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जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [६७ उनका नहीं आना सवर है । ध्यान समाधिसे कर्मोका क्षय करना निर्जरा है । सर्व कर्मोंसे मुक्त होना, निर्वाण काम करना मोक्ष है।
इन सात तत्वोंको श्रद्धानमे लाकर फिर साधक अपने मात्माको परसे भिन्न निर्वाण स्वरूप प्रतीत करके भावना भाता है। निरतर अपने आत्माके मननसे भावोंमे निर्मकता होती है तब एक समय माजाता है जब सम्यग्दर्शनके रोकनेवाले चार मनतानुबन्धी कषाय और मिथ्यात्वका उपशम कर देता है और सम्यग्दशनको प्राप्त कर लेता है। जब सम्यग्दर्शनका प्रकाश झलकता है तब आत्माका साक्षात्कार होजाता है-स्वानुभव होजाता है। इसी जन्ममें निवा णका दर्शन होजाता है। सम्यग्दर्शन के प्रतापसे सच्चा मुख स्वादमें आता है । अज्ञान सम्बन्धी राग, द्वेष, मोह सब चला जाता है, ज्ञान सम्बन्धी रागद्वेष रहता है । जब सम्यग्दृष्टी श्रावक हो अहिंसादि अणुव्रतोंको पालता है तब रागद्वेष कम करता है । जब वही साधु होकर अहिंसादि महाव्रतोंको पालता हुआ सम्यक् समाधिका मले प्रकार साधन करता है तब अरहत परमात्मा हो जाता है । फिर. आयुके क्षय होनेपर निर्वाण लाभकर सिद्ध परमात्मा होजाता है।
पचाध्यायी कहा हैसम्यक्त वस्तुत सूक्ष्म केवलज्ञानगोचरम् । गोचर खावधिस्वान्तपर्ययज्ञानयोयो ॥ ३७५ ॥ मस्त्यात्मनो गुण कश्चित् सम्यक्त्व निर्विकल्पक । तद्दङ्मोहोदयान्मिथ्यास्वादुरूपमनादित ॥ ३७७ ॥
भावार्थ:-सम्यग्दर्शन वास्तवमें केवलज्ञानगोचर अति सूक्ष्म गुण है या परमावधि, सर्वावधि व मन पर्ययज्ञानका भी विषय है।