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________________ २४०] दूसरा भाग। अव बनता है, भवसे जन्म जन्मक होते हुए नाना प्रकारक दु ख जरा माण तक होन है । ससारका मूल कारण अज्ञान और तृष्णा है। इसी बातको दिखायाहै । यही बात जैनसिद्धात कहता है। (१०) फिर ससारके दुखोंक नाशका उपाय इस तरह बताया है (१) 0 रुके स्वरूपको स्न्य समझकर साक्षात्कार करनेवाले शाम्ता बुद्ध परम शुद्ध ब्रह्मचर्य का उपदेश करते हैं। यही यथार्थ धर्म है। यहा ब्रह्मर्यम मतलब ब्रह्म स्वरूप शुद्ध स्म में लीनताका है, केवल बाहरी मैथुन त्य गका नहीं है । इस धर्मपर श्रद्धा काना योग्य है। (२) शखके समान शुद्ध ब्रह्म पर्य या समाधिचा लाभ घरमें नहीं होसक्ता, इपसे धन कुटुम्बादि छोड़कर सिर दाढ़ी मुड़ा काषाय वस्त्र घर स' होना चाहिये, (३) वह साधु महिंसा व्रत पालता है, (४) अचौथ व्रत पालता है, (५) ब्रह्मचर्य व्रत या मैथुन त्याग व्रत पालता है, (६) सत्य वन पालता है, (७) चुगली नहीं करता है. (८) कटुक वचन नहीं कहता है, (९) बकवाद नहीं करता है, (१०) वनस्पति कायिक बीजादिका बात नहीं करता है, (११) एक दफे बाहार करता है (१२) गत्रिको भोजन नहीं करता है, (१३) मध्य हू पी 3 भोजन नहीं करता है, (१४) माला गध लेप भूषणसे विक रहता है, (१५) उच्चासनपर नहीं बैठता है, (१६) सोना, चादी, कच्चा अन्न, पशु, खेत, मकानादि नहीं रखता है, (१७) दूतका काम, क्रयविक्रय, तोलना नापना, छेदना-भेदना, मायाचारी भादि आरम्म नहीं करता है, (१८) भोजन बस्त्रमें स्तुष्ट रहता है,
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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