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दूसरा भाग। परोऽप्युत्पथमापन्नो निषेधु युक्त एव स । कि पुन स्वमनोत्यर्थं विषयोत्पथयायिवत् ॥ १७ ॥
भावार्थ दूसरा कोई कुमार्गगामी होगया हो तो भी उसे मनाही करना चाहिये, यह तो ठोक है परन्तु विषयोंके कुमार्गमें जानेवाले अपने मनको भतिशयरूप क्यों नहीं रोकना चाहिये ? भवश्य रोकना चाहिये।
अज्ञान द्यदि मोहाद्यत्कृत कर्म सुकुत्सरम् । ब्यावर्तयेन्मनस्तस्मात् पुनस्तन्न समाचरेत् ॥ १७६॥
भावार्थ-यदि अज्ञानके वशीभूत होकर या मोहके आधीन होकर जो कोई अशुभ काम किया गया हो उससे मनको हटा लेवे फिर उस कामको नहीं करे।
धर्मस्य सचये यत्न कर्मणा च परिक्षये । साधूना चेष्टित चित्त सर्वपापप्रणाशनम् ॥ १९३ ॥
भावार्थ-साधुओं का उद्योग धर्मके सग्रह करनेमे तथा कर्माके क्षय करनेमें होता है तथा उनका चित्त ऐमे चारित्रके पालनमे होता है जिससे सर्व पापोंका नाश होजावे ।
साधकको नित्य प्रति अपने दोषोंको विचार कर अपने भावोंको निर्मल करना चाहिये।
श्री अमितगति भाचार्य सामायिक पाठमें कहते हैंएकेन्द्रियाद्या यदि देव देहिन प्रमादत सचरता इतस्तत । क्षता विमिना मिलिता निपीडिता तदस्तु मिथ्या दुरनुष्ठित तदा ॥५॥
. भावार्थ-हे देव ! प्रमादसे इधर उधर चलते हुए एकेन्द्रिय मादि प्राणी, यदि मेरे द्वारा नाश किये गये हों, जुदे किसो गए. हो,