Book Title: Hammirayan
Author(s): Bhanvarlal Nahta
Publisher: Sadul Rajasthani Research Institute Bikaner
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण भूमिका लेखक डा० दशरथ शर्मा, एम०ए०, डि सिट सम्पादक भंवरलाल नाहटा मे पर भक्तिः . . इल राजन नी रिस . . बीकानेर प्रकाशक सादल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट बीकानेर Jain E DETE Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान भारती प्रकाशन हम्मीरायण भूमिका लेखक डा० दशरथ शर्मा एम० ए० डी० लिट सम्पादक भँवरलाल नाहटा सादूल राजस्थानी . प्रथमावृत्ति १००० ] Jain Educationa International ज्ञानमेक बीकानेर श: प्रकाशक सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट बीकानेर | सं० २०१७ इन्स्टीट्यूट For Personal and Private Use Only रिसर्च [ मूल्य ३) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक श्री लालचंद कोठारी सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट बीकानेर Jain Educationa International मुद्रक श्री शोभाचंद सुराणा फिल आर्ट प्रेस ३१, बड़तल्ला स्ट्रीट, कलकत्ता-७ फोन : ३३-७९२३. For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय श्री सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट बीकानेर की स्थापना सन् १९४४ में बीकानेर राज्य के तत्कालीन प्रधान मन्त्री श्री के० एम० परिणक्कर महोदय की प्रेरणा से, साहित्यानुरागी बीकानेर-नरेश स्वर्गीय महाराजा श्री सादूलसिंहजी बहादुर द्वारा संस्कृत, हिन्दी एवं विशेषतः राजस्थानी साहित्य की सेवा तथा राजस्थानी भाषा के सर्वाङ्गीण विकास के लिये की गई थी। भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध विद्वानों एवं भाषाशास्त्रियों का सहयोग प्राप्त करने का सौभाग्य हमें प्रारम्भ से ही मिलता रहा है । संस्था द्वारा विगत १६ वर्षों से बीकानेर में विभिन्न साहित्यिक प्रवृत्तियां चलाई जा रही हैं, जिनमें से निम्न प्रमुख है१. विशाल राजस्थानी-हिन्दी शब्दकोश - इस सम्बन्ध में विभिन्न स्रोतों से संस्था लगभग दो लाख से अधिक शब्दों का संकलन कर चुकी है । इसका सम्पादन आधुनिक कोशों के ढंग पर, लंबे समय से प्रारम्भ कर दिया गया है और अब तक लगभग तीस हजार शब्द सम्पादित हो चुके हैं। कोश में शब्द, व्याकरण, व्युत्पत्ति, उसके अर्थ और उदाहरण प्रादि अनेक महत्वपूर्ण सूचनाएं दी गई हैं। यह एक अत्यन्त विशाल योजना है, जिसकी सन्तोषजनक क्रियान्विति के लिये प्रचुर द्रव्य और श्रम की आवश्यकता है। आशा है राजस्थान सरकार की ओर से, प्रार्थित द्रव्य-साहाय्य उपलब्ध होते ही निकट भविष्य में इसका प्रकाशन प्रारम्भ करना सम्भव हो सकेगा। २. विशाल राजस्थानी मुहावरा कोश राजस्थानी भाषा अपने विशाल शब्द भंडार के साथ मुहावरों से भी समृद्ध है। अनुमानतः पचास हजार से भी अधिक मुहावरे दैनिक प्रयोग में लाये जाते हैं। हमने लंगभग दस हजार मुहावरों का, हिन्दी में अर्थ और राजस्थानी में उदाहरणों सहित प्रयोग देकर सम्पादन करवा लिया है और शीघ्र ही इसे प्रकाशित करने का प्रबन्ध किया जा रहा है। यह भी प्रचुर द्रव्य और श्रम-साध्य कार्य है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] यदि हम यह विशाल संग्रह साहित्य-जगत को दे सके तो यह संस्था के लिये ही नहीं किन्तु राजस्थानी और हिन्दी जगत के लिये भी एक गौरव की बात होगी। ३. आधुनिक राजस्थानी रचनाओं का प्रकाशन इसके अंतर्गत निम्नलिखित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं:... १. कळायण, ऋतु काव्य । ले० श्री नानूराम संस्कर्ता । . २. आभै पटकी, प्रथम सामाजिक उपन्यास । ले• श्री श्रीलाल जोशी। ३. वरस गांठ, मौलिक कहानी संग्रह । ले० श्री मुरलीधर व्यास । 'राजस्थान-भारती' में भी आधुनिक राजस्थानी रचनामों का एक अलग स्तम्भ है, जिसमें भी राजस्थानी कवितायें. कहानियां और रेखाचित्र प्रादि छपते रहते हैं। ४. 'राजस्थान-भारती' का प्रकाशन इस विख्यात शोधपत्रिका का प्रकाशन संस्था के लिये गौरव की वस्तु है । गत १४ वर्षों से प्रकाशित इस पत्रिका की विद्वानों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है । बहुत चाहते हुए भी द्रव्याभाव, प्रेस की एवं अन्य कठिनाइयों के कारण, त्रैमासिक रूप से इसका प्रकाशन संभव नहीं हो सका है । इसका भाग ५ अंक ३-४ 'डा० लुइजि पिओ तैस्सितोरी विशेषांक' बहुत ही महत्वपूर्ण एवं उपयोगी सामग्री से परिपूर्ण है। यह अंक एक विदेशी विद्वान की राजस्थानी साहित्य सेवा का एक बहुमूल्य सचित्र कोश है। पत्रिका का अगला ७वां भाग शीघ्र ही प्रकाशित होने जा रहा हैं। इसका अंक १-२ राजस्थानी के सर्वश्रेष्ठ महाकवि पृथ्वीराज राठोड़ का मचित्र और वृहत् विशेषांक हैं। अपने ढंग का यह एक ही प्रयत्न है । पत्रिका की उपयोगिता और महत्व के संबंध में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इसके परिवर्तन में भारत एवं विदेशों से लगभग ८० पत्र-पत्रिकाएं हमें प्राप्त होती हैं। भारत के अतिरिक्त पाश्चात्य देशों में भी इसकी मांग है व इसके ग्राहक हैं । शोधकर्ताओं के लिये 'राजस्थान-भारती' अनिवार्यतः संग्रहणीय शोधपत्रिका है। इसमें राजस्थानी भाषा, साहित्य, पुरातत्व, इतिहास, कला आदि पर लेखों के अतिरिक्त संस्था के तीन विशिष्ट सदस्य डा० दशरथ शर्मा, श्री नरोत्तमदास स्वामी और श्री अगरचंद नाहटा की वृहत् लेख सूची भी प्रकाशित की गई है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३ ] ५. राजस्थानी साहित्य के प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रन्थों का अनुसंधान, सम्पादन एवं प्रकाशन हमारी साहित्य-निधि की प्राचीन, महत्वपूर्ण घोर श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियों को सुरक्षित रखने एवं सर्वसुलभ कराने के लिये सुसम्पादित एवं शुद्ध रूप में मुद्रित करवा कर उचित मूल्य में वितरित करने की हमारी एक विशाल योजना है । संस्कृत, हिंदी और राजस्थानी के महत्वपूर्ण ग्रंथों का अनुसंधान और प्रकाशन संस्था के सदस्यों की घोर से निरंतर होता रहा है, जिसका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है६. पृथ्वीराज रासो पृथ्वीराज रासो के कई संस्करण प्रकाश में लाये गये