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जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [२१. नि सगिन'ऽपि वृत्त ढ्या निस्नेहा सुश्रुतिप्रिया । अभूष ऽपि तपोभूषास्ते पात्र योगिन सदा ॥ २०१॥
भावार्थ-जो परिग्रह रहित होने पर भी चारित्रके धारी हैं, जगतके पदार्थोसे स्नेहरहित होने पर भी सत्य मागमके प्रेमी हैं, भूषण रहित होने पर भी तप ध्यानादि आभूषणोंके धारी हैं ऐसे ही मोगी सदा धर्मके पात्र है।
मोक्षपाहुड में कहा हैउद्धवझलोये केई मज्ज्ञ ण सहयोगागी । इयभावणाए जोई पार्वति र सासय टाण ॥ ८१ ॥
भावार्थ-इस ऊर्ध, अधो, मध्य लोक्में कोई पदार्थ मेरा नहीं है, मैं एकाकी इ, इस भावनासे मुक्त योगी ही शाश्वत् पद निर्वाअको पाता है।
भगवती आराधनामें कहा हैसम्वग्गयविमुक्को सीदीभूदो पसण्णचित्तो य । ज पावइ पीइसुह ण चक्कट्टी वितं लहदि ॥ १९८२ ॥
भावार्थ-जो स धु सर्व परिग्रह रहित है, शात चित्त है व प्रसन्नचित्त है उमको जो प्रीति और सुख होता है उसको चक्रवर्ती भी नहीं पासक्ता है।
आत्मानुशासनम कहा हैविषयविरति सगत्याग ६ष यविनिग्रह । शमयमदमास्तत्त्वाभ्यासस्तपश्च धर ॥ नियमितमनोवृत्तिभक्तमिनेषु दयालुता । भवति कतिन संसाराब्धेस्तटे निफ्टे सति ॥ २२ ॥