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________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [१६९ जो धर्मके असली तत्वको उल्टा समझ लेगा उसका अहित होगा। परन्तु जो ठीक ठीक भाव समझेगा उसका परम हित होगा। यही बात जैन सिद्धातमें कही है कि ख्याति लाभ प्रजादिकी चाहके लिये धर्मको न पाले, केवल निर्वाणके लिये ठीक२ समझकर पाले, विपरीत समझेगा तो बाहरी ऊचासे ऊचा चारित्र पालनेपर भी मुक्ति नहीं होगी। जैसे यहा प्रज्ञासे समझनेका उपदेश है वैसे ही जैन सिद्धातमें कहा है कि प्रज्ञासे या भेद विज्ञानसे पदार्थको समझना चाहिये कि मै निर्वाण स्वरूप आत्मा भिन्न हू व सर्व गगादि विकल्प भिन्न है। (२) दूसरी बात इस सूत्रमें बताई है कि एक तरफ निर्वाण परम सुखमई है, दूसरी तरफ महा भयकर ससार है । बीचमे भवसमुद्र है। न कोई दुसरी नाव है न पुल है । जो आप ही भव समुद्र तरनेकी नौका बनाता है व भाप ही इसके सहारे चलता है वह निर्वाण पर पहुच जाता है। जैसे किनारे पर पहुंचने पर चतुर पुरुष जिस नावके द्वारा चल कर आया या उसको फिर पकड़ कर धरता नहीं-उसे छोड़ देता है, उसी तरह ज्ञानी निर्वाण पहुच कर निर्वाण मार्गको छोड़ देता है। साधन उसी समय तक मावश्यक है जबतक साध्य सिद्ध न हो, फिर साधनकी कोई जरूरत नहीं। सुत्रमें कहा है कि धर्म भी छोडने लायक है तब अधर्मकी क्या बात । यही बात जैन सिद्धातमे बताई है कि मोक्षमार्ग निश्चय धर्म और व्यवहार धर्मसे दो प्रकारका है। इनमें निश्चय धर्म ही यथार्थ मार्ग है, व्यवहार धर्म केवल निमित्त कारण है। निश्चय धर्म
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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