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जैन बौद्ध तत्वज्ञान !
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विनर्कका, उत्पन्न हिंमाके वितर्कका, तथा अन्य उत्पन्न होते अकुश धर्मो का स्वागत करता है, छोड़ना नहीं ।
(४) भिक्षु व्रण ( घात) का ढाकनेवाला नही होता है-भिक्षु आखसे रूपको देखकर उसके निमित्त ( अनुकूल प्रतिकूड होने) का ग्रहण करनेवाला होता है | अनुव्यजन ( पहचान ) का ग्रहण करनेवाला होता है । जिस विषयमें इस चक्षु इन्द्रियको सयत क रखने पर लोभ और दौर्मनस्य आदि बुराइया अकुशल धर्म आ चिपटते है उसमें सयम करने के लिये तत्पर नहीं होता । चक्षुइन्द्रिय की रक्षा नहीं करता, चहन्द्रियके सवरमें लम नहीं होता । इसी तरह श्रोत्र शब्द सुनकर, प्राणसे गव सूत्रकर, जिह्न से रस चखकर, कायासे स्पृश्यको स्पर्शकर, मनसे धर्मको जानकर निमित्तका प्रहण करनेवाला होता है । इनके सयममें लग्न नहीं होता ।
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(५) भिक्षु धुआ नहीं करता - भिक्षु सुने अनुमार, जाने अपार, धर्मको दूसरोंके लिये विस्तारसे उपदेश करनेवाला नहीं होता । (६) भिक्षु तीर्थको नहीं जानता- जो वह भिक्षु बहुश्रु आगम प्राप्त, धर्मघर, विनयधर, मात्रिका घर है उन भिक्षुओंके पास समय समयपर जाकर नहीं पूछता, नहीं प्रश्न करता कि यह कैसे हैं, इसका क्या अर्थ है, इसलिये वह भिक्षु भवित्राको विन नहीं करता, खोलकर नहीं बनलाता, असष्टको स्पष्ट नहीं करता, अनेक प्रकार के शका - स्थानवाले धर्मोमें उठी शँका का निवारण नहीं करता ।
(७) भिक्षु पानको नहीं जानता - भिक्षु तथागतके बनला ये धर्म विनयके उपदेश किये जाते समय उसके अर्थवेद ( अर्थ ज्ञान ) को नहीं पाता ।