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दूसरा भाग। किन्तु उनकी ये दृष्टिया हुई ( इन दृष्टियोंके या नयों के विचारमें फंस गए ) (१) लोक शाश्वत है, (२) (अथवा) यह लोक अशाश्वत है, (३) लोक सान्त है, (४) (अथवा) लोक अनत है, (५) सोई जीव है, सोई शरीर है, (६) (अथवा) जीव मन्य है, शरीर अन्य है, (७) तथागत (बुद्ध, मुक्त) मरने के बाद होते हैं, (८) (अथवा) तथागत मरने के बाद नहीं होते, (९) तथागत मरनेके बाद होते भी है, नहीं भी होते, (१०) तथागत मरने के बाद न होते है न नहीं होते है । इस प्रकार इन (विकल्प जालोंमें फसकर) तीसरे श्रमण ब्राह्मण भी मारके फरेसे नहीं छूटे।
चौथे प्रकार के श्रमण ब्रह्मणोंने पहले तीन प्रकारके श्रमणब्राह्मणों की दशाको विचार यह सोचा कि क्यों न हम वहा माश्रय ग्रहण को जहा मारकी और मार परिषद् की गति नहीं है। वहा हम अमूर्छिन हो भोजन करेंगे मदको प्राप्त न होंगे, स्वेच्छाचारी न होंगे, ऐसा सो व उन्होंने ऐमा ही किया। वे चौथे श्रमण ब्राह्मण मारके फदेसे छूटे रहे। कैसे (आश्रय करनेसे) मार और मार परिपकी गति नहीं होती।
(१) भिक्षु कामों (इच्छाओं) मे रहित हो, बुरी बातोसे रहित हो, सवितर्क सविचार विवेकज प्रीतिसुख का प्रथम व्यानको प्राप्त हो, विहरता है। इस क्षुिने माग्को अभाव र दिया। मारकी चक्षुमे अगम्य बनकर बह भिक्षु पपी मारसे अदर्शन होगया ।
(२) फिर वह भिक्षु अवितर्क अविचार समाधिजन्य द्वितीय ध्यानको प्राप्त हो विहरता है। इसने भी मारको अवा कर दिया।