SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ ९ 66 (१) मेरा आत्मा है, (२) मेरे भीतर आत्मा नहीं है, (३) आत्मा को ही आत्मा समझता हू (४) आत्माको ही अनात्मा सम झता हूँ, (५) अनात्माको ही आत्मा समझता हू, (६) जो वह मेरा खात्मा अनुभव कर्ता (वेदक ) तथा अनुभव करने योग्य (वेब) और तहा तहा (अपने ) मल बुर कर्मोंके विपाकको अनुभव करना है वह यह मेरा आत्मा नित्य, भुत्र शाश्वत, अपरिवर्तनशील (अबि परिणाम धर्मा) है, अनन्त वर्षो तक वैसा ही रहेगा । भिक्षुओ इसे कहते है दृष्टिमल (मतवाद), दृष्टिगहन (दृष्टिका घना जंगल ), दृष्टिकी मरुभूमि ( दृष्टिका तार ), दृष्टिका 'टा ( दृष्टि विशु), दृष्टिका फदा (दृष्ट सयोजन ) । भिक्षुओ ! दृष्टिके फदेवें फपा नाड़ी पुरुष जन्म जरा मरण शोक, रोदन कदन, दुस्ख दुर्मनस्कता और हैरानियोंमे नहीं छूटता दुखसे परिमुक्त नहीं होता ।" 1 नोट ऊपरी छ दृष्टियोंका विचार जहातक रहेगा वहातक स्वानुभव नहीं होगा । मैं हू वा मैं हीं हू, क्या हू का नहीं है, कैसा था कैमा इङ्गा इत्यादि सर्व वह विजाल है जिसके भीतर कमनमे रागद्वेष मोह नहीं दूर होत वीतरागभाव नहीं पेश ठा है | हम कथनको पढ़ा कोई कोई ऐना मतलब लगाते है कि गौव मबुद्ध किसी शुद्धबुद्धपूर्ण एक आत्मा जो निर्माण स्वरूप है उमको भी नहीं जानते थे। जो ऐसा मानेगा उसके मलमें निर्माण मा रूप होजाएगा। यदि वे आत्माका सर्वथा अभाव मानते तो मेरे मीतर आत्मा नहीं है, इस दूसरी दृष्टिने नहीं कहते । वास्तवमें यहां सर्व विचारोंके अभावकी तरफ सकेत है । यही बात जैन सिद्धातमें समाधिकमें इस प्रकार बताई है
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy