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जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१३९ श्रो पूज्यपादस्वामी इष्टोपदेशमें कहते हैगगद्वेषयोदीर्धनेत्राकर्षणकर्मणा । अज्ञानात्सुचिर जीव ससाराब्धौ भ्रमत्यसौ ॥ ११ ॥
भावार्थ-यह जीव चिरकालसे अज्ञान के कारण रागद्वेषसे कर्मोको खींचता हुआ इस समारसमुद्रमे भ्रमण कर रहा है। उक्त भाचार्य समाधिशतकम कहते हैं
रागद्वेषादिकल्लालरलोल यन्मनोजलम् । स पश्यत्य त्मस्तत्त्व स तत्त्व नेत्रो जन ।। ३५ ।।
भावार्थ-जिनका चित्त रागद्वेषादिक लहरोंसे क्षोभित नहीं है वही अपने शुद्ध स्वरूपको देखता है, परन्तु रागीद्वेषी जन नहीं देख सक्ता है । सार समुच्चयमें कहा है---
रागद्वेषमयो जीव कामक्रोधवशे यत । लोभमोहमदाविष्ट ससारे ससात्यसौ ॥ २४ ।। कषायातपत्प्ताना विषपामयमोहिनाम् । सयोगायोग खन्नाना सम्यक्त्व परम हितम् ॥ ३८ ॥
भावार्थ-जो जीव रागद्वेषमई है, काम, क्रोधके वशमें है, लोभ, मोह व मदसे गिरा हुआ है, वह ससारमें भ्रमण करता ही है । क्रोधादि कषायोंके आतापसे जो तप्त है व जो इन्द्रिय विषयरूपी रोगसे या विषसे मूर्छित है व जो अनिष्ट सयोग व इष्ट वियोगसे पीड़ित है उसके लिये सम्यग्दर्शन परम हितकारी है ।
मात्मानुशासनमें कहा हैमुहु. प्रसार्य सज्ज्ञान पश्यन भावान् यथास्थितान् । प्रीत्यप्रीती निराकृत्य ध्यायेध्यात्मविन्मुनि ॥ १७७ ॥