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दसरा भाग। चलना आदि) धर्म ( क्रोधादिको जीतकर उत्तम क्षमा आदि), अनुप्रेक्षा (मसार अनित्य है इ यादि भावना ), परोषह जय (कष्टोको जीतना) तथा चारित्र ( योग्य व्यहार व निश्चय चारित्र ममाधिभाव) से होता है।
"क्षुत्पिपामाशीतोष्ण शम्शक न यार तिस्त्रीचनिषद्याशय्याक्रोशवधयाचनाऽळाभरोगतृणम्पनीमल मत्कार पुरस्कार प्रज्ञाऽज्ञ नादर्श नानि ।। ९-१० १॥
भावार्थ- नीचे लिखी बाइस बातोंको शातिसे सदना चाहिये(९) भूख, (२) प्यास, (३) शर्दी, (४) गर्मी (५) डास मच्छर, (६) नमता, (७) अरति (ठीक मनोज्ञ वस्तु न होनेपर दुख) (८) स्त्री (स्त्री द्वारा मनको डिगान की क्रिया), (९) चलनेका कष्ट, (१०) बैठने का कष्ट, (११) सोने का कष्ट, (१२) आक्रोश-गाली दुर्वचन, (१३ वर या मारे पीटे जानेका कष्ट, (१४) याचना (मागना ही), (१५) अलाभ-भिक्षा न मिलनेपर खेद, (१६) रोग-पोडा, (१७) तृण स्पर्श-काटेदार झाडीका स्पर्श (१८) मल-शरीरके मैल होनेपर ग्लानि (१९) आदर निरादर (२०) प्रज्ञा-बहु ज्ञान होनेपर घमड (२१) अज्ञान-रोगपर खेद (२१) अदर्सन-ऋद्धि सिद्ध न होनेपर श्रद्धानका बिगाडना" जैन साधुगण इन बाईस बातोंको जीतते हैं तब न जीतनेसे जो आस्रव होता सो नहीं होता है।
इसी सर्वास्रव सूत्रमें है कि भिक्षुओ। कौनसे विजोदन (हटाने) द्वारा प्रहातव्य भास्रव है । भिक्षुओं ! यहा (एक) भिक्षु ठीकसे जानकार उत्पन्न हुए । काम वितर्क (काम वासना सम्बन्धी सकल्प विकल्प) का स्वागत नहीं करता, (उसे) छोडता है, हटाता है, भलग