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दूसरा भाग ।
नहीं, मोह नहीं, तृष्णा नहीं, उपादान नहीं हो। । तथा जो विद्वान य ज्ञानपूर्ण दो, जो विरुद्ध न हो व जो प्रपचमें रत न हो ।
जैन सिद्धातमें भी शास्ता उसे ही माना है जो इस सर्व दोषोंसे रहित हो तथा जो सर्वज्ञ हो । स्वात्मरमी हो तथा धर्म भी वीतराग विज्ञान रूप आप्तरमण रूप माना है । तथा सदाचारको सहाई जान पूर्णपने पालने की आज्ञा है व साधर्मीसे वात्सल्यभाव रखना सिखाया है ।
समभद्राचार्य रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहते है - मनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना ।
भवितव्य नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥ ५ ॥ क्षुत्पिपासाजरातङ्कजन्मान्तक भयस्मया । न रागद्वेषमोहाच यस्याप्त स प्रकीत्यते ॥ ६॥ शास्ता या आप्त वही है जो दोषोंसे रहित हो, सर्वज्ञ हो व आगमका स्वामी हो । इन गुणोंसे रहित आप्त नहीं हो सक्ता । जिसके भीतर १८ दोष नहीं हों वही आप्त है - (१) क्षुषा, (२) त्रषा, (३) जरा, (४) रोग, (५) जन्म, (६) मरण, (७) भय, (८) आश्चर्य, (९) राग, (१०) द्वेष, (११) मोह, (१२) चिंता, (१३) स्वेद, (१४) स्वेद ( पसीना ), (१५) निद्रा, (१६) मद, (१७) रति, (१८) शोक ।
आत्मस्वरूप ग्रंथमें कहा है
रामद्वेषादयो पेन जिता कर्ममहामटा ।
काचक्रविनिर्मुक्त' स जिन परिकीर्तितः ॥ २१ ॥ hreat बोधेन बुद्धिवान् स जगत्रयम् । मनन्तज्ञानसंकीर्णे त तु बुद्धं नमाम्यहम् ॥ ३९ ॥