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जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [३५ इच्छाका विजयी, क्रोध, मान, माया, लोभरहित व माया, मिथ्यात्व भोगोंकी इच्छारूप निदान शल्यसे रहित तथा मान बड़ाई व पूजा आदिकी चाहसे रहित होना चाहिये ।
श्री देवसेनाचार्य तत्वसारमें कहते हैलाहालाहे सरिसो सुहदुक्खे तह य जीविए मरणे । बधो भरयसमाणो झाणममत्थो हु सो जोई ॥ ११॥ रायादिया विभाषा पहिरतरउहविप्प मुत्तूण । एयग्गमणो झायहि णिरजण णिययअप्पाण ॥ १८॥
भावार्थ-जो कोई साधु लाभ व अलाभ, सुख व दु खमें, जीवन या मरणमें, बन्धु व मित्रमे समान बुद्धि रखता है वही ध्यान करनेको समर्थ होसक्ता है। रागादि विभावोंको व बाहरी व मनके भीतस्के विकल्पोंको छोड़कर एकाग्र मन होकर अब आपको निरजन रूप ध्यान कर मोक्ष के पात्र ध्यानी साधु कैसे होते है। श्री कुलभद्राचार्य सारसमुच्चयमें कहते है
सगादिरहिता धीरा रागादिमळवर्जिता । शान्ता दान्तास्तपोभूषा मुक्तिकाक्षणतत्परा ॥ १९६ ॥ मनोवाकाययागेषु प्रणिधानपरायणा । वृतात्या ध्यानसम्पन्नास्ते पात्र करुणापरा ॥ १९७ ॥ भग्रहो हि शमे येषा विग्रह कर्मशत्रुभि । विषयेषु निरासङ्गास्ते पात्र यतिसत्तमा ॥ २० ॥ यैर्ममत्व सदा त्यक्त स्त्रकायेऽपि मनीषिभि । ते पात्र सयतात्मान. सर्वसत्यहिते रता ॥ २०२॥
भावार्थ-जो परिग्रह भादिसे रहित है, धीर हैं, राग, द्वेष, मोहके मलसे रहित है, शातचित्त हैं, इन्द्रियों के दमन करनेवाले हैं,