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________________ ७८] दूसरा भाग। भावार्थ-ससारी प्राणियोंके भीतर अनादिकालकी यह वासना है कि शरीरादिमें ममता करते हैं इसलिये जब मनोज्ञ इन्द्रिय विषयकी प्राप्ति होती है तब सुख, जब इसके विरुद्ध हो तब दुख अनुभव कर लेते है । परन्तु ये ही भोग जिनसे सुख मानता है भापत्तिके समय, चिन्ताके समय रोगके समय अच्छे नहीं लगने है । मुग्व प्याससे पीडित मानवको सुदर गाना बजाना व सुदर स्त्रीका सयोग भी दुखदाई भासता है, अपनी कल्पनासे यह प्राणी सुखी दुखी होजाता है । तत्वसारमे कहा है - भुजतो कम्मफल कुणइ ण गय च तह य दोस वा। सो सचिय विणासइ अहिणवकम्म ण बधे ॥ ११ ॥ भुजतो कम्मफल भाव मोहेण कुणइ सुहमसुह । जइ त पुणोवि बध णाणावरणादि भट्ठविड ।। ६२ ॥ भावार्थ-जो ज्ञानी कर्मो का फल सुख या दु ख भोगत हुए उनके स्वरूपको नसाका तैसा जानकर गग व द्वेष नहीं करता है वह उस सचित कर्मको नाश करता हुमा नवीन कर्मोको नहीं बाघता है, परन्तु जो कोई मज्ञानी कर्मोका फल भोगता हुमा मोहसे सुख व दु खमें शुभ या अशुभ भाव करता है अर्थात् मैं सुखी या मैं दुखी इस भावनामें लिप्त होजाता है वह ज्ञानावरणादि माठ प्रकारके कर्मोको बाध लेता है। श्री समन्तभद्राचाय सासारिक सुखकी भसारता बताते हैंस्वयभूस्तोत्रमें कहा हैशः हृदोन्मेषचल हि सौख्य तृष्णामयाप्यायनमानहेतुः। तृष्णाभिवृद्धिश्च तपत्यजस्र तापस्तदायासयतीत्यवादीः ॥१३॥
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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