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दूसरा भाग। करनी चाहिये। यदि अपने भीतर दोष दोख तो उनको दूर करनका पुरा उद्योग करना चाहिये । यदि दोष न दीखें तो प्रसन्न होकर आगामी दोष न पैदा हो इस बातका प्रयत्न रखना चाहिये । यह प्रयत्न सत्सगति और शास्त्रोंका अभ्यास है। भिक्षुको बहुत करक गुरुके साथ या दूसरे साधुके साथ रहना चाहिये। यदि कोई दोष अपनेमें हो और अपनेको वह दोष न दिखलाई पड़ता हो और दुसरा दोषको बता दे तो उसपर बहुत सतोष मानना चाहिये । उसको धन्यवाद देना चाहिये । कभी भी दोष दिलानेवाले पर क्रोध या द्वेषभाव नहीं करना चाहिये । जैसे किसीको अपने मुखपर मैलका धब्बा न दीखे और दूसरा मित्र बता दें तो वह मित्र उसपर नाराज न होकर तुर्त अपने मुखके मैलको दूर कर देता है। इसीतरह जो सरल भावसे मोक्षमार्गका साधन करते है वे दोषोंके बतानेवाले पर सतुष्ट होकर अपने दोषोंको दूर करनेका उद्योग करते है। यदि कोई साधु अपने में बड़ा दोष पाते है तो अपने गुरुसे एकातमें निवेदन करते हैं और जो कुछ दह वे देते हैं उसको बड़े आनन्दसे स्वीकार करते है।
जैन सिद्धातमें पच्चीस कषाय बताए है, जिनके नाम पहले कहे जा चुके हैं। इन क्रोध, मान, माया लोभादिके वशीभूत हो मानसिक, “वाचिक, व कायिक दोषोंका होजाना सम्भव है । इस लिये साधु नित्य सबेरे व संध्याको प्रतिक्रमण ( पश्चाताप ) करते हैं व मागामी दोष न हो इसके लिये प्रत्याख्यान (त्याग)की भावना भाते हैं। साधुके भावोंकी शुद्धताको ही साधुपद समझना चाहिये ।