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दूसरा भाग। (५) व आगामी देवगतिके भोगोंके प्राप्त करनेमे उलझा रहेगा खो वह ससारकी कामनामे लगा रहनेसे मुक्तिके माधनको नहीं कर मकेगा । साधकका चित्त इन पाचों बातोंसे वैराग्य युक्त होना चाहिये।
(३) पाच उद्योग-साधकका उद्योग होना चाहिये कि वह (१) छन्द समाधियुक्त हो, सम्यक् समाधिके लिये उत्साहित हो, (२) वीर्य समाधियुक्त हो, आत्मवीर्यको लगाकर सम्यक् समाधिके लिये उद्योगशील हो, (३) चित्त समाधिके लिये प्रयत्नशील हो, कि यह चित्तको रोककर समाधिमें लगावे, (४) इन्द्रिय समाधिइन्द्रियोंको रोककर अतीन्द्रिय भावमें पहुचनेका उद्योग करे, (५) विमश समाधि-समाधिके आदर्शपर चढ़नेका उत्साही हो ।
आत्मध्यानके लिये मन व इन्द्रियोंको निरोधकर भीतरी उत्साहसे, भात्म वीर्यको लगाकर स्मरण युक्त होकर भात्मसमाधिका लाभ करना चाहिये । निर्विकल्प समाधि या स्वानुभवको जागृत करना चाहिये । इसीसे यथार्थ विवेक या वैराग्य होगा, परम ज्ञानका नाम होगा व निर्वाण प्राप्त होसकेगा। जो ठीक ठीक उद्योग करेगा वह फलको न चाहते हुए भी फल पाएगा जैसे-मुर्गी अडोंका ठीकर सेवन करेगी तब उनमेसे बच्चे कुशलपूर्वक निकलेंगे ही । इस मूत्रमें भी मोक्षकी सिद्धिका अच्छा उपदेश है। जैन सिद्धातके कुछ वाक्य दिये जाते हैं। व्यवहार सम्यक्तमें देव, मागम या धर्म, गुरुकी श्रद्धाको ही सम्यक्त कहा है । रत्नमालामें कहा है
सम्यक्त्व सर्वजन्तूना श्रेयः श्रेथ पद'र्थिना । विना तेन व्रत सर्वोऽप्पकरूप्यो मुक्तिहेतवे ॥ ६ ॥