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________________ ] दूसरा भाव।। गर्भित होजाती हैं । १ - अनित्य (समारकी अवस्थाए नाशवन्त है), २- अशरण ( मरणसे कोई रक्षक नहीं है, ३-संसार (सगार दुख मय है ), ४- एकत्व ( अफले ही सुख दुख भोगना पडता है आ है सर्व कर्म आदि दिन है), ५- अन्यत्र (शरीर मासे भिन्न हैं ) ६ - अशुचित्व (मानवका यह शरीर महान अप बिन है), ७ आत्र (मोंक आनेके क्या २ भाव हैं) ८-संबर ( कर्मोंक रोकने के क्या क्या भाव है ) ९ निर्जश (के क्ष क्रनेक क्यार उपाय है), १०-लोक ( जगत जाव अजीव द्रव्योंका समूह अकृत्रिम व अनादि अनंत है ) ११ - बोधिदुर्लभ ( रत्नत्रम धर्मका मिलना दुर्लभ है), १२ - धम ( आत्माका स्वभाव धर्म है) । इन १२ भावनाओ चितवनसे वैराग्य छाजाता है- परिणाम शात होजाते है । नोट पाठकगण देखेंगे कि अवभाव हो ससार भ्रमणके कारण हैं व इनके रोकनेहीसे ससारका अत है । यह कथन जैन सिद्धात और बौद्ध सिद्धातका एकसा ही है । इम सर्वास्रव सूत्रके अनुसार जैन सिद्धात भावासवों को बताकर उनसे कर्म पुद्गल खिचकर आता है, वे पुद्गल पाप या पुण्य रूपसे जीवके साथ चले आए हुए कार्माण शरीर या सूक्ष्म शरीरक साथ बघ जाते हैं । और अपने विपाक पर फल देकर या विना फल दिये झड जाते हैं । यह कर्म सिद्धातकी बात यहा इस सूत्र में नहीं है । 1 जैन सिद्धात में आसवभाव व संवरभाव ऊपर कहे गए हैं उनका स्पष्ट वर्णन यह है
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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