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________________ १८० ] दूसरा भाग । यह नन्दी (राग) का नाम है। इस माशपेशीको फेंक दे । नन्दी रागको प्रज्ञासे काट दे । (१५) भिक्षु ! नाग यह क्षीणास्रव (मईत् ) भिक्षु का नाम है । रहनेदे नागको मत उसे धक्का दे, नागको नमस्कार कर, यह इसका अर्थ है । Giggle नोट - इस सूत्र में मोक्षमार्गका गूढ तत्वज्ञान बताया है । जैसे सापकी वल्मीक सर्प रहता हो वैसे इस कायरूपी वल्मीकमे निर्वाण स्वरूप अर्हत् क्षीणास्रव शुद्धात्मा रहता है। इस वल्मीकरूपी कायमें कोषादि कषायका धूआ निकला करता है। इन कषायको प्रज्ञासे दूर करना चाहिये । इस कायमें अविद्यारूपी लगी है। इसको भी प्रज्ञा से दुर करे । इस काय में सशय या द्विकोटि ज्ञान रूपी दुवि धाके दो रास्ते है उसको भी प्रज्ञासे छेद ड ल । इस काय में पाच नीवरणोंका टोकरा है । इस टोकरे को भी प्रज्ञासे तोड़ डाळ । अर्थात राग, द्वेष, मोह, आलस्य उद्धता और सशयको मिटा डाल । इस कामें रहते हुए पाच उपादान स्कवरूपी कृमि या कछुआ है इसको प्रज्ञा के द्वारा फेंक दे । अर्थात् रूप व रूपसे उत्पन्न वेदना, संज्ञा, सस्कार और विज्ञानको जो अपने नागरूपी अरहत्का स्वभाव नहीं है उनको भी छोड दे । इस कायमे पाच काय गुणरूपी अभि सना (पशु सारने का पीढ़ा ) है इसे भी फेक दे । पाच इन्द्रियोंके मनोज्ञ विषयोंकी चाहको भी प्रज्ञासे मिटा डाल । इस कायमें ६ 梦 तृष्णा नदीरूपी मालकी डली है इसको भी प्रज्ञाके द्वारा दूर करदे । तब इस कायरूपी वल्मीक से निकल कर यह अईत् क्षीणास्रव निर्वाण स्वरूप आत्मारूपी निर्वाणरूप रहेगा।
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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