________________
२०८]
दसरा भाग। तब सारिपुत्रने महाकाश्यपसे यही प्रश्न पूछा।
(४) महाकाश्यप कहते है-भिक्षु स्वय मारण्यक (वनमें रहने बाला) हो, और मारण्यताका प्रशसक हो, स्वय पिंडपातिक (मधुकरी वृत्तिवाला) हो और पिडपातिकताका प्रशसक हो, स्वय पासुकूलिक ( फेंके चिथड़ोंको पहननेवाला ) हो, स्वय त्रैचीवरिक ( सिर्फ तीन वस्त्रोंको पासमे रखनेवाला ) हो, स्वय भल्पेच्छ हो, स्वय सतुष्ट हो, प्रविविक्त (एकान्त चितनरत) हो, ससर्ग रहित हो, उद्योगी हो, सदाचारी हो, समाधियुक्त हो, प्रज्ञायुक्त हो, वियुक्तियुक्त हो, वियुक्तिके ज्ञान दर्शनसे युक्त हो व ऐसा ही उपदेश देनेवाला हो, ऐसे भिक्षुसे यह वन शे मित होगा।
तब सारिपुत्रने महामौदल यनसे यही प्रश्न किया ।
(५) महामौद्गलायन कहते है-दो भिक्षु धर्म सम्बन्धी कथा करें । वह एक दुसरेसे प्रश्न पूछे, एक दुसरेको प्रश्नका उत्तर दें, जिद न करें, उनकी कथा धर्म स वधी चले । इस प्रकार के भिक्षुसे यह वन शोभित होगा।
तब महामौद्गालयनने सारिपुत्रसे यही प्रश्न किया।
(६) सारिपुत्र कहते हैं-एक भिक्षु चित्तको वशमे करता है, स्वय चित्त के वशमें नहीं होता। वह जिस विहार (ध्यान प्रकार) को प्राप्तकर पूर्वाह समय विहरना चाहता है । उसी विहारसे पूर्वाह्न समय विहरता है । जिस विहारको प्राप्तकर मध्य ह समय विहरना चाहता है उसी विहारसे विहरता है, जैसे किसी रानाके पास नाना-नके दुशालोंके करण्ड (पिटारे) भरे हों, वह जिस दुशालेको