________________
जैन बौद्ध तत्वज्ञान ।
[ ३९
पा है या द्वेष बुद्धिको छोडकर माध्यस्थ भाव रखना या वैरभाव छोडकर शल्य रहित या कषाय रहित होना भी अनुकम्पा है ।
वास्तिक्य तत्सद्भावे स्वत सिद्धे विनिश्वति ।
धमे हेतौ च धर्मस्य फले चाऽऽत्मादि धर्मवत् ॥ ४५२ ॥ भावार्थ- स्वत सिद्ध तत्वोंके सद्भावमें, धर्ममें, धर्मके कारमे, व धर्मके फल में निश्चय बुद्धि रखना आस्तिक्य है । जैसे आत्मा यदि पदार्थोंके धर्म या स्वभाव है उनका वैसा ही श्रद्धान करना भास्तिक्य है ।
तत्राय जीवसज्ञो य स्वसवेद्यचिदात्मक |
सोहमन्ये तु रागाद्या या पौगलिका अभी || ४५७ ॥
भावार्थ - यह जो जीव सज्ञाधारी आत्मा है वह स्वसवेव (अपने आपको आप ही जाननेवाला) है, ज्ञानवान है, वहीं मै हू । शेष जितने रागद्वेषादि भाव हैं वे पुद्गलमयी हैं, मुझसे भिन्न हैं, त्यागने योग्य हैं, तब खोजियोंको उचित है कि जैन सिद्धात देखकर सम्यग्दर्शनका विशेष स्वरूप समझें ।
*246
(८) मज्झिमनिकाय स्मृतिप्रस्थानसूत्र ।
गौतम बुद्ध कहते है - भिक्षुओ । ये जो चार स्मृति प्रस्थान हैं वे सत्वोंके कष्ट मेटने के लिये, दुख दौर्मनस्य के अतिक्रमणके लिये, सत्यकी प्राप्तिके लिये, निर्वाणकी प्राप्ति और साक्षात्कार करने के लिये मार्ग है । (१) काय काय अनुपश्यी ( शरीरको उसके असल स्वरूप केश, नस्त्र, मलमूत्र आदि रूपमें देखने वाला ),