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दूसरा भाग ।
सद्भावरूप माना जावे तो जो भाव निर्वाणका व निर्वाणक मार्गका जैन सिद्धात है वही भाव निर्वाणका व निर्वाण मार्गका बौद्ध सिद्धा में है । साधुकी बाहरी क्रियाओंमें कुछ अतर भीतरी स्वानुभव व स्वानुभव के फलका एकमा ही प्रतिपादन है ।
जैन सिद्धातके कुछ वाक्यपचास्तिकायमे कहा है-
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जो खलु ससारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्म कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥ १२८ ॥ ference देहो देहादो इद्रियाणि जायते । हिंदु वियहण तत्तो रागो व दोसो वा ॥ १२९ ॥ जायदि जीव भावो ससारचकवालम्मि | इदि जिणेहि भणिदो भणादिणिषण सषिणो वा ॥ १३० ॥ भावार्थ - इस ससारी जीवके मिश्याज्ञान श्रद्धान सहित तृष्णायुक्त रागादिभाव होते हैं । उनके निमित्तसे कर्म बन्धनका सरकार पड़ता है, कर्मके फलसे एक गतिसे दूसरी गतिमें जाता है। जिस गतिमें जाता है वहा देह होता है, उस देहमें इन्द्रियाँ होती हैं, उन इन्द्रियोंसे विषयोंको ग्रहण करता है। जिससे फिर रागद्वेष होता है, फिर कर्मबन्धका सस्कार पडता है। इस तरह इस संसाररूपी चक्र इस जीवका भ्रमण हुआ करता है। किसीको अनादि अनंत रहता है, किसीके अनादि होने पर अंतसहित होजाता है, ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है ।
शमाधिशतक में कहा है
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