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________________ -- - भूमिका। X जैन बौद्ध तत्वज्ञान पुस्तक प्रथम भाग सन् १९३२ में लिख कर प्रसिद्ध की गई है उसकी भूमिकामें यह बात दिखलाई जाचुकी है कि प्राचीन बौद्ध धर्मका और जैनधर्म का तत्वज्ञान बहुत अशमें मिलता हुआ है । पाली साहित्यको पढ़नेसे बहुत अंशमें जैन और बौद्धकी साम्यता झलकती है। आजकल सर्वसाधारणमें जो बौद्ध धर्मके सम्बन्धमें विचार फैले हुए है उनमे पाली पुस्तकोंमें दिखाया हुआ कथन बहुत कुछ विलक्षण है। सर्वथा क्षणिकवाद बौद्धमत है यह बात प्राचीन ग्रन्थक पढ़नेसे दिलमें नहीं बैठता है। सर्वथा क्षणिक माननेसे निर्वाणमें बिलकुल शू-यता आजाती है। पर तु पाली साहित्यमे निर्वाणके विशेषण है जो किसी विशेषको झल काते है । पाली कोषमे निर्वाणके लिये ये शब्द आये है-' मुम्बो (मुरबा) निरोधो, निव्वान, दीप, वराहक्खय (तृप्णाका क्षय) तान (क्षक), लेन (लीनता) अरूव सत (शात), असखत (असस्कृत), मिव (मानम्दरूप), अमुन्त अमूर्तीक), सुदुटस ( अनुभव करना कठिन है ), परयन (श्रेष्ठ मार्ग), सग्म ( शरणभुत) निपुण, मनन्त, अक्स्वर (मक्षय), दु खक्खय, अद्वापज्झ ( सत्य ), अनालयं (उच्च गृह), विवट्ट ( ससार रहित), खेम, केवल, अपवग्गो (अपवर्ग), विगगो, पणीत ( उत्तम ), अच्चुत पद ( न मिटनेवाला पद) योग खेम, पार, मुक्त (मुक्ति ) विशुद्धि, विमुत्ति ( विमुक्ति) असखत धातु ( मसस्कृत धातु ), सृद्धि, निव्वुत्ति ( निर्वृत्ति)।'
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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