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जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [२३ देखते जानते मेरा चित्त काम, भव, व अविद्याके आस्रवोंसे मुक्त होगया । विमुक्त होजान्पर 'छूट गया' ऐसा ज्ञान हुआ। “ जन्म खतम होगया, ब्रह्मचर्य पूरा होगया करना था सो कर लिया अब वहा करने लिये कुछ शेष नही है" इस तरह रात्रिक अतिम पहरमे यह मुझे तिसरी विद्या प्राप्त हुई। अविद्या चली गई, विद्या उत्पन्न हुई, तम विघटा, आलोक उत्पन्न हुआ। जैसा उनको होता हो जो अप्रमत्त उद्योगशील त.वज्ञानी है।
नोट-ऊपरका कथन पढकर कौन यह कह सक्ता है कि गौतम बुद्धका माधन उस निर्वाणके लिये था जो अभाव (annihilation) रूप है, यह बात बिलकुल समझमे नहीं आती। निर्वाण सदभाव रूप है, वह कोई अनिर्वचनीय अजर अमर शात व आनन्दमय पदार्थ है ऐसा ही प्रतीतिमे आता है। वास्तवमे उसे ही जैन लोग सिद्ध पद शुद्ध पद, परमात्म पद, निज पद, मुक्त पद कहते है। इसी सूत्रमे कहा है कि परमज्ञान प्राप्त होनेक पहले मै ऐसा था। वह परमज्ञान वह विज्ञान नहीं होसक्ता जो पाच इद्रि व मनकेद्वारा होता है, जो रूपके निमित्तसे होता है, जो रूप, वेदना, सज्ञा, सस्कारसे विज्ञान होता है। इस पंचस्कघीय वस्तुसे भिन्न ही कोई परम ज्ञान है जिससे जैन लोग शुद्ध ज्ञान या केवलज्ञान कह सक्ते है। इस सूत्रमे यह बताया है कि जिन साधुओंका या सतोंका अशुद्ध मन, वचन, कायका आचरण है व जिनका भोजन अशुद्ध है उनको वनमें भय लगता है। परन्तु जिनका मन वचन कायका चारित्र व भोजन शुद्ध है व जो लोभी नहीं हैं, हिंसक नहीं हैं, भानसी नहीं हैं, उद्धत नहीं है, सशय