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दूसरा भाग। धर्मवेद सम्बधी प्रमोदको पाता है, प्रमुदिर को मोष होता है, प्रीतिवानकी काया शाल होती है। प्रश्रब्ध काय सुख अनुभव करता है। मुखीका चित्त एकाग्र होता है।
ऐमे शीलवाला, ऐसे धर्मवाला, ऐसी प्रज्ञावाला भिक्षु चाहे काली (भूमी आदि) चुनकर बने शालीक भातको भनेकरूप (दाल) व्यजन (सागभाजी) के साथ खावे तौभी उसको अन्तराय ( विन) नहीं होगा। जैसे मैला कुचैला वस्त्र स्वच्छ जलको प्राप्त हो शुद्ध साफ होजाता है, उल्कामुल (भट्टीकी घड़िया )में पढ़कर सोना शुद्ध साफ होजाता है।
वह मैत्री युक्त चित्तसे सर्व दिशाओंको परिपूर्ण कर विहरता है । वह सबका विचार रखनेवाला, विपुल, अप्रमाण, वैररहित, द्रोहरहित, मैत्री युक्त चित्तसे सारे लोकको पूर्णकर विहार करता है।
इसी तरह वह करुणायुक्त चित्तसे, मुदितायुक्त चित्तसे, उपेक्षायुक्त चित्तसे युक्त हो सारे लोकको पूर्णकर विहार करता है। ___ वह जानता है कि यह निकृष्ट है, यह उत्तम है, इन (लौकिक) समाओसे ऊपर निस्सण (निकाम) है। ऐसा जानते, ऐसा देखते हुए उसका चित्त काम (वासनारूपी) आस्रवसे मुक्त होजाता है, भव आस्रवसे, अविद्या भासवसे मुक्त होजाता है। मुक्त होजाने पर 'मुक्त होगया है यह ज्ञान होता है और जानता है-जन्म क्षीण होगया, ब्रह्मचर्यवास समाप्त होगया, करना था सो कर लिया, अब दुसरा यहा (कुछ करनेको) नहीं है। ऐसा भिक्षु स्नान करे विवाही मात (नहाया हुमा) कहा जाता है।