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दूसरा भाग। येनात्मनाऽनुभूयेऽहमात्मनैवात्मनात्मनि । सोऽह न तन्न सा नासौ नको न द्वा न वा महु ॥ २३ ॥ यदभावे सुषुनोऽह यगावे ध्युत्थित पुन । अतीन्द्रियमनिर्देश्य तत्सतसवेद्यमस्म्यहम् ॥ २४ ॥
भावार्थ-इन दो श्लोकोमें समाधि प्राप्त की दशाको बताया है। समाधि प्राप्तके भीतर कुछ भी विचार नहीं होता है कि मैं क्या इ क्या नहीं है । जिस स्वरूपसे मैं अपने ही भीतर अपने ही द्वारा अपने रूपसे ही अनुभव करता है, वही मैं है । न मैं नपुसक हू न स्त्री हू न पुरुष ई, न मै एक हू न दो इ न बहुत है । जिस किसी वस्तुक अक्षाभमें मैं सोया हुभा था व जिसके लाभमें मैं जाग उठा वह मैं एक इन्द्रियोंसे भतीत हू, जिसका कोई नाम नहीं है जो मात्र मापसे ही अनुभव करनेयोग्य है । समयसार कलशमें यही बात कही है।
य एव मुक्त्वानयपक्षपात स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्य । विकल्पजाळच्युतशान्तचित्तास्त एक साक्षादमृत पिबति ॥२४॥
भावाथ-जो कोई सर्व अपेक्षाओंके विचाररूपी पक्षपातको कि में ऐसा हू व ऐसा नहीं हू छोड़कर अपने आपमें गुप्त होकर हमेशा रहते है अर्थात् स्वानुभवमें या समाधिमे मगन होजाते है वे ही सर्व विकल्पोंके जालसे छूटकर शात चित्त होते हुए साक्षात् अमृतका पान करते हैं। यही सवरभाव है । न यहा कोई कामना है, न कोई जन्म लेने की इच्छा है, न कोई अज्ञान है, शुद्ध पात्मज्ञान है। मही मोक्षमार्ग है। ___इसी सूत्रमें बुद्ध बचन है “जो यह ठीकसे मनमें करता है कि यह दु.ख है, यह दुःख समुदय (दुःखका कारण) है, यह दुःखका