हैं और उनमें से लघुतम संस्करण का सम्पादन करवा कर उसका कुछ अंश 'राजस्थान -भारती' में प्रकाशित किया गया है । रासो के विविध संस्करण मौर उसके ऐतिहासिक महत्व पर कई लेख राजस्थान -भारती में प्रकाशित हुए हैं । ७. राजस्थान के प्रज्ञात कवि जान ( न्यामतखां ) की ७५ रचनाओं की खोज की गई। जिसकी सर्वप्रथम जानकारी 'राजस्थान -भारती' के प्रथम अंक में प्रकाशित हुई है। उनका महत्वपूर्ण ऐतिहासिक 'काव्य क्यामरासा' तो प्रकाशित भी करवाया जा चुका है । ८. राजस्थान के जैन राजस्थान भारती में प्रकाशित किया जा चुका है । संस्कृत साहित्य का परिचय नामक एक निबंध ६. मारवाड़ क्षेत्र के ५०० लोकगीतों का संग्रह किया जा चुका है। बीकानेर एवं जैसलमेर क्षेत्र के सैंकड़ों लोकगीत, घूमर के लोकगीत, बाल लोकगीत, लोरियाँ, और लगभग ७०० लोक कथाएँ संग्रहीत की गई हैं। राजस्थानी कहावतों के दो भाग प्रकाशित किये जा चुके हैं। जीणमाता के गीत, पाबूजी के पवाड़े और राजा भरथरी आदि लोक काव्य सर्वप्रथम 'राजस्थान भारती' में प्रकाशित किए गए हैं। १०. बीकानेर राज्य के और जैसलमेर के अप्रकाशित अभिलेखों का विशाल संग्रह 'बीकानेर जैन लेख संग्रह' नामक वृहत् पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो चुका है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ११. जसवंत उद्योत, मुहता नैणसी री ख्यात और अनोखी मान जैसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथों का सम्पादन एवं प्रकाशन हो चुका है। १.. जोधपुर के महाराजा मानसिंहजी के सचिव कविवर उदयचन्द भंडारी की ४० रचनाओं का अनुसन्धान किया गया है और महाराजा मानसिंहजी की काव्य-साधना के सम्बन्ध में भी सबसे प्रथम 'राजस्थान भारती' में लेख प्रकाशित हुआ है। १३. जैसलमेर के अप्रकाशित १०० शिलालेखों और ‘भट्टि वंश प्रशस्ति' आदि अनेक अप्राप्य और अप्रकाशित ग्रंथ खोज-यात्रा करके प्राप्त किये गये हैं। १४. बीकानेर के मस्तयोगी कवि ज्ञानसारजी के ग्रंथों का अनुसन्धान किया गया और ज्ञानसागर ग्रंथावली के नाम से एक ग्रंथ भी प्रकाशित हो चुका है । इसी प्रकार राजस्थान के महान विद्वान महोपाध्याय समयसुन्दर की ५६३ लघु रचनामों का संग्रह प्रकाशित किया गया है। १५. इसके अतिरिक्त संस्था द्वारा (१) डा. लुइजि पिनो तैस्सितोरी, समयसुन्दर, पृथ्वीराज और लोकमान्य तिलक प्रादि साहित्य-सेवियों के निर्वाण-दिवस और जयन्तियां मनाई जाती हैं। (२) साप्ताहिक साहित्य गोष्ठियों का आयोजन बहुत समय से किया जा रहा है, इसमें अनेकों महत्वपूर्ण निबंध, लेख, कविताएं और कहानियां पादि पढ़ी जाती हैं, जिससे अनेक विध नवीन साहित्य का निर्माण होता रहता है। विचार विमर्श के लिये गोष्ठियों तथा भाषणमालाओं आदि के भी समय-समय पर प्रायोजन किये जाते रहे हैं। १६. बाहर से ख्याति प्राप्त विद्वानों को बुलाकर उनके भाषण करवाने का प्रायोजन भी किया जाता है । डा० बासुदेवशरण अग्रवाल, डा० कैलाशनाथ काटजू, राय श्रीकृष्णदास, · डा० जी० रामचन्द्रम्, डा. सत्यप्रकाश, डा० डब्लू. एलेन, डा० सुनीतिकुमार चाटुा, डा. तिबेरिमो-तिबेरी आदि अनेक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वानों के इस कार्यक्रम के अन्तर्गत भाषण हो चुके हैं। गत दो वर्षों से महाकवि पृथ्वीराज राठौड़ प्रासन की स्थापना की गई है। दोनों वर्षों के आसन-अधिवेशनों के अभिभाषक क्रमशः राजस्थानी भाषा के प्रकाण्ड Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वान् श्री मनोहर शर्मा एम० ए०, बिसाऊ और पं० श्रीलालजी मिश्र एम० ए०, डूंडलोद थे। इस प्रकार संस्था अपने १६ वर्षों के जीवनकाल में, संस्कृत, हिन्दी और राजस्थानी साहित्य की निरंतर सेवा करती रही है । आर्थिक संकट से ग्रस्त इस संस्था के लिये यह सम्भव नहीं हो सका कि यह अपने कार्यक्रम को नियमित रूप से पूरा कर सकती, फिर भी यदा कदा लड़खड़ा कर गिरते पड़ते इसके कार्यकर्तामों ने 'राजस्थान-भारती' का सम्पादन एवं प्रकाशन जारी रखा और यह प्रयास किया कि नाना प्रकार की बाधाओं के बावजूद भी साहित्य सेवा का कार्य निरंतर चलता रहे । यह ठीक है कि संस्था के पास अपना निजी भवन नहीं है, न अच्छा संदर्भ पुस्तकालय है, और न कार्यालय को सुचारु रूप से सम्पादित करने के समुचित साधन ही हैं; परन्तु साधनों के अभाव में भी संस्था के कार्यकर्ताणें ने साहित्य की जो मौन और एकान्त साधना की है वह प्रकाश में पाने पर संस्था के गौरव को निश्चित ही बढ़ा सकने वाली होगी। राजस्थानी-साहित्य-भंडार अत्यन्त विशाल है। अब तक इसका प्रत्यल्प अंश ही प्रकाश में आया है । प्राचीन भारतीय वाङमय के अलभ्य एवं अनर्घ रत्नों को प्रकाशित करके विद्वज्जनों और साहित्यिकों के समक्ष प्रस्तुत करना एवं उन्हें सुगमता से प्राप्त करना संस्था का लक्ष्य रहा है । हम अपनी इस लक्ष्य पूर्ति की ओर धीरे-धीरे किन्तु दृढ़ता के साथ अग्रसर हो रहे हैं। . . . यद्यपि अब तक पत्रिका तथा कतिपय पुस्तकों के अतिरिक्त अन्वेषण द्वारा प्राप्त अन्य महत्वपूर्ण सामग्री का प्रकाशन करा देना भी प्रभीष्ट था, परन्तु अर्थाभाव के कारण ऐसा किया जाना सम्भव नहीं हो सका । हर्ष की बात है कि भारत सरकार के वैज्ञानिक संशोव एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम मन्त्रालय (Ministry of scientific Research and Cultural Affairs) ने अपनी आधुनिक भारतीय भाषाओं के विकास की योजना के अंतर्गत हमारे कार्यक्रम को स्वीकृत कर प्रकाशन के लिये १५०००) रु० इस मद में राजस्थान सरकार को दिये तथा राजस्थान सरकार द्वारा उतनी ही राशि अपनी ओर से मिलाकर कुल ३००००) तीस हजार की सहायता, राजस्थानी साहित्य के सम्पादन-प्रकशना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेतु इस संस्था को इस वित्तीय वर्ष में प्रदान की गई है। जिससे इस वष निम्नोक्त ३१ पुस्तकों का प्रकाशन किया जा रहा है। १. राजस्थानी व्याकरण श्री नरोतमदास स्वामी २. राजस्थानी गद्य का विकास (शोध प्रबंध) डा० शिवस्वरूप शर्मा अचल ३. अचलदास खीची री वचनिका श्री नरोत्तमदास स्वामी ४. हमीरायण श्री भंवरलाल नाहटा ५. पद्मिनी चरित्र चौपई " " " ६. दलपत विलास श्री रावत सारस्वत ७. डिंगल गीत८. पंवार वंश दर्पण डा० दशरथ शर्मा ६. पृथ्वीराज राठोड़ ग्रंथावली श्री