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________________ २२४ ] दूसरा माग । मुक्तलोकद्वयापेक्ष षोढ शेषः । अनुष्ठि महासत परिरक्तदु श्याशुभभावन । इतक्षणो ता धर्मध्यानस्य सम्मत ॥ ४६ ॥ भावार्थ - धर्मभ्य नका ध्याता साधु ऐसे लक्षणों का रखनेवाला होता है (१) निर्वाण जिसका निकट हो, (२) कुछ कारण पाके काम भोगोंसे विरक्त हो, किसी योग्य आचार्यके पास जाकर सर्व परिग्रहको त्यागकर निर्बंथ जिन दीक्षाको धारण की हो, (३) तक व सयम सहित हो, (४) प्रमाद भाव रहित हो, (५) भले प्रकार ध्यान करनेयोग्य जीवादि तत्वोंको निर्णय कर चुका हो, (६) आर्तरौद्र खोटे ध्यानके त्यागसे जिसका चित्त प्रसन्न हो, (७) इस लोक परलोककी वाछा रहित हो, (८) सर्व क्षुत्रादि परीषहोंको सहनेवाला हो, (९) चारित्र व योगाभ्यासका कर्ता हो, (१०) ध्यानका उद्योगी हो, (११) महान् पराक्रमी हो, (१२) अशुभ लेश्या सम्बन्धी अशुभ भावनाका त्यागी हो । गोय गे कुचन ॥ ४४ ॥ पद्मसिंह मुनि ज्ञानसारप कहते हैं सुण्णज्झाणे णिमो वायणिस्सेसवरणवावारो । परिरुद्व चत्तस्रो पावर जोई पर ठाण || ३९ ॥ भावार्थ- जो योगी निर्विक्स व्यानमें लीन है, सर्व इन्द्रि योंके व्यापार से विरक्त है, मनके प्रचारको रोकनेवाला है वही योगी निर्वाणके उत्तम पदको पाता है ।
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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