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दूसरा भाग ।
जो उस तृष्णाका सम्पूर्णतया विराग, निरोध, त्याग, प्रति निसर्ग, मुक्ति, अनालय (कीन न होना) वह दुःख निरोध है । ऊपर लिखित आर्य अष्टांगिक मार्ग दु ख निरोधगामिनि प्रतिपद है।
जब आर्य श्रावक जरा मरणको, इसके कारणको, इसके निरोधको व निरोधके उपायको जानता है तब यह सम्यग्दृष्टि होता है ।
प्राणियों के शरीर में जीर्णता, खाडित्य (दात टूटना ), पालित्य ( बालकपना ), बलित्वक्ता (झुर्री पडना ), आयुक्षय, इन्द्रिय परिपाक यह जरा कही जाती है। प्राणियोंका शरीरोंसे च्युति, भेद, अन्तर्धान, मृत्यु, मरण, कधोंका विलग होना, कलेवरका निक्षेप, यह मरण कहा जाता है । जाति समुदय ( जन्मका होना) जरा मरण समुदय है । जाति निरोध, जरा मरण निरोध है । वही अष्टागिक मार्ग निरोधका उपाय है ।
जब आर्य श्रावक तृष्णाको, तृष्णाके समुदयको, उसक निरोधको तथा निरोध गामिनी प्रतिपदको जानता है तब घह सम्यग्टष्ट होता है। तृष्णाके छ आकार हैं - (१) रूप तृष्णा (२) शब्द तृष्णा, (३) गन्ध तृष्णा, (४) रस तृष्णा, (५) स्पर्श तृष्णा, (६) धम ( मनके विषयोंकी ) तृष्णा । वेदना ( अनुभव ) समुदय ही तृष्णा समुदय है ( तृष्णाका कारण ) है । वेदना निरोध ही तृष्णा निरोष है। वही अष्टांगिक मार्ग निरोध प्रतिपद है ।
जब भार्य श्रावक वेदनाको, वेदना समुदयको, उसके निशेषको तथा निरोधगामिनी प्रतिपदूको जानता है