नरोतमदास स्वामी और श्री बदरीप्रसाद साकरिया १०. हरिरस श्री बदरीप्रसाद साकरिया ११. पीरदान लालस ग्रंथावली श्री अगरचंद नाहटा १२. महादेव पार्वती वेलि-- श्री रावत सारस्वत १३. सीताराम चौपई श्री भगरचंद नाहटा १४. जैन रासादि संग्रह श्री अगरचंद नाहटा मौर डा. हरिवल्लभ भायाणी १५. सदयवत्स वीर प्रबंध प्रो० मंजुलाल मजूमदार १६. जिनराजसूरि कृतिकुसुमांजलि श्री भंवरलाल नाहटा १७. विनयचंद कृतिकुसुमांजलि१८. कविवर धर्मवर्दन ग्रंथावली श्री अगरचंद नाहटा १६. राजस्थान रा दूहा श्री नरोत्तमदास स्वामी २०. वीर रस रा दहा२१. राजस्थान के नीति दोहे श्री मोहनलाल पुरोहित २२. राजस्थानी व्रत कथाएं-- २३. राजस्थानी प्रेम कथाएं " " " २४. चंदायन श्री रावत सारस्वत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " " २५. भड्डली श्री अगरचंद नहाटा और म:विनय सागर २६. जिनहर्ष ग्रंथावली श्री अगरचंद नाहटा २७. राजस्थानी हस्त लिखित ग्रंथों का विवरण , , भा२८. दम्पति विनोद २६. हीयाली-राजस्थान का बुद्धिवर्धक साहित्य ,, , ३०. समयसुन्दर रासत्रय श्री भंवरलाल नाहटा ३१. दुरसा आढा प्रथावली श्री बदरीप्रसाद साकरिया ___ जैसलमेर ऐतिहासिक साधन संग्रह (संपा० डा० दशरथ शर्मा), ईशरदास ग्रंथावली (संपा० बदरीप्रसाद साकरिया ), रामरासो (प्रो० गोवर्द्धन शर्मा ), राजस्थानी जैन साहित्य (ले० श्री अगरचंद नाहटा), नागदमण (संपा० बदरीप्रसाद साकरिया) मुहावरा कोश (मुरलीधर व्यास ) आदि ग्रंथों का संपादन हो चुका है परन्तु अर्थाभाव के कारण इनका प्रकाशन इस वर्ष नहीं हो रहा है। ___ हम आशा करते हैं कि कार्य की महत्ता एवं गुरुता को लक्ष्य में रखते हुए अगले वर्ष इससे भी अधिक सहायता हमें अवश्य प्राप्त हो सकेगी जिससे उपरोक्त संपादित तथा अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन संभव हो सकेगा। इस सहायता के लिये हम भारत सरकार के शिक्षा विकास सचिवालय के आभारी हैं, जिन्होंने कृपा करके हमारी योजना को स्वीकृत किया और ग्रान्ट-इनएड की रकम मंजूर की। राजस्थान के मुख्य मंत्री माननीय मोहनलालजी सुखाड़िया, जो सौभाग्य से शिक्षा मंत्री भी हैं और जो साहित्य की प्रगति एवं पुनरुद्धार के लिये पूर्ण सचेष्ट हैं, का भी इस सहायता के प्राप्त कराने में पूरा-पूरा योगदान रहा है। अतः हम उनके प्रति अपनी कृतज्ञता सादर प्रगट करते हैं। राजस्थान के प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षाध्यक्ष महोदय श्री जगन्नाथसिंहजी मेहता का भी हम आभार प्रगट करते हैं, जिन्होंने अपनी ओर से पूरी-पूरी दिलचस्पी लेकर हमारा उत्साहवर्दन किया, जिससे हम इस वृहद् कार्य को सम्पन्न करने में समर्थ हो सके । संस्था उनकी सदैव ऋणी रहेगी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८ ] इतने थोड़े समय में इतने महत्वपूर्ण ग्रन्थों का संपादन करके संस्था के प्रकाशन-कार्य में जो सराहनीय सहयोग दिया है, इसके लिये हम सभी ग्रन्थ सम्पादकों व लेखकों के अत्यन्त आभारी हैं। अनूप संस्कृत लाइब्रेरी और अभय जैन ग्रन्थालय बीकानेर, स्व० पूर्णचन्द्र नाहर संग्रहालय कलकत्ता, जैन भवन संग्रह कलकत्ता, महावीर तीर्थक्षेत्र अनुसंधान समिति जयपुर, ओरियंटल इन्स्टीट्य ट बड़ोदा, भांडारकर रिसर्च इन्स्टीट्य ट पूना, खरतरगच्छ वहद् ज्ञान भण्डार बीकानेर, एशियाटिक सोसाइटी बंबई, आत्माराम जैन ज्ञानभंडार बड़ोदा, मुनि पुण्यविजयजी, मुनि रमणिक विजयजी, श्री सीताराम लालस, श्री रविशंकर देराश्री, पं० हरिदत्तजी गोविंद व्यास जैसलमेर आदि अनेक संस्थाओं और व्यक्तियों से हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त होने से ही उपरोक्त ग्रंथों का संपादन सम्भव हो सका है । अतएव हम इन सबके प्रति आभार प्रदर्शन करना अपना परम कर्तव्य समझते हैं। ऐसे प्राचीन ग्रन्थों का सम्पादन श्रमसाध्य है एवं पर्याप्त समय की अपेक्षा रखता है। हमने अल्प समय में ही इतने ग्रन्थ प्रकाशित करने का प्रयत्न किया इसलिये त्रुटियों का रह जाना स्वाभाविक है। गच्छतः स्खलनंक्वपि भवय्येव प्रमाहतः, हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति साधवः । __ आशा है विद्वद्वन्द हमारे इन प्रकाशनों का अवलोकन करके साहित्य का रसास्वादन करेंगे और अपने सुझावों द्वारा हमें लाभान्वित करेंगे जिससे हम अपने प्रयास को सफल मानकर कृतार्थ हो सकेंगे और पुन: मां भारती के चरण कमलों में विनम्रतापूर्वक अपनी पुष्पांजलि समर्पित करने के हेतु पुनः उपस्थित होने का साहस बटोर सकेंगे। बीकानेर, मार्गशीर्ष शुक्ला १५ संवत् २०१७ दिसम्बर ३, १९६० ... निवेदक लालचन्द कोठारी प्रधान-मन्त्री सादुल राजस्थानी-इन्स्टीट्य ट बीकानेर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द वीरवर चौहान हम्मीर इतिहास प्रसिद्ध महान् व्यक्ति हुए हैं जिनके हठ के सम्बन्ध में "तिरिया तेल हमीर हठ, चढे न दूजी बार" पर्याप्त प्रख्यात कहावत है। राजस्थान के इस महान् वीर के सम्बन्ध में जैनाचार्य नयचंद्र सुरि का 'हम्मीर महाकाव्य' बहुत वर्ष पूर्व प्रकाशित हो चुका है, और उसका नवीन संस्करण पुरातत्त्वाचार्य श्रीजिन विजयजी के सम्पादित कई वर्षों से छपा पड़ा है जो अभी तक प्रकाशित नहीं हो पाया । नागरी प्रचारणी समा से कवि जोधराज का हम्मीर रासो व 'हमर हठ' ग्रन्थ भी बहुत वर्ष पूर्व प्रकाशित हुए थे। प्राकृत 'पैंगलम्' में हम्मीर सम्बन्धी फुटकर पद्य एवं मैथिल कवि विद्यापति की पुरुषपरीक्षा में दयावीर प्रबन्ध भी प्रकाशित है, पर हम्मीर सम्बन्धी प्राचीन राजस्थानी स्वतंत्र रचना प्राप्त न होना वर्षों से अखरता था। सन् १९५४ में श्री महावीरजी तीर्थक्षेत्र अनुसन्धान समिति, जयपुर की ओरसे राजस्थान के जैन शास्त्रभंडारों की ग्रन्थ सूचीका द्वितीय भाग प्रकाशित हुआ तो दिगम्बर जैन बड़ा तेरापंथी मंदिर के गुटका नं० २६२में सं० १५३८ में रचित 'राय दे हमीर दे चौपई' होने की सूचना पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई। उक्त गुटके को मँगवा कर उसकी प्रतिलिपि कर ली गई। प्रकाशित सूची में रचयिता के सम्बन्ध में उल्लेख नहीं था, पर प्रति मँगवाने पर कवि का नाम 'भांडउ व्यास' ज्ञात हो गया और इस रचना का परिचय मरू-मारती वर्ष ४ अंक ३ में 'महान् वीर हम्मीर दे चौहान सम्बन्धी एक प्राचीन