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________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१४१ इस तत्वज्ञानसे साफ प्रगट है कि गौतम बुद्ध निर्वाण स्वरूप मात्माको नागकी उपमा देकर पूजनेकी आज्ञा देते है, उसे नहीं फेंकते, उसको स्थिर रखते हैं और जो कुछ भी उसकी प्रति ष्ठाका विरोधी था उस सबको भेदविज्ञान रूपी प्रज्ञासे अलग कर देते है। यदि शुद्धात्माका अनुभव या ज्ञान गौतम बुद्धको न होता व निर्वाणको अभावरूप मानते होते तो ऐसा कथन नहीं करते कि सर्व सासारिक वासनाओंको त्याग कर दो। सर्व इन्द्रिय व मन सम्बन्धी क्रमवर्ती ज्ञानको अपना स्वरूप न मानो। सर्व चाहनाओंको हटावो । सर्व क्रोधादिको व रागद्वेष मोहको जीत लो । वस, अपना शुद्ध स्वरूप रह जायगा । यही शिक्षा जैन सिद्धातकी है, निर्वाण स्वरूप आत्मा ही सिद्ध भगवान् है । उसके सर्व द्रव्यकर्म, ज्ञानावरणादि कर्म बध सस्कार, भावकर्म रागद्वेषादि औपाधिक भाव नोकर्म-शरीरादि बाहरी सर्व पदार्थ नहीं है, न उसके क्रमवर्ती क्षयोपशम अशुद्ध ज्ञान है, न कोई इन्द्रिय है, न मन है। वही ध्यानके योग्य, पूजनके योग्य, नमस्कारके योग्य है । उसके ध्यानसे उसी स्वरूप होजाना है। यही तत्वज्ञान इस सूत्रका भाव है व यही जैन सिद्धातका मर्म है । गौतमबुद्धरूपी ब्राह्मण नवीन निर्वाणेच्छु शिष्यको ऐसी शिक्षा देते हैं । जबतक शरीरका सयोग है तबतक ये सब ऊपर लिखित उगाधिया रहती हैं, जब वह निर्वाण स्वरूप-प्रभु कायसे रहित होकर फिर कायमें नहीं फंसता, वही, निर्वाण होजाता है, प्रज्ञा निर्वाण और निर्वाण विरोधी सर्वके मिनर उत्तम ज्ञानको कहते हैं। जैन सिद्धा
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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