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________________ जन बौद्ध तत्वज्ञान | [ १४१ करे | ऐसा करने से छन्द ( राग ) सम्बन्धी दोष व मोह सम्बन्धी अकुशल वितर्क नष्ट होते हैं, अस्त होते हैं, उनके नाशसे अपने भीतर ही चित्त ठहरता है, स्थिर होता है, एकाग्र होता है, समाहित होता है । जैसे राज सूक्ष्म आणीसे मोटी आणीको निकालकर फेंक देता है । 1 (२) उस भिक्षुको उस निमित्तको छोड़ दूसरे कुशल सबन्धी निमित्तको मनमें करने पर भी यदि रागद्वेष मोह सब घी अकुशल वितर्क उत्पन्न होते ही है तो उस भिक्षुको उन वितर्कों के आदिनव ( दुष्परिणाम ) की जाच करनी चाहिये कि ये मेरे वितर्क अकुशल हैं, ये मेरे वितर्क सावद्य (पापयुक्त) है । ये मेरे वितर्क दु खविपाक (दु ख ) है । इन वितर्कोंक आदिनवकी परीक्षा करनेपर उसके राग द्वेष मोह बुरे भाव नष्ट होते है, अस्त होते हैं, उनके नाशसे चित्त अपने भीतर ठहरता है, समाहित होता है । जैसे कोई शृगार पसद अल्पवयस्क तरुण पुरुष या स्त्री मरे साप, मरे कुत्ता या आदमीके मुर्दे कठमें लग जाने से घृणा करे वैसे ही भिक्षुको अकुशल निमितोंको छोड़ देना चाहिये । 1 (३) यदि उस भिक्षु को उन वितर्कों के आदिनवको जाचते हुए भी राग, द्वेष, मोह सम्बन्धी अकुशल वितर्क उत्पन्न होते ही है तो उस भिक्षुको उन वितको यादमें लाना नहीं चाहिये । मनमें न करना चाहिये ऐसा करने से वे वितर्क नाश होते है और चित अपने भीतर ठहरता है । जैसे दृष्टिके सामने आनेवाले रूपों के देखनेकी इच्छा न करनेवाला कोदमी आंखोंको मूंदले या दुसरेकी ओर देखने लगे ।
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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