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दूसरा भाग। भावार्थ-कामभाव चित्तको मलीन करनेवाला है। सदाचाका नाश करनेवाला है । शुभ गतिको बिगाड़नेवाला है । काम भाव अनर्थों की सततिको चलानवाला है। भवभवमें दुम्वदाई है।
दोषाणामाकर कामो गुणाना च विनाशकृत् । पापस्य च निजो मन्धु परापदा चव सगम ॥ १०४ ॥
भावार्थ-यह काम दोषोंकी खान है, गुणोंको नाश करनेवाला है, पापोंका अपना बन्धु है, बडी२ आपत्तियोंका सगम मिलानेवाला है।
कामी त्यजति सवृत्त गुरोधर्णीि हिय तथा । गुणाना समुदाय च चेत स्वास्थ्य तथव च ।। १०७ ॥ तस्मात्काम सदा हेयो मोक्षसोख्य जिवक्षुभि । ससार च परित्यक्तु वा नियतिसत्तमे ॥ १०८ ॥
भावाथ-कामभावसे गृमित प्राणी सदाचारको, गुरुकी वाणाको, लज्जाको, गुणों के समूहको तथा मनकी निश्चलनाको खो देता है। इसलिये जो साधु सपारके त्यागकी इच्छा रखते हों तथा मोश्यके सुखके ग्रहणकी भावनासे उत्साहित हों उनको कामका भाव सदा ही छोड देना चाहिये।
इष्टोपदेशमें श्री पूज्यपादस्वामी कहते हैंभारम्भे ताप्कान्प्राप्ताव तृप्तिप्रतिपादकान् । मंते सुदुस्त्यजान् कामान् काम क सेवते सुध' ॥ १७ ॥
भावार्थ-मोगोंकी प्राप्ति करते हुए खेती भादि परिश्रम उठाते हुए बहुत क्लेश होता है, बड़ी कठिनतासे भोग मिलने हैं, भोगते हुए तृप्ति नहीं होती है। जैसे २ भोग भोगे जाते हैं तृष्णाको नाम बढ़ती जाती है। फिर प्राप्त भोगोंको छोडना वहीं चाहता है। हटते