________________
११०]
दूसरा भाग। नोट-इस सूत्रका सार यह है कि राग द्वेष मोह ही दु ग्वके कारण है। उनकी उत्पत्तिके हेतु पाच इन्द्रियों के विषयोंकी लालसा है। इन्द्रिय भोग योग्य पदार्थों का सग्रह अर्थात् परिग्रहका सम्बन्ध जहातक है वहातक राग द्वेष मोहका दूर होना कठिन है। परिग्रह ही सर्व सासारिक कष्टोंकी भूमि है। जैन सिद्धातमें बनाया है कि पहले तो सम्यग्दृष्टी होकर यह बात अच्छी तरह जान लेनी चाहिये कि विषयभोगोंसे सच्चा सुख नहीं प्राप्त होता है-मुखमा दिखता है परन्तु सुख नहीं है । अतीन्द्रिय सुख जो अपना स्वभाव है वही सच्चा सुख है। करोड़ों जन्मोंमे इस जीवने पाच इन्द्रियोंके सुख भोगे है परन्तु यह कभी तृप्त नहीं होसका। ऐसी श्रद्धा होजाने पर फिर यह सम्यग्दृष्टी उमी समय तक गृहस्थमें रहता है जबतक भीतरसे पूरा वैराग्य नहीं हुमा । घरमें रहता हुआ भी वह अति लोभसे विरक्त होकर न्यायपूर्वक व सतोषपूर्वक आवश्यक इन्द्रिय भोग करता है तब वह अपनेको उस अवस्थासे बहुत अधिक सुख शातिका भोगनेवाला पाता है। जब वह मिथ्यादृष्टी था तो भी गृहवासकी आकुलतासे वह बच नहीं सक्ता । उसकी निरन्तर भावना यही रहती है कि कब पूर्ण वैराग्य हो कि कब गृहवास छोड़कर साधु हो परम सुख शातिका स्वाद लू । जब समय बाजाता है तब वह परिग्रह त्यागकर साधु होजाता है । जैनोंमें वर्तमान युगके चौवीस महापुरुष तीर्थकर होगए हैं, जो एक दुसरेके बहुत पीछे हुए। ये सब राज्यवशी क्षत्रिय थे, जन्मसे आत्मज्ञानी थे। इनमें से बार हवें वासपूज्य, उन्नीसवें मल्लि, बाईसवें नेमि, तेईसवें पार्श्वनाथ,