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दूसरा भाग।
(४) यदि उस भिक्षुको उन वितकों के मनमें न लानेपर भी गगद्वेष मोह सम्बन्धी बुरे भाव उत्पन्न होते ही है तो उस भिक्षुको उन वितकों के सम्वार का सस्थान (कारण) मनमे करना चाहिये । ऐसा करने से वे वितर्क नाश होने हैं जैसे क्षुिओ। कोई पुरुष शीघ्र भाजाता है उसको ऐसा हो क्यों मै शीघ्र जाता है क्यों न धीरे२ चलू, वह धीरे२ चले, फिर ऐमा हो क्यों न मै बैठ जाऊँ, फिर वह बैठ जावे, फिर ऐसा हो क्यों न मै लेट जाऊँ, फिर वह लेट जावे, वह पुरुष मोटे ईर्यापथसे हटकर सुक्ष्म ईर्यापथको स्वीकार करे। इसी तरह भिक्षुको उचित है कि वह उन वितकोंके सस्कारके सस्थानको मनमें विचारे ।
(५) यदि उस भिक्षुको उन वितको वितक सरकार सस्था नको मनमें करनेस भो रागद्वेष मोह सम्बन्धो अकुशल वितर्क उत्पन होते ही है तो उस दातोंको दातोप. रग्वार, जिह्वाको तालूसे चिस्टा कर, चित्तसे चित्तका निग्रह करना चाहिये, सतापन व निष्पीडन करना चाहिये । ऐसा करने से वे गगद्वेष मोहभाव नाश होते है। जैसे बलवान पुरुष दुर्बलको शिरसे, कधेसे पकडकर निग्रहीत करे, निपीड़ित करे, संतापित करे।
इस तरह पाच निमित्तोंके द्वारा भिक्षु वितर्कके नाना मार्गोको वश करनेवाला कहा जाता है । वह जिस वितर्कको चाहेगा उसका वितर्क करेगा। जिस वितर्कको नहीं चाहेगा उस वितर्कको नहीं करेगा। ऐसे भिक्षुने तृष्णारूपी बन्धनको हटा दिया । मच्छी तरह जानकर, साक्षात् कर, दुःखका मत कर दिया।