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________________ १५४) दुसरा भाग ।। दफे मात्रा सहित अल्पभोजन करके काल बिताना चाहिये । स्वा स्थ्य लिये व प्रमाद त्यागके लिये व शातिपूर्ण जीवन के लिये यह बात आवश्यक है। जैन सिद्धातमें भी साधुको 'एकासन कग्नका उपदेश है। सावुके २८ मूल गुणों में यह एकासन या एकमुक्त मूलगुण है-अवश्य कर्तव्य है। ' (२) भिक्षुओंको गुरुकी आज्ञानुसार बड़े प्रेमसे चलना चाहिये । जैसा इस सूत्रमें कहा है कि मै भिक्षुओंको केवल उनका कर्तव्य स्मरण करा देता था, वे सहर्ष उनपर चलते थे। इसपर दृष्टात योग्य घोड़े सजुने रथका दिया है। हाकनेवाले के सकेत मात्रसे जिघर बह चाहे घोडे चलते है, हाकनेवालेको प्रसन्नता होती है, घोडों को भी कोई कष्ट नहीं होता है। इसी तरह गुरु व शिष्यका व्यवहार होना चाहिये। (३) भिक्षुओंको सदा इस पातमें सावधान रहना चाहिये कि वह अपने भीतरसे बुराइयोंको हटावें, राग द्वेष मोहादि भावोंको दुर करे तथा निर्वाण साधक हितकारी धर्मोको ग्रहण करें। इसपर दृष्टात सालके बनका दिया है कि चतुर माली रसको सुखानेवाली डालियोंको दूर करता है और रसदार शाखाओं की रक्षा करता है तब वह बनरूप फलता है । इसीतरह भिक्षुको प्रमादरहित होकर अपनी उन्नति करनी चाहिये। । __ (४) क्रोधादि कषायोंको भीतरसे दूर करना चाहिये। तथा निर्बल पर क्रोध न करना चाहिये, क्षमाभाव रखना चाहिये । निमित्त पड़ने पर भी क्रोध नहीं करना चाहिये । पहा वैदेहिका
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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