राजस्थानी रचना' नामक लेख में दे दिया गया। तदनन्तर मुनि जिनविजयजी से इस महत्वपूर्ण अज्ञात रचना के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) विषय में बातचीत होने पर उन्होंने इसे हमीर महाकाव्य के परिशिष्ट में प्रकाशित करने के लिए हमारे करवायी हुई प्रतिलिपि लेली पर वह ग्रन्थ अद्यावधि प्रकाशित नहीं हो पाया। गत वर्ष सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट को भारत सरकार एवं राजस्थान सरकार से प्राचीन राजस्थानी प्रन्थ प्रकाशनार्थ आर्थिक सहायता प्राप्त होने पर इस रचना को संस्था की ओर से प्रकाशित करना निश्चित किया गया और उस गुटके को पुनः जयपुर से मँगाकर प्रेसकापी कर ली गई। इसी बीच उदयपुर में मुनि कान्तिसागरजी के संग्रह में इस रास की दो प्रतियां होने का ज्ञात हुआ तो श्रीनरोत्तमदासजी स्वामी को उन कृतियों की प्रतियाँ या नकल भेजने के लिए लिखा गया और उन्होंने जो प्रारम्भ त्रुटित प्रति मुनि जी से मिली उसके आधार से पद्यांक १२७ से ३१६ तक का पाठ सम्पादित करके भेजा। मुनिजी के पास से दूसरी पूर्ण प्रति प्राप्त न होने से जयपुर वाली प्रति को ही मुख्य आधार मानकर प्रकाशित किया जा रहा है। स्वामी जी की प्रतिलिपि का भी इसमें यथास्थान उपयोग कर लिया गया है और पृष्ठ ६७ से ७९ तक उदयपुर की प्रतिके पाठान्तर दिये गए हैं। मांडा व्यास की रचना को अबतक बचाये रखने का श्रेय जैन विद्वानों को है। मुनि कान्तिसागरजी के संग्रह में इसकी जो पूर्ण प्रति का विवरण देखने को मिला उसके अनुसार उस प्रति में भी पर्याप्त पाठभेद है। रचनाकाल व रचयिता के सम्बन्ध में भी पाठ भिन्न है। ... "हम्मीरायण अति रसाल, भावकलश कहि चरित्र रसाल" .. अन्तिम पद्य में भी भांडा की जगह 'भावकलश कहि सुफला फलइ" पाठ है एवं रचना काल पनरहसइ तात्रीसइ जाणि" पाठ है यह प्रति सं० १६०९ की लिखी हुई है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) मावकलश रचित कृतकर्म चौपई का विवरण भी मुनिजी के विवरण प्रन्थ (अप्रकाशित) में देखा गया है। प्रस्तुत रास की प्रति एवं प्रतिलिपि प्राप्त करने में श्री कस्तूरचंद्रजी कासलीवाल मुनि कान्तिसागरजी क स्वामी नरोत्तमदासजी का सहयोग प्राप्त हुआ, इसलिए हम उनके आमारी हैं। यद्यपि जयपुर वाली प्रतिलिपि कर्ता ने इसका नाम 'राय हमीर दे चौपई' लिखा है, चौपई छन्द की प्रधानता होने से वह संगत भी है पर मूल ग्रंथकार ने प्रारम्भ व अन्त में 'हम्मीरायण' शब्द का प्रयोग किया है अत: हमने भी इसी नाम को अपनाया है। __ यह रचना ३२६ पद्यों की छोटी सी होने से इसके साथ में हम्मीर सम्बन्धी अन्य फुटकर रचनाओं को देना आवश्यक समझा गया अतः परिशिष्ट नं. १ में प्राकृत पैङ्गलम् के हम्मीर सम्बन्धी ८ पद्य हिन्दी अनुवाद सहित प्राकृत ग्रन्थ परिषद के ग्रन्थाङ्क ५ में प्रकाशित प्राकृत पैंगलम् के नवीन संस्करण से उद्धृत किये गये हैं इसलिए इस ग्रन्थ के सम्पादक डा. भोलाशंकर व्यास और प्राकृत ग्रन्थ परिषद के सञ्चालकों के आभारी हैं। परिशिष्ट नं० २ में हम्मीर सम्बन्धी २१ कवित्त व दोहे अनूप संस्कृत लाइब्रेरी के राजस्थानी विभाग की प्रति नं० १२६ ( सं० १७९८ लिखित) से प्रतिलिपि करके दिये गए हैं । और उसी लाइब्रेरी की प्रति नं० ९६ में भाट खेम रचित हम्मीर दे कवित्त एवं बात (सं० १७०६ लिखित) प्राप्त हुए उन्हें परिशिष्ट नं० ४ में प्रकाशित किये गए हैं। एदतदर्थ उपयुक्त लाइब्रेरी के व्यवस्थापकगण धन्यवादाह हैं। . . ___ कवित्त नं० ६, १०, १९ में कुछ पाठ त्रुटित है एवम् कहीं कहीं पाठ भी अशुद्ध है, अतः इसकी अन्य पूर्ण व शुद्ध प्रति अपेक्षित है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) - मैथिल कवि विद्यापति की 'पुरुष परीक्षा' ग्रन्थ के दयावीर कथा में वीर हम्मीर का वृतान्त पाया जाता है। पुरुष परीक्षा प्रन्थ अब अप्राप्य सा है, इसलिये हमारे ग्रन्थालय के प्राचीन संस्करण से दयावीर कथा को हिन्दी अनुवाद के साथ परिशिष्ट नं० ३ में दे दिया गया है। हम्मीर सम्बन्धी अप्रकाशित रचनाओं में कवि महेश के हम्मीर रासे की दो त्रुटित प्रतियाँ हमारे संग्रह में है। उस ग्रन्थ की कई पूर्ण प्रतियां राजस्थान प्राच्य विद्याप्रतिष्ठान, जोधपुर आदि के संग्रह में हैं उनकी प्रतिलिपि प्राप्त करने का भी प्रयत्न किया गया पर उन प्रतियों में अत्यधिक पाठ भेद होने से उसका स्वतंत्र सम्पादन करना ही उचित समझा गया अतः इसमें सम्मिलित नहीं किया गया। हम्मीरायण नामक एक और काव्य भी प्राप्त है जिसकी एक अशुद्ध-सी प्रति राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान ने और उसके बृहद् रूपान्तर की प्रतिलिपि स्वर्गीय पुरोहित हरिनारायण जी के संग्रह में है, वह ग्रन्थ काफी बड़ा होने से मुनिजिन विजय जी ने श्री अगरचन्द जी नाहटा के सम्पादन में राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान से प्रकाशन करना निर्णय किया है। " हम्मीरदेव वनिका नामक एक और महत्वपूर्ण रचना की प्रति श्री उदयशङ्कर जी शास्त्री के संग्रह में है, उसका भी स्वतन्त्र रूप से वे सम्पादन कर रहे हैं इसलिये उसका उपयोग यहां नहीं किया जा सका है। माननीय डा० दशरथ शर्मा ने इस ग्रन्थ की विस्तृतब शोधपूर्ण प्रस्ताबना लिख देने की कृपा की है इसके लिए हम उनके अत्यन्त आभारी हैं। प्रकाशित रचनाओं का कथासार देने का विचार था, पर उसका समावेश डा० दशरथ जी की भूमिका में हो गया है अतः इस ग्रन्थ के पृष्ठों को अनावश्यक बढ़ाना उचित नहीं समझा गया। .. . .. भंवरलाल नाहटा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रणथंभौर का ऐतिहासिक दुर्ग हम्मीरायण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका (हम्मीरायण का पर्यालोचन) राजस्थानी भाषा अपने वीर काव्यों के लिए सर्वत्र प्रसिद्ध हो चुकी हैं। कवि सम्राट श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शब्दों में राजस्थान ने अपने रक्त से जो साहित्य निर्माण किया है उसकी जोड़ का साहित्य और कहीं नहीं पाया जाता' किन्तु इस 'बेजोड़' साहित्य में से अभी तक कुछ रत्न ही हमारे सम्मुख आ सके हैं। वीर रस के प्रेमी अब रणमल छन्द और कान्हडदे प्रबन्ध से परिचित हैं। रतन महेसदासोत री वचनिका और अचलदास खीची री वचनिका के सुसम्पादित संस्करण