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________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१०५ हुए मनको बडी पीडा होती है। ऐसे भोगोंको कोई बुद्धिमान मेवन नहीं करता है । यदि गृहस्थ ज्ञानी हुआ तो मावश्यक्तानुसार अल्प भोग मतोषपूर्वक करता है-उनकी तृष्णा नहीं रखता है। आत्मानुशासनम गुणभद्राचार्य कहते हैकृपयाप्त्वा नृपतीनिषेव्य बहुशो भ्रान्त्वा बनेऽम्मोनिधौ । कि क्लिश्नासि सुखार्थमत्र सुचिर हा कष्टमज्ञानन ॥ तैल त्व सिकता स्वय मृगयसे वाञ्छेद् विषाज्जीवितु । नन्याशाग्रह निग्रहात्तक सुख न ज्ञातमत्त्वया ॥ ४२ ॥ भावाथ-खेती करके व कराके बीज बुवाफर, नाना प्रकार राजाओंकी सेवा कर, वनमें या समुद्रमें धनार्थ भ्रमणकर तूने सुखके लिये अज्ञानवश दीर्घकालसे क्यो कष्ट उठाया है। हा । नेग कष्ट वृथा है। तू या तो वालू पेलकर तेल निकालना चाहता है या विष खाकर जीना चाहता है। इन भोगोंकी तृष्णामे तुझे सच्चा सुख नहीं मिलेगा। क्या तृने यह बात अब तक नहीं जानी है कि तुझे सुख तब ही प्राप्त होगा जब तू माशारूपी पिशाचको वशमें कर लेगा? दुसरी बात इस सूत्रमें रूपके नाशकी कही है। वास्तवमें यह यौवन क्षणभगुर है, शरीरका स्वभाव गलनशील है, जीर्ण होकर कुरूप होजाता है, भीतर महा दुर्गंधमय अशुचि है। रूपको देखकर राग करना भारी अविद्या है। ज्ञानी इसके स्वरूपको विचार कर इसे पुद्गलपिंड समझकर मोहसे बचे रहते हैं। आठवें स्मृति प्रस्थान सूत्रमें इसका वर्णन हो चुका है। तो भी जैन सिद्धातके » कुछ बाक्य दिये जाते हैं...
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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