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जौन बैद्ध तत्वज्ञान । [१६५ इसलिये भिक्षुओ । भीतर ( शरीरमे ) या बाहर, स्थूल ग सूक्ष्म, उत्तम या निकृष्ट, दुर या निकट, जो कुछ भी भूत, भविष्य वर्तमान रूप है, वेदना है, संज्ञा है, सस्कार है, विज्ञान है वह सब मेरा नहीं है । 'यह मै नहीं हू' 'यह मेरा आत्मा नहीं है' ऐसा भले प्रकार समझकर देखना चाहिये।
ऐमा देखनेपर बहुश्रुत आर्यश्रावक रूपमे भी निर्वेद (उदासीनता ) को प्राप्त होता है, वेदनामें भी, मज्ञामें भी, सस्कारमें भी, विज्ञान में भी निर्वेदको प्राप्त होता है। निर्वेदसे विरागको प्राप्त होता है । विराग प्राप्त होनेपर विमुक्त हो जाता है। रागादिसे विमुक्त होनेपर मैं विमुक्त होगया' यह ज्ञान होता है फिर जानता है-जन्म क्षय होगया, ब्रह्मचर्यवाप्त पूरा होगया, करणीय कर लिया, यहा और कुछ भी करनेको नहीं है। इस भिक्षुने भविद्याको नाश कर दिया है, उच्छिन्नमूल, अभावको प्राप्त, भविष्यमें न उत्पन्न होने लायक कर दिया है। इसलिये यह उक्षिप्त परिघ (जएसे मुक्त) है । इम भिक्षुने पौर्वभविक (पुनर्जन्म सम्बन्धी) जाति सस्कार (जन्म दिलानेवाले पूर्वकृत कर्मोंके चित्त प्रवाह पर पडे सस्कार) को नाश कर दिया है, इसलिये यह मकीर्ण परिख (खाई पार) है। इस भिक्षुने तृष्णाको नाश कर दिया है इसलिये यह अत्यूढ हरीसिक (जो हलकी हरीस जैसे दुनियाके भारको नहीं रठाए है) है। इस भिक्षुने पाच अवरभागीय सयोजनो ( सप्तारमें फसानेवाले पाच दोष(१) सत्कायदृष्टि-शरीरादिमें आत्मदृष्टि, (२) विचिकित्सा-सशय, ३) शीलवत परामर्श-व्रत आचरणका अनुचित अभिमान, (७)