भी अब हमें प्राप्य हैं। वोठू सूजा नगराजोत का 'राउ जइतसी-रउ छन्द' भी मनस्वी इटालियन विद्वान् तेसीतोरी की कृपा से मुद्रित हो चुका है। कुछ प्रकीर्णक रचनाओं का भी प्रकाशन हुआ है। किन्तु यह प्रकाशित साहित्य अप्रकाशित राजस्थानी वीर रसात्मक साहित्य का एक सामान्य अंश मात्र है। शायद ही कोई ऐसा राजस्थानी वीर हो जिसके लिये कुछ न लिखा गया हो। और हम्मीर तो राजस्थान के उन आदर्श वीरों में से हे जिसकी कीर्ति का ख्यापन कर राजस्थान का कवि समाज कुछ विशेष गौरव की अनुभूति करता रहा है। इन्हीं कवियों में 'भाण्डउ' व्यास भी हैं जिसकी कृति 'हम्मीरायण' पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) हम्मीरायण का रचयिता हम्मीरायण के रचयिता के बारे में सन्देह के लिए कुछ विशेष अवकाश नहीं है । कवि ने अपना नाम पद्य ४,५१, ६०, १०६, ११४, १:७३, २२२, २४२, २४४, २८८, ३२६, आदि में 'भाड', 'भांडउ' और 'भाडउ' रूप में दिया है, जिससे स्पष्ट है कि नाम 'भाड़ा' या माण्डा रहा होगा जिसका राजस्थानी में कर्तृ - कारक के एक वचन में 'माउ' या 'माण्डउ' रूप होगा। जिस प्रकार भाण्डा के समसामयिक नृप 'बीका' को 'बीकउ' या 'बीकोजी' कहते हैं । उसी तरह हम्मीरायण के कवि को हम 'भाण्डउ' या 'भाण्डोजी' भी कहें तो ठीक होगा । हम्मीरायण के कर्त्ता व्यास थे जिनका सदा से कथा-वार्तादि कहना मुख्य व्यवसाय रहा है । अतः रामायणादि की कथा के प्रेमी 'भाण्डउ' व्यास का वीरवती हम्मीर की ओर आकृष्ट होकर 'हम्मीरायण की रचना करना स्वाभाविक था । afa ने अपने पिता का नाम कहीं नहीं दिया है । डा० माताप्रसाद गुप्त का यह मत कि हम्मीरायण किसी काश्यपराव के पुत्र भाण की रचना है, भ्रान्तिमूलक है । वास्तव में वे इस चउपई का अर्थ ठीक न समझ पाए हैं। कासिपराउ तणउ पुत्र माण । श्री सूरज प्रणमउ सुविहाण | पुमि रायणि अति सुरसाल । माड गायो चरिय सुवीसाल ॥४॥ इस चौपाई का भाण तो 'भानु' या सूर्य है जो कश्यप का पुत्र है । उसी का दूसरा नाम सूर्य है । कवि उसे सुविधान से प्रणाम करता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डा० गुप्त ने शायद पृथ्वीराज द्वारा प्रताप को प्रेषित पत्र के इस पद्य पर ध्यान नहीं दिया है : पातल जो पतसाह, बोलै मुख हूँता वयण । मिहिर पिछ दिस माह, ऊगै कासपराव उत ॥ यह ‘कासपराव उत (पुत्र)' और 'कासिपराउ तणउ' पुत्र एक ही हैं। 'मिहिर' भानु और सूरिज का समानार्थक है । कवि ने अपना निजी नाम तो चउपई की दूसरी अर्धालि के दूसरे चरण में दिया है, और इसी नाम की आवृत्ति उसने ५१-६० आदि पदों में भी की है जिनका निर्देश हम अभी कर चुके हैं। समग्र कथा की अच्छी तरह आवृत्ति कर डा० गुप्त यदि कवि का नाम निश्चित करने का प्रयत्न करते तो उनसे यह भूल न होती। हम्मीरायण की कथा हम्मीरायण का कथा-माग कुछ विशेष लम्बा नहीं है। इसे रामायण से तुलित किया जाए तो शायद यही कहना पड़े कि इसमें लङ्काकाण्ड मात्र ही है। हम्मीर के आरम्भिक जीवन को सर्वथा छोड़ कर इसकी कथा प्रायः अलाउद्दीन और हम्मीर के संघर्ष से ही आरम्भ होती है। संक्षेप में कथा निम्नलिखित है : जयतिगदे का पुत्र हम्मीरदे चहुआण रणथंभोर का राजा था | उसका भाई वीरम युवराज था और सूरवंशी रणमल तथा रायपाल उसके प्रधान थे । हम्मीर ने प्रधानों को आधी बूंदी गुजारे में और बहुत सी सेना दी थी। इसी बीच में उल्लूखां के दो विद्रोही सरदार, महिमासाहि और मीर ‘गामरू' उल्लूखाँ की बहुत सी सेना का नाश कर रणथम्भोर आ · पहुँचे। हम्मीर ने उन्हें शरण दी, और उन्हें दो लाख वेतन ही नहीं, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत अच्छी जागीर भी दी। महाजनों ने इस नीति की कटु आलोचना की। किन्तु हम्मीर ने उनकी सलाह पर ध्यान न दिया। ___ उल्लूखाँ को जब ये समाचार मिले, तो उसने अत्यन्त क्रुद्ध होकर हम्मीर पर चढ़ाई को कानों कान किसी को खबर भी न लगी। किन्तु अकस्मात् ‘जाजउ' देवड़ा उधर से आ निकला। उसने कुछ मुसलमानी सेना नष्ट की और हम्मीर को रणथंभोर पहुँच कर खबर भी दी। फलतः जब उल्लूखाँ हीराघाट पहुंचा, हम्मीर मुठभेड़ के लिए तैयार था । हम्मीर, महिमासाहि, मीर गामरू और हम्मीर के राजपूतों से पराजित हकर उल्लूखां मैदान से भाग निकला। अलाउद्दीन को जब यह सूचना मिली तो उसने सब सेना एकत्रित कर रणथंभोर को आ घेरा, और मोल्हाभाट को दूत के रूप में भेज कर हम्मीर को कहलाया कि वह राजकुमारी देवलदे, धारु और वारू वेश्याओं, अनेक गढ़ों और हाथियों को बादशाह की नजर करें। दोनों मीर भाइयों की विशेष रूप में मांग थी। इनके बदले में सुल्तान हम्मीर को मांडू, उज्जयिनी आदि देने के लिए उद्यत था । किन्तु इम्मीर तो एक दर्भाग्र भूमि भी देने के लिए तैयार न हुआ। मोल्हा ने कीर्ति और लक्ष्मी रूपी दो कन्याओं को हम्मीर के सामने प्रस्तुत किया था। हम्मीर ने कीर्ति को वरण करना ही उचित समझा। हम्मीर के पत्र के उत्तर में दाहिमा, कछवाहा, भाटी आदि छत्तीस राजकुलों के लोग रणथम्भोर में आकर एकत्रित हो गए। महिमासाहि के नेतृत्व में शाही सेना पर आक्रमण कर उन्होंने निसरखान को मार डाला। अनेक दूसरे मीर भी मारे गए। गढ़ में खूब उत्सव हुआ। बादशाह ने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युद्ध चालू रखा किन्तु साथ ही में गढ़ को लेने के अन्य उपाय भी सोचने लगा। हम्मीर एक दिन सिंहासन पर बैठा हुआ युद्ध देख रहा था । महिमासाहि भी वहीं था। वह चाहता तो बादशाह को अपने बाण का निशाना बना लेता, किन्तु हम्मीर के मना करने पर उसने केवल अलाउद्दीन के सातों राजछत्र काट डा। सुल्तान ने रणथम्भोर को हस्तगत करने का अब एक और उपाय किया। उसने रिण की 'खाई को लकड़ियों से पाटने का प्रयत्न किया । किन्तु हम्मीर के सैनिकों ने लकड़ियाँ जला दी। उसके बाद अलाउद्दीन की आज्ञा से सैनिकों ने बालू से उसे भरना शुरू किया। बालू से बीच का स्थान भरने पर उसके सैनिकों के हाथ गढ़ के कंगूरों तक पहुँचने लगे। हमीर चिन्तातुर हुआ। किन्तु गढ़ के अधिष्ठाता देव की कृपा से ऐसा पानी आया कि सब बालू बह गई । गढ़ में फिर आनन्द होने लगा। धारू और वारू नाम की वेश्याएँ ऐसा नृत्य करती की उसकी समाप्ति सुल्तान को पीठ दिखाकर होती । सुल्तान ने महिमासाहि के चाचा को बन्दी कर लिया था। उसने बन्धन से मुक्त होकर एक