना बताया है। गर्वको चेतना प्रवाह कहा है, जो पूर्वजन्ममे आया है। इसीको जैन सिद्धान्तमें पाप पुण्य सहित जीव कहते है। इससे सिद्ध है कि बुद्ध धर्म जड़से चेतनकी उत्पत्ति नहीं मानता है । जब वह बालक बड़ा होता है पाच इन्द्रियों के विषयोंको ग्रहण करके इष्टमें राग मनिष्टमें द्वेष करता है। इस तरह तृष्णा पैदा होती है उसीका उगदान होते हुए
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy