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२०२१
दूसरा भाग। सारसे जो काम लेना है वह मतलब पूर्ण होगा । ऐसे ही वह कुलपुत्र अकालिक मोक्षसे च्युत न होगा।
इस प्रकार भिक्षुओ ! यह ब्रह्मचर्य (भिक्षुपद) लाभ, सत्कार श्लोक पानेके लिये नहीं है, शील सपत्तिके लाभके लिये नहीं हैं, न समाधि सपत्तिके लापके लिये हैं, न ज्ञानदर्शन (तत्वको ज्ञान और साक्षात्कार ) के लाभके लिये है। जो यह न च्युत होनेवाली चित्रकी मुक्ति है इसके लिये यह ब्रह्मचर्य है, यही सार है, यही अन्तिम निष्कर्ष है।
नोट-इस सूत्र में बताया है कि सापकको मात्र एक निर्वाण लाभका ही उद्देश्य रखना चाहिये । जबतक निर्वाणका लाभ न हो तबतक नीचेकी श्रेणियोंमे सतोष नहीं मानना चाहिये, न किसी प्रकारका अभिमान करना चाहिये। जैसे सारको चाहनेवाला वृक्षकी शाखा आदि ग्रहण करेगा तो सार नहीं मिलेगा। जब सारको ही पासकेंगा तब ही उसका इच्छित फल सिद्ध होगा। उसी तरह साधुको लाभ सत्कार श्लोकमें सतोष न मानना चाहिये, न अभिमान करना चाहिये । शील या व्यवहार चारित्रकी योग्यता प्राप्तकर भी सतोष मानकर बैठ न रहना चाहिये, आगे समाधि प्राप्तिका उद्यम करना चाहिये । समाधिकी योग्यता होजाने पर फिर समाधिके बळसे ज्ञानदर्शनका आराधन करना चाहिये । अर्थात् शुद्ध ज्ञानदर्शनमय होकर रहना चाहिये। फिर उससे मोक्षमावका अनुभव करना चाहिये। इस तरह वह शाश्वत् मोक्षको पा लेता है।
जैन सिद्धातानुसार भी यही भाव है कि साधुको स्वाति