ही तीर से उन दोनों वेश्याओं को मार गिराया । बादशाह ने उसे बहुत इनाम दिया। ... बारह वर्ष तक युद्ध चलता रहा। अन्त में सुल्तान ने सन्धि की बातचीत आरम्भ की। रायपाल और रणमल को अत्यन्त विश्वस्य समझ कर हम्मीर ने सुल्तान के पास भेजा। अभी तक उनके पास आधी बून्दी की जागीर थी। पूरी बून्दी की प्राप्ति का आश्वासन मिलने पर इन दुष्ट Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधानों ने सुल्तान को वचन दिया कि सेना के प्रयोग के बिना ही वे उसे दुर्ग दिलवा सकेंगे। _गढ़ में पहुँच कर इन दुष्टों ने झूठ मूठ ही बातें बनाते हुए राजा से कहा, "सुल्तान देवलदेवी को मांगता है।" कुमारी भी आत्मोत्सर्ग के लिए तैयार हुई। किन्तु हम्मीर ने उसकी बात पर ध्यान न देकर अपनी सेना तैयार करनी शुरू की। अपने प्रधानों की दगाबाजी को अब भी वह न समझ सका। दुर्ग के धान्यरक्षक से मिल कर इन्होंने सब धान्य इधर उधर करवा दिया | फिर अलाउद्दीन पर हमला करने के बहाने से हम्मीर से सेना लेकर वे शत्रु से जा मिले। हम्मीर को अब कोई ऐसा व्यक्ति दिखाई न दे रहा था जिसके हाथ में वह हथियार दे। इसलिए प्रजा को बुला कर उसने कहा, "मैं राजा हूँ, तुम मेरी प्रजा हो" कहो, मैं तुम्हें कहाँ पहुँचाऊँ ? और जाजा तुम तो परदेशी पाहुणे हो, तुम अपने घर जाओ।" किन्तु जाने के लिए कोई तैयार न हुआ। महिमासाहि ने तो यह भी कहा, “यदि हमें देने से गढ़ बच सके तो इसे बचाओ।" हम्मीर के लिए यह असम्भव था। मीरों के कहने पर हम्मीरने धान्यागारों की देखभाल करवाई तो मालूम हुआ कि वे सब खाली हैं। अब जौहर के सिवाय उपाय ही दया था ? उसकी तैयारी हुई। राजा ने वंश रक्षा के लिये वीरम को गढ़ से जाने के लिये कहा। किन्तु जब वह तैयार न हुआ तो उसने कंवर को तिलक दिया और विदा करने से पूर्व उसे उचित शिक्षा दी। हाथियों और घोड़ों को राजपूतों ने मार डाला। जमहर (जौहर) की चिताएं जल उठीं। सवा लाख का संहार हुआ। फिर सब स्थानों से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ विदा मांगता हुआ जब हम्मीर कोठारों में गया तो उन्हें भरा पाया । किन्तु उसे अब जीने की इच्छा न रही थी । उस समय वीरमदे, हम्मीर दे, मीर और महिमासादि, भाट और पाहुणा जाजा केवल ये व्यक्ति दुर्ग में बर्तमान थे । उचित स्थान पर अपनी अन्त्येष्ठि और दोनों मीरों को दफनाने का काम हम्मीर ने भाट को सौंपा। सबसे पहले मीरों ने, फिर देवड़ा जाजा ने और उसके बाद वीरम ने युद्ध किया । हम्मीर ने अपने हाथों ही अपना गला काटा । "यह सब संसार जानता है कि संवत् १३७१ ज्येष्ठ अष्टमी शनिवार के दिन राजा मरा और गढ़ टूटा।" सुबह रणझेत्र में बादशाह पहुँचा। उसने रणमल से पूछा, 'इनमें तुम्हारा साहिब कौन है ?" मद से मस्त उस अँधे ने पैर से राव को दिखलाया। उसी समय नव्ह भाट ने हम्मीर की विरुदावली का उच्चारण किया और अलाउद्दीन की भी प्रशंसा की। उसने एक एक सिर दिखा कर सब वीरों का वर्णन किया । ' रणथंभौर जलहरी है, जिसमें हम्मीर शिव स्थान पर वर्तमान है । वइजलदे ? 'देवड़ा जाजा' ने उस सहिब की अपने शिर से पूजा की है। यह राजा का बन्धुवर वीरमदे है । यह तुम्हारे घर के मीर महिमासाहि और गामरू हैं । वह शरणागतों की रक्षा करन वाला हम्मीर है । बादशाह ने नाल्ह भाट को मुंहमांगा दान मांगने को कहा । नाव्ह ने स्वामिद्रोहियों के घात की प्रार्थना की। सुल्तान ने रणमल, रायपाल और कोठारी की अँगूठे तक खाल निकलवा डाली । माट प्रसन्न हुआ । राजपूतों को दाग दिया, दोनों मीरों को दफनाया, और राजा को गङ्गा में प्रवाहित किया और फिर भाट की प्रार्थनानुसार उसे भी मरवा दिया भाटने हम्मीर का बदला लेकर अपना नाम रखा ।' 'भाण्ड' ने "यह कथा सोमवार के दिन कार्तिक सुदी सप्तमी, संवत् १५३८ के दिन कही ( पद्य ३२५ )” Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-विषयक कुछ मतभेद इम इस प्रस्तावना को प्रायः समाप्त कर चुके थे। उस समय श्री अगरचन्दजी नाहटा से हमें 'इमीर दे चउपई' पर हिन्दुस्तानी ( १९६०, जनवरी-मार्च ) में प्रकाशित डॉ. माताप्रसाद गुप्त का लेख मिला । डा. गुप्त ने हम्मीरायण की कथा पर काफी रोशनी डाली है, जिस अर्थ पर हम पहुँचे हैं और जो अर्थ डा० गुप्त ने दिया है, उनमें अनेकशः पर्याप्त मतभेद है। अतः कुछ और लिखने से पूर्व उन स्थलां पर कुछ विचार करने के लिए हम विवश हुए हैं। कथा के सत्यासत्य की परीक्षा उसका अर्थ निश्चित होने पर ही हो सकती है । डा० माताप्रसाद कृत अर्थ प्रस्तावित अर्थ और सुझाव (१) “वह (कवि) अपने (१) कश्यपराज का पुत्र भानु है । उन श्री सूर्य को काश्यप राव का पुत्र को मैं सविधान प्रणाम करता हूँ।" हम ऊपर बता माण बताता है।" चुके हैं कि कवि का नाम 'भाड', भाडउ या 'भाण्डउ' व्यास है। (२) “गढ़ के परकोटे (२) चौपाई इस प्रकार है :में चार प्रमुख पोलियां कोटि जिसो हुवइ इन्द विमाण, थी और प्रत्येक पौली पर च्यारि पोलि तिणि कोटि प्रधान । नौलखी चंद्रिका होती पोलि चंडि नवलखीज होइ, चउरासी चहुटा नितु जोइ ॥९॥ इसमें प्रत्येक पोली पर नौलखी चद्रिका होती थी । ऐसा अर्थ तो इसमें कहीं दिखाई नहीं पड़ता। वास्तव में नौलखी तो एक पोली विशेष है जो अब भी इस नाम से प्रसिद्ध है। थी।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) "राजा का आवास त्रैलोक्य-मंदिर का नाम का था, ओर गढ़ के परकोटे में एक अलंकृत पौली थी जिसके बीच में एक त्रुटित रणस्तंभ था।" (३) चौपाई इस प्रकार हैं : त्रैलोक्यमंदिर राय आवास, सीला ऊन्हा धवलहरि पासि । भूखी पोलि अछइ तिणि कोटि, रिणनइ थंभ विचइ छइ त्रोटि ॥१७॥ यहाँ डा० गुप्त और अधिक चुके हैं। त्रैलोक्यमन्दिर एक प्रासाद विशेष की संज्ञा है। ऐसी ही संज्ञाएँ बीकानेर और राणकपुर के त्रैलोक्य-दीपक प्रासादों में भी अनुसन्धेय हैं। किन्तु इम डा० गुप्त के पहले पंक्ति के अर्थ को यथा तथा ठीक भी मान लें। तो भी दूसरी पंक्ति के अर्थ से सहमत होना तो असम्भव है। यह समझ में नहीं आता कि “पौलिके बीच में त्रुटिन रणस्तंम” की कल्पना ही वे कैसे कर चुके ? वास्तव में “रण” दुर्ग की निकटस्थ प्रसिद्ध पहाड़ी है जिसका उल्लेख प्रायः सभी इतिहासकारों ने किया है । 