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________________ १०.] दूसरा भागः। सफेद होगए है। यही रूपका आदिनव है। जो पहले मुद्रर थी सो अब ऐसी होगई है। फिर उसो भगिनी को देखा जावे कि यह रोगस पीड़ित है, दु स्थित है, मल मुत्रले लिपी हुई है, दूमरों द्वार उठाई जाती है, सुलाई जाती है । यह वही है जो पहले शुम था यह है रूपका आदिना । फिा -सी भगिनीको मृतक देखा जाद जो एक या दो या तीन दिनका पड़ा हुआ है। वह का; गृद्ध, कुत्ते, शृगाल मादि प्राणियोंसे खाया जारहा है । हड्डी, माम, नसे मादि अगर है । सर जग है, घड अलग है । इत्यानि दुर्दशा यह सब रूपका लादिनव या दुष्परिणाम है। (५) क्या रूपका निस्तारन -सर्व प्रकार के रूपोंसे रागका परित्याग यह है रूपका निस्मरण । जो कोई श्रमण या ब्राह्मण इतरह स्पका आस्वाद नहीं करता है, दुष्परिणाम तथा निस्सरण पर्याय रूपसे जानना है वह अपने भी रूपको वैसा जानेगा, पर के रूपको भी वैसा जानेगा। (६) क्या है वेदनाओका आस्वाद यहा भिक्षु कामोंस विरहित, नुरी बातोंमे विरहित सवितर्क सविचार विधेकसे उत्पन्न प्रीति और सुखवाले प्रथम ध्यानको प्राप्त हो विहरने लगता है। उस समय वह न अपनेको पीड़ित करने का ख्याल रखता है न दुसरेको न दोनोंको, वह पीड़ा पहुचानेसे रहित वेदनाको अनुभव करता है । फिर वही भिक्षु वितर्क और विचार शात होनेपर भीतरी शाति और चित्तकी एकाग्रतावाले वितर्क विचार रहित प्रीति सुख वाले द्वितीय ध्यानको प्राप्त हो विहरता है। फिर तीसरे फिर चौथे
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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