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________________ दूसरा भाग। मह मिक्को खलु सुद्धो य णिम्ममो णाणदमणसमग्गो। तमि ठिदो तचित्तो सम्वे एदे ख५ णेमि ॥ ७८ ॥ भावार्थ-मैं निर्वाण स्वरूप आत्मा एक ह, शुद्ध हू, परकी ममतासे रहित इ. ज्ञानदर्शनसे पूर्ण हू । इतसरह मै अपने शुद्ध स्वभावमें स्थित होता हुमा, उसीमें तन्मय होता हुमा इन सर्व ही रागद्वेषादि स्रबोंको नाश करता ह । समयसार कलशमें अमृतचद्राचाय कहते हैंभावयेद्भेद विज्ञानमिदमच्छिनधारया । तावद्यावत्पराच्छ्रुत्वा ज्ञान ज्ञाने प्रतिष्ठते ॥ ६-६ ॥ भेदज्ञानोच्छनकलनाच्छद्धतत्त्वोपळम्भादागप्रामप्रळयकरणारकर्मणा सवरेण । बिभ्रत्तोष पर मममळालोकमम्ळानमेक । ज्ञान ज्ञान नियतमुदित शाश्वतोद्योतमेतत् ॥ ८-६ ॥ भावार्थ-रागद्वेष बाधाकारी है, वीतरागभाव सुखकारी है, मेरा स्वभाव वीतराग है, रागद्वेष पर हैं, कर्मकृत विकार हैं। इस तरहके भेदके ज्ञानकी भावना लगातार तब तक करते रहना चाहिये जब तक ज्ञान परसे छूटकर ज्ञान ज्ञानमें प्रतिष्ठाको न पावे, अर्थात् जब तक वीतराग ज्ञान न हो जावे। भेद ज्ञानके वार वार उछलनेसे शुद्ध मात्मतत्वका लाम होता है । शुद्ध तत्वके बामसे रागद्वे घका प्राम ऊबड़ हो जाता है, तब नवीन कर्मोका भासव रुककर सवर होजाता है, तब ज्ञान परम सतोषको पाता हुमा अपने निर्मल एक स्वरूप, श्रेष्ठ प्रकाशको रखता हुमा व सदा ही उद्योत राता हुमा गपने शान स्वभावमें ही झलकता रहता है।
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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