'स्तम्भ से वह पहाड़ अभिप्रेत है जिस पर दुर्ग है। इनके बीच में गहरा खड्ड है ( देखें आगे हमारा रणथंभोर का भौगोलिक वृत्त)। कवि ने इसी तथ्य को 'रिण नइ थम्म बिचइ छइ त्रोटि' कह कर प्रकटित किया है। रिण का नाम 'चउपई' में आगे भी हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) (४) “पहले उलुगखां (४) डा० गुप्त का यह अर्थ हमारे विचार से ने इनसे पांच लब्धियां अस्पस्ट है और अशुद्ध भी। लब्धि का पारिमांगी थीं, किन्तु इन्होंने भाषिक अर्थ एक ज्ञान विशेष है जो इस प्रसंग में उसे आधी लब्धि भी नहीं उपयुक्त नहीं है, यदि 'लब्धि' को हम प्राप्ति' के अर्थ दी, फिर भी बादशाह के में लें तो आधीलब्धि और पांच लब्धिका अर्थ समयहाँ इनका मान था, झाने की आवश्यकता है। हमीरायण के उद्धरण इसलिए ये उलुगखां की ये हैं :सेना में बने हुए थे।" अलुखान जि मंगियउ, अम्ड तीरइ पंचाध । घणा दिवस म्हे ऊलग्या, जेउ न दीधउ आध ॥४०॥ अम्हनइ मान हुनउ एतलउ, घरि बैठा लहता कणहलउ । पातिसाह नइ करता सलाम, कटकि उलगता अलुखान ॥४५॥ इन पदों का वास्तविक अर्थ मुसलमानी इतिहासों को देखने से ज्ञात होता है जिनके अवतरण हमने आगे उद्धृत किए हैं। इस्लीम कानून के अनुसार लूट का कुछ भाग सुल्तान का और कुछ सैनिक का होता है। उलूगखां ने गुजरात से आते समय इस राज्य मार्ग को, जो यहाँ 'पंचाध' (पश्चार्ध ) के रूप में प्रस्तुत है बलात् सिपाहियों से वसूल किया था। मुहम्मद शाह और उसके साथी 'अर्ध' मी देने के लिए तैयार न थे, क्योंकि उन्होंने बहुत दिन तक सेवा की थी। वे उलुगखां के दुर्व्यवहार से असंतुष्ट थे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) 'जाजा देवड़ा उस समय अखाड़े में था । * और बीकन वहां घोड़ा ले कर आया था ।" Jain Educationa International ( ११ ) उससे पूर्व उनका संमान इतना था कि घर बैठे उन्हें वृत्ति मिलती थी, वे बादशाह को सलाम करते और उलुगखां की फौज में नौकरी बजाते । उलुगखां के दुर्वचनों से दुःखी होकर उन्होंने कालु मलिक को मार दिया, कटक में कोलाहल किया और जग देखते वहाँ आए थे : इणि वचनि दुइविया स्वामि, काल मलिक मायउ तिणि ठामि । कटक मांहि कुलाइल किया, जग देखत इहाँ आविया ॥ ४६ ॥ (५) जिस चउपर का अर्थ डा० गुप्त ने किया है वह यह है : हेडाउ जाउ देवड, घोड़ा ले आयु बीकणउ ॥ ६८ । अखाड़े के लिए यहां कोई शब्द नहीं है । शायद डा० गुप्त ने 'हेडाउ' का अर्थ अखाड़ा कर दिया है । 'हेडाउ' राजस्थानी का विख्यात शब्द है । "हेडाउ - मीरी" का ख्याल अब भी होली के समय होता है। हेडाउ हेम बणजारे की कथा भी प्रसिद्ध है । श्री मनोहर शर्मा ने इस दोहे की ओर भी मेरा ध्यान आकृष्ट किया है : लाख सरिसा लख गया, अनड़ सरीसा आठ । म डाउ सारसा, बले न आया वाट || For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) (६) "छावनी बीड़ी खाकर सोई हुई थी।" 'बीकन वहाँ घोड़ा लेकर आया था' अर्थ भी प्रसङ्गानुकूल नहीं है। सीधा अर्थ तो यही है कि हेडाउ जाजा बिक्री के लिये घोड़े लाया था। पाँच सहस्र घोड़ों से आक्रमण एक अश्वों का व्यापारी हेडाउ ही कर सकता था। (६) हम्मीरायण का पाठ है : “छाइणि सूतो बीटि खानी ॥१॥ उस समय के किसी ग्रन्थ में हमने नहीं पढ़ा कि छावनी बोड़ी खाकर सो जाती थी। यह दुर्थ फिर प्राचीन राजस्थानी के 'बीटि' शब्द का अर्थ न समझने से हुआ है। वास्तविक अर्थ है : "खानने सोती छाइणि (झाईन नगर ) को घेर लिया। (७) मूल पाठ है बाली नगर ढाही अहिठाण" अर्थात् उसने नगर को जलाकर अधिस्थानराज्यस्थान तथा प्रधान स्थानों को ढहा दिया। बाली का अर्थ 'जला कर' राजस्थानी भाषा में प्रसिद्ध है। (८) यहाँ हम्मीर का राज्य था अतः सूमार की कोठी यदि कोई होती तो अपने ही राज्य की होतो। मूल में 'कोटी सूयार' शब्द है इसका अर्थ स्पष्ट नहीं है संभवतः शाही शिविर को हम्मीर ने (७) तदनन्तर उसने बाली नगर में पड़ाव किया (e) हम्मीर ने सभार की कोठी लूटी।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ लूटा है। सुर्जन चरित में इस बात का उल्लेख है कि हम्मीर ने शाही कैप को लूटा और अलाउद्दीन ने दूत द्वारा इस पर अपना रोष प्रकट किया। (९) वह करमदी बीटि (९) पाठ है :-करमदी बीटी आधी राति ॥६॥ में आधी रात को पहुँच 'बीटी' का अर्थ वही 'घेर लिया' है। उसने गया। आधी रात करमदी को घेर लिया। 'बीटी' शब्द हम्मीरायण में अनेकशः प्रयुक्त है। (१०) मीर मुहम्मद नाम (१०) चउपई यह है :का बड़ा पठान था जो मुहिमद मीर मोटा पठाण, बे ऊमटी आव्या खुरसाण । खुरासान से आया था। मुगले काफर ते अति घणा, मलिक मीर मीया नहमणा ॥९९॥ इसमें सरहदी अनेक जातियों के नाम हैं जो सुल्तान की सेना में सम्मिलित हुई थीं। मोहमंद, पठान, खुरसाण, मुगल काफिर आदि के नाम स्पष्ट है। मोहम्मदी, मीर, मोटे पठान, खुरसाण समी उमड़ कर आए थे। (११) "नगर की समस्त ११. चउपई यह है :जनता से मिल कर उसने नगर लोक सहु मिल्या, बद्धावइ चहुआण; बधावा किया।" गढ बधावइ अति घणउ, भरि भरि अंखि अयाण ॥१४|| ___अर्थ यह है, "नगर के सब लोग मिले। वे चौहाण ( हमीर ) को बधाई देने लगे। अज्ञानी (बेसमझ) लोग आंख भर भर गढ को भी अत्यन्त बधाई देते थे।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) के डि - क्रीडा १५० (१३) "यह हम्मीर है जो कि दुर्ग के दृढ़ कपाट दे कर अड गया है; रणथम्भोर दुर्ग से भिड़ कर ही तू उसका समतुल्य जान सकेगा । कहा (१४) हमीर ने है कि नगर के नाम को मलिन कर वह दोनों अमीरों को न देगा और न हाथी-घोड़े या गढ को अर्पित करेगा Jain Educationa International १४ ) के यह सब राजपूती प्रथा है । गढ़ के पूजन लिए १९१ वीं चौपाई देखें । आगे गढ़ को विदा भी है । १२. केडिका यह क्रीड़ा अर्थ उपयुक्त नहीं है । 'केड़ि' का अर्थ पीछे या पश्चात् होता है गुजराती और राजस्थानी में इस शब्द का प्रचुर प्रयोग पाया जाता है । १३. छपद की अन्तिम दो पंक्तियाँ ये हैं :रे अलावदीन हम्मीर यह, दिढकिमाड आडउ खरउ । रिणथंभि दुर्ग लगतडा, हिव जाणीयइ पटन्तरउ ॥१७६॥ यहां वास्तव में हम्मीर दृढ़ कपाट है। वह कपाट दे कर अड़ नहीं गया है । 'भडकिंवाड़' चारणी साहित्य का प्रसिद्ध शब्द है (भड़किवाड़ शब्द के लिए नेणसी की ख्यात, भाग २, पृष्ठ २७७ भी देखें । पटान्तर अर्थ शायद अन्तः सत्त्व हो । १४. यहाँ मूल पाठ 'न परणावउ डीकरी को गुप्तजी ने 'नयर णाव ऊंडीकरी' लिखा है और 'नगर' के नाम को मलिन कर' अर्थ करने की कष्ट कल्पना की है। देवलदे पुत्री के लिए बादशाह की मांग थी जिसके उत्तर में हम्मीर ने कहलाया कि “पुत्री नहीं परणाऊँगा" For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) १५. छत्तीस राज- १५. इनमें खाइडा, महुउड़ा, और रणमल्ल जाति पूत जातियों के नाम। नाम नहीं है। इसके लिये उदयपुर की प्रतिका पाठान्तर दृष्टव्य है। १६. युद्ध के आरम्भ १६. यह फिर दुरर्थ है। चउपई यह है :में सुल्तानी सेना के आगे मार्या मीर मलिक जाम, हम्मीर की सेना में भगदड़ . सगला दल मांहि पड्यउ भंगाण । पड़ गई जब निसुरतखां नवलखि मास्या निसरखान, ने हम्मीर के नौ लाख ___बंबारव पड्यउ तेणि ठाणि ॥१७२॥ *निक मारे। वास्तविक अर्थ यह है : "जब उन्होंने मीर और मलिकों को मारा सब ( सुलतानी ) सेना में भगदड़ पड़ गई । नवलखी (द्वार ) के पास नुसरतखान को जब राजपूतों ने मारा, तो उस स्थान में चीखना चिल्लाना शुरू हो गया। नुसरतखों की मृत्यु के लिए आगे दियो ऐति हासिक वृत्त देखें। १७. 'शत्रु दल में १७. दोहा यह है :हलचल पड़ गई और - कटक मोहि हल हल हुइ, हुउ दमामे घाउ । शाह-ए. आलम गढ़ पर सुभट सनाह लेइ मला, चडिउ आलम साह ॥१४॥ ___अर्थ यह है :चढ़ पड़ा। “कटक में हलचल हुई। दमामों पर चोट पड़ी। वीरोचित अच्छा कवच धारण कर शाह-ए-आलम (अल्लाउद्दीन ) ने गढ़ पर चढ़ाई की” । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. “हम्मीर के १८. इन चौपाइयों में कहीं यह निर्देश नहीं योद्धा तलवार सेल और है कि इस पक्ष के योद्धा इन अस्त्रों को और विपक्ष सींगनियों से बाण चला के योद्धा उनसे मिन्न अस्त्रों को प्रयुक्त कर रहे थे। रहे थे, जब कि सुल्तानी सेना के ओर से यंत्र, नालें और ढीकुलियां चल रही थीं और ऐयार मार काट कर रहे थे ( १८६१८७) १९. “पहिले दिन १९. इतिहास और भूगोल दोनों पर बिना का युद्ध समाप्त होने पर ध्यान दिए शायद यही अर्थ संभव हो। लोग भोजन बनाने के दोनों चउपइ ये हैं :लिए लकड़ी जला रहे थे पहिलउ रिण पूरउ लाकड़े, देह आग बाल्यउ तिय भड़े। कि बादशाह का 'फर्मान कटक सहू नइ हुयउ फुरमाण, बेलू नखाउ तिणि वहां से हटने के लिए ठाणि ॥१९॥ हुआ और सभी लोग सुथण तणी बाधइ पोटली, मीरमलिक वेलू आणइ मरी। अपना सीधा सामान न करइ कोई झूझ गढवाल, वेलू आणइ सहि पोटली लेकर वहां से हट गए"। ॥१९॥ इसके वास्तविक अर्थ के लिए पाठक गण ऐतिहासिक अवतरणों को देख लें। उससे उनको निश्चय होगा कि चौपाइयों का वास्तविक अर्थ निम्नलिखित हैं : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) पहिले उन्होंने रिण ( की खाई ) को लकड़ी से भरा ; किन्तु उसे ( हम्मीर के ) सैनिकों ने बला डाला। (फिर ) सब सेना को आज्ञा हुई 'उस स्थान पर बालू डलवाओ' सूथण ( पायजामे ) की पोटली बांध बांध कर मीर और मलिक बालू भर कर लाते। गढ के घेरने वाले कोई युद्ध न कर रहे थे। सभी पोटली में बालू ला रहे थे।" गुप्त जी की भूल का कारण यहां बेलु का अर्थ बालू न करके ब्यालु ( भोजन ) समझना है जिससे वे दुरर्थ कर सके हैं अन्यथा यहाँ भोजन और सीधा सामान का प्रसंग ही क्या था ? यह शाही सेना थी, न कि भोजनमट्ट ब्राह्मणों की मंडली, जो सीधा सामान उठा कर चली गई। फरिश्ता ने 'रिण की खाई' नाम देकर सब घटना का वर्णन किया है। इसामी की फुतू हुस् सलातीन और हम्मीर महाकाव्यादि से सब कथा पढ़ी जा सकती है। २०, चउपई का अंश यह है :'राउ आगलि नित पालउ पड़ई' (२०३) यहां राजा पाल पर नहीं आता। उसके सामने 'पाल' पड़ता है। 'पाला' का अर्थ 'अखाड़ा' है; सम्भवतः 'पाला पड़ना' यहाँ 'मजलिस लगने के अर्थ २०. इसके बाद राजा नित्य पाल पर आता। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ । २१. धीरे-धीरे छठ्ठा २१ पद्यांश निम्नोक्त है :महीना समाप्त हो गया छटई मासि संपूरण मस्यउ, ते देखी लोक मनि डस्यउ और गढ़ के लोग चिन्ताः कोसीसइ जइ पहुता हाथ, तुरका तणी समी छइ बाच्छ । तुर हो उठे (२००) 'हम्मीर भी चिन्तित हुआ २०० और उसने गढ़ देवता से राय हमीर चिंतातुर हूयउ, रिण पूस्यउ दुर्ग हिव गयउ युद्ध का परिणाम जानना गढ देवति लही परमाथ,आणी कुंची दीधी हाथि २०१ चाहा (२०१) इसमें रिण के पूरा भर जाने पर गढ़ के कोसीसों तक हाथ पहुँचने लगे जिससे हम्मीर चिन्तातुर हुआ। गढ के अधिष्ठातृ देव ने परमार्थ ( वास्तविक स्थिति ) को समझ कर हम्मीर के हाथ में चाभी दी। राय ने तब बारीउघाड़ी और अधिष्ठातृ देव की माया से पानी बह निकला। पानी से बालू बह गई, वह झोल फिर खाली हो गया। - २२ 'बार वर्ष ( या २२. 'या वर्ष दिन' अर्थ के लिए यहां कोई वर्ष दिन ?) हो गए। अवकाश नहीं है। युद्ध का समय चउपई २१२, २१६, और २१० में 'बार वरिस' है। चाहे युद्ध इतना न चला हो, हम्मीरायण के लिए यही अर्थ उपयुक्त है। मल्ल के २१ वें कवित्त में भी युद्ध का काल 'वरिस दुवादस' है। इससे 'बार' का ठीक अर्थ स्पष्ट है। २३ 'जीमने में वह २३ जीमने में पैरों के पास बिठाने में कौन संमान हमें अपने पैरों के पास विठाता है।' है ? पद्यांश यह है : ' ' २ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) २४ 'पहले तुमने बड़े बड़े राज्यों को जीता है।' - "जिमणइ गोडइ बइसारइ पासि” (२२४) यहां 'जिमणइ' का अर्थ 'जीवणा' या 'दाहिना अधिक उपयुक्त है। राज दरबार में राजा के निकट दाहिनी ओर बैठना सदा से प्रतिष्ठा सूचक रहा है। ( देखो मानसोल्लास या बीकानेर, उदयपुर आदि राज्यों की दरबारी रीति-रिवाजों पर कोई पुस्तक)। २४ पद्यांश यह है ;“ तं मोटउ अगंजित राव" इसका अर्थ है, "तू बड़ा अजित राजा है।" ( अजित शब्द के महत्व को गुप्त सम्राटों की मुद्राओं पर देखें) २५. पद्यांश यह है। तउ तुम्हि आव्या बड़ा प्रधान । घर मुकलावउ अम्ह नइ देइ मान ॥ २२५ ॥ “यह तब समझा जायगा" अर्थ न प्रासङ्गिक है और न शाब्दिक । २६. पद्यांश यह है : “बंधवगढ़ नवि लीजइ प्राणि।" इससे अगली पंक्ति में प्रधान कहते हैं कि यदि उन्हें पूरी बूंदी दी जाय तो वे बल प्रयोग के बिना गढ दिला सकते हैं। इसलिए उपयुक्त अर्थ होगा___“इसे बल के प्रयोग से नहीं लिया जा सकता।" ... २५. 'यह तब समझा जायगा कि कोई बड़ा प्रधान तुम्हारे पास आया था जब तुम हमें सम्मान देकर वापस करोगे' - २६. 'उसे बल से क्यों नहीं ले लेते हो?' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. 'कोठारी से उन्होंने कहