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________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [११९ समभाव या शातभाव मोक्ष साधक है, रागद्वेष मोहभाव मोक्ष मार्गमें वाधक है । ऐसा समझ कर अपने भावोंकी शुद्धिका सदा प्रयत्न करना चाहिये। श्री कुलभद्राचार्य सार समुच्चयमें कहते हैंयथा च जायते चेत सम्यकछुद्धि सुनिर्मलाम् । तथा ज्ञानविदा कार्य प्रयत्ननापि भूरिणा ॥१६१॥ भावार्थ-जिस तरह यह मन मले प्रकार शुद्धिको या निर्मलताको धारण करे उसी तरह ज्ञानीको बहुत प्रय न करके आचरण करना चाहिये। विशुद्ध मानस यस्य रागादिमलव जितम् । ससाराग्य फल तस्य सफल समुपस्थिरम् ॥१६२॥ भावाथ-जिसका मन रागादि मैलसे रहित शुद्ध है उसीको इस जगतमे मुख्य फल सफलतासे प्रप्त हुआ है । विशुद्धपरिणामेन शानिर्भवति सर्वत । सक्लिष्टन तु चित्तेन नास्ति शानिर्भवष्यपि ॥१७२॥ भावार्थ-निर्मल भावोंके होनेसे सर्व तरफसे शाति रहती है परन्तु क्रोधादिसे-दु खित परिणामोंसे भवभवमें भी शाति नहीं मिक सक्ती। सक्लिष्टचेतसा पुसा माया ससारवर्धिनी । विशुद्धचेतसा वृत्ति सम्पत्तिवित्तदायिनी ॥१७३॥ भावार्थ-सक्लेश परिणामधारी मानवोंकी बुद्धि ससारको बढ़ानेवाली होती है, परन्तु निर्मल भावधारी पुरुषोंका वर्तन सम्यग्दर्शनरूपी धनको देनेवाला है, मोक्षकी तरफ लेजानेवाला है।
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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