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दुसरा भाग ।
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भोग सवर तथा निर्जरा तत्व बताया है । अर्थात् रत्नत्रय धर्मका साधन है जो बौद्धोंके अष्टाग मार्गसे मिल जाता है ।
तस्वानुशासन में कहा है
art four चास्य हेयमित्युपदर्शित । दुखसुखयोर्यस्माद्वीनमिद द्वय ॥ ४ ॥
मोक्षस्तत्कारण चतदुपादेयमुदाहृत । उपादेय सुख यस्मादस्मादाविर्भविष्यति ॥ ९ ॥ स्युर्मथ्यादर्शनज्ञान चारित्राणि समासत । aur traiऽन्यस्तु त्रयाणामेव विस्तर ॥ ८ ॥ ततस्त्व हेतूना समस्ताना विनाशत |
प्रणाशन्मुक्त सम्म भ्रमिष्यसि ससृतौ ॥ २२ ॥ स्यात्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रितयात्मक । मुक्तिहेतुर्जिनोपज्ञ निर्जरासवर क्रिया ॥ २४ ॥ भावार्थ - is iर उसका कारण त्यागने योग्य है । क्योंकि इनहीसे त्यागने योग्य सासारिक दुख सुखकी उत्पत्ति होती है। मोक्ष और उसका कारण उपादेय है। क्योंकि उनसे ग्रहण करने योग्य आत्मानंदकी प्राप्ति होती है । बधके कारण सक्षेप से मिथ्यादर्शन, मिथ्या
ज्ञान तथा मिथ्याचारित्र है। इन्ही तीनका विस्तार बहुत है। हे भाई! यदि तु बंधके सब कारणोंका नाश कर देगा तो मुक्त होजायगा, फिर संसार में नहीं भ्रमण करेगा। मोक्षके कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र यह रत्नत्रय धर्म है। उन होके सेवनसे माप्त समाधि प्राप्त होने से सबर व निर्जरा होती है, ऐसा जिनें ने कहा है। इस स्मृतिप्रस्थान सूत्रके अंत में कहा है कि जो इन