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________________ १३० । दूसरा भाग । वह दर रागद्वे में पड़ा सुखमय, दुखगय या न दुखमन जिसी वेदनाको वेदन करता है उसका वह अभि भन्दन करता है, अवगाहन करता है । इन प्रकार अभिनन्दन करते, अभिवादन अगाहन करते ) उसे नदी (तृष्णा) उत्पन्न विषय में जो यह नदी है वही उसका उपा होती है। बेग है, उसके उपादन के कारण भव होता है, भव के कारण जाति, शाति के कारण जरा मग्ण, शोक, कदन, दुख, दौर्मनस्य होता है। इसी प्रकार क्षेत्र मे घणसे, जिहासे, कायासे तथा मनसे प्रिय वर्कोहो खानकर रागद्वेष वरन्से केवल दुख स्वधकी उत्पत्ति होती है ( दुःख स्कंध के क्षयका उपाय ) १०- विक्षुओ ! यहा लोक्में तथागत, भर्हत्, सम्यकूमम्बुद्ध, विद्या च ग्युन्स, सुरत, रोक बिंदु पुरुषोंक अनुग्म च बुक सवार, देवताओं और मनुष्यों उपदेष्टा भगवन् बुद्ध उत्पन्न होते हैं वह ब्रझers, माग्लोक, देवलोक सहिन इस लोक्षो, देव, मनुष्य सहित श्रमण ब्रणयुक्त सभी प्रजाको स्दय समझकर साक्षचार कर धर्मको बतलाते हैं । यह आदिमें कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, अन्तमें वल्याणकारी धर्मको अर्थ सहित व्यंजन सहित] उपदेशत है। वह केवल (मिश्रण रहित ) परिपूर्ण परिशुद्ध मादर्यको प्रकाशित करते हैं । उस धर्मको गृहपतिका पुत्र या और किसी छ टे कुल्में उत्पन्न पुरुष सुनता है। वह उस धर्मको सुनकर तथागतके विषय में श्रद्धा काम करता है । वह उस श्रद्धाछाम से सयुक्त हो सोचता है, यह गृहवास जंजाल है, मैकका
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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