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________________ १०६ ] दूसरा भाग । श्री चन्द्रकृत वैराग्य मणिमाला में है। माकुरु यौवननगृहगर्व तब कालस्तु हरिष्यति सबै । इदमिदमफल हित्वा मोक्षपद च गवेषय मत्त्वा ॥ १८॥ नीलोत्पलदलगतजळचपल इदजालविद्युत्समतरळ । कि न वेत्सि ससारमसार भ्रात्य जानासि त्व सार ||१९|| भावाथ - यह युवानीका रूप, वन, घर आदि इन्द्रजालक समान चचल हैं व फल रहित है, ऐसा जानकर इनका गर्व न कर । जब मरण आयगा तब छूट जायगा ऐसा जानकर तू निर्वाणकी खोज कर । यह ससारके पदार्थ नीलकमल पत्तेपर पानीकी बुन्दक समान या इन्द्रधनुष के समान या विजलाके समान चचल हैं। इनको तू असार क्यों नहीं देखता है। भ्रमसे तु इनको सार जान रहा है। मूलाचार भनगार भावना में कहा है— भट्टिणिण णालिणिवद्ध कलिमकभरिद किमिउठपुण्ण । मसविलित्त तयपडिछण्ण सरीरघर त सददमचोक्ख || ८३ ॥ एदार सरीरे दुग्गधे कुणिमपूदियमचोक्खे | सढणपढणे सारे राग ण करिंति सप्पुरिसा ॥ ८४ ॥ भावार्थ - यह शरीररूपी घर हड्डियोंसे बना है, नसोंसे बबा है, मक मूत्रादिसे भरा है, कीड़ोंसे पूर्ण है, माससे मरा है, चमड्रेस ढका है, यह तो सदा ही अपवित्र है। ऐसे दुर्गंधित, पीपादिसे भरे अपवित्र सडने पढने वाले, सार रहित, इस शरीर से सत्पुरुष राम नहीं करते हैं। तीसरी बात वेदनाके सम्बन्धमें कही है। कामभोग सम्बन्धी सुख दु:ख वेदनाका कथन साधारण जानकर जो ध्यान करते हुए
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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