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________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [५५ चौथा नैवसंज्ञाना सज्ञा आयतनको कहा है । उसका भाव यह है कि किसी वस्तुका नाम है या नाम नहीं है इस विकल्पको हटाकर स्वानुभवगम्य निर्वाणपर लक्ष्य लेजाओ। ये सब सम्यक् समाधिक प्रकार है। मष्टाग बौद्धमार्गमें सम्यक्समाधिको सबसे उत्तम कहा है । इसी तरह जैन सिद्धात मनसे विकल्प हटानेको शून्यरूप आकाशका, ज्ञानगुणका, भाकिचन्य भावका व नामादिकी कल्पना रहितका ध्यान कहा गया है । तत्वानुशासनमे कहा हैतदेवानुभवश्चायमेकप्रय परमृच्छति । तथात्माधीनमानदमेति वाचामगोचर ॥ १७० ॥ यथा निर्वातदेशस्य प्रदीपो न प्रकपते । तथा स्वरूपनिष्ठोऽय योगी नेकाग्रयमुज्शति ॥ १७१ ॥ तदा च परमेकाप्रयाद्वहिरर्थेषु सत्खपि । अन्यन्न किंचनामाति स्वमेवात्मनि पश्यत ।। १७२।। भावाथ-आपको आपसे अनुभव करते हुए परम एकाग्र भाव होजाता है। तब वचन अगोचर स्वाधीन अनादि प्राप्त होता है। जैसे हवाके झोकेसे रहित दीपक कापता नहीं है वैसे ही स्वरूपमें ठहरा हुमा योगी एकाग्र भावको नहीं छोड़ता है। तब परम एकाग्र होनेसे व अपने भीतर भापको ही देखनेसे बाहरी पदाथोंके मौजूद रहते हुए भी उसे कुछ भी नहीं झलकता है। एक आत्मा ही निर्वाण स्वरूप अनुभवमें आता है।
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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