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दूसरा भाग न्तमें प्रज्ञाकी बडी भाग प्रशसा का । जैन सिद्धातके कुछ वाक्य
श्री कुदकुदाचार्य समयसारमे कहते हैजीवा बधोय तहा छिन्नति सलक्खणेहि णि एहि । पण्णाछेदणएणदु छिण्णा णाणत्तमारण्णा ॥ ३१६ ॥
भावार्थ-अपने २ भिन्न २ लक्षणको रखनेवाले जीव और उसके बघरूप कर्मादि, रागादि व शरीरादि है। प्रज्ञारूपी छेनीसे दोनोंको छेदनेसे दोनों अलग रह जाते हैं । अर्थात् बुद्धिमें निर्वाण स्वरूप जीव भिन्न अनुभवमें भाता है।
पण्णाए वित्तव्यो जो चेदा सो अह तु णिच्छयदो।
अवसेसा जे भाषा ते मज्झपरित्त णादव्या ॥३१९॥
भावार्थ-प्रज्ञा रूपी छेनीसे जो कुछ ग्रहण योग्य है वह चेत नेवाला मैं ही निश्चयसे हू । मेरे सिवाय बाकी सर्व भाव मुझसे पर हैं, जुदे हैं ऐसा जानना चाहिये ।
समयसारकळशमें कहा हैज्ञानाद्विवेचकतया तु परात्मनोर्यो
____जानाति इस इव वा पयसोविशेष । चैतन्यधातुमचळ स सदाधिरूढो
जानीत एव हि करोति न किञ्चनापि ॥ १४-३ ॥ भावार्थ-ज्ञानके द्वारा जो अपने मात्माको और परको अलग मलग इसतरह जानता है जैसे हस दृध भौर पानीको अलग २ जानता है । जानकर वह ज्ञानी अपने निश्चल चैतन्य स्वभावमें भारूद रहता हुमा मात्र जानता ही है, कुछ करता नहीं है ।
श्री योगेन्द्रदेव योगसारमें कहते हैं