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जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [ १२३ प्रधान सस्कार युक्त ऋद्धिपादकी भावना करता है। ऐसा भिक्षु निर्वेद ( वैराग्य ) के योग्य है, सबोधि ( परमज्ञान ) के योग्य है, सर्वोत्तम योगक्षेम (निर्वाण ) की प्राप्तिक लिये योग्य है ।
जैसे आठ, दस या बारह मुर्गी के अंडे हों य मुर्गीद्वारा भले प्रकार सेये, परिस्वेदित, परिभावित हों, चाहे मुर्गीकी इच्छा न भी हो कि मेरे बच्चे स्वस्तिर्पूवक निकल आवे तोभी वे बच्चे स्वस्तिपूर्वक निकक मानेक योग्य है। ऐसे ही भिक्षुओ । उत्सोढिके पद्रह अगोंसे युक्त भिक्षु निर्वेदके लिये, सम्बोधिक लिये, अनुत्तर योगखेम प्राप्ति के लिय योग्य है।
नोट-इस सूत्रमे निर्वाणके मार्गमे चलनेवालेके लिये पद्रह बातें उपयोगी बताई है
(१) पाच चित्तके काटे-नहीं होने चाहिये। भिक्षुकी अश्रद्धा, देव, धर्म गुरु चारित्र तथा साधर्मी साधनोंमे होना चित्तके काटे हैं। जब श्रद्धा न होगी तब वह उन्नति नहीं कर सकता । इस लिये भिक्षुकी दृढ़ श्रद्धा भादर्श भाप्तमें, धर्ममें गुरुमें, व चारित्रमें व सहधर्मियोंमे होनी चाहिये, तब ही वह उत्साहित होकर चारि त्रको पालेगा, धर्मको बढावेगा, भादर्श साधु होकर मरहंत पदपर पहुंचनेकी चेष्टा करेगा।
(२) पाच चित्त बन्धन-साधकका मन पाच बातोंमें उलझा नहीं होना चाहिये । यदि उसका मन कामभोगोंमें, (२) शरीरकी पुष्टिमें, (३) रूपकी सुन्दरता निरखनेमे, (४) इच्छानुकूल भोजन करके सुखपूर्वक लेटे रहने, निन्द्रा लेने व आलस्यमें समय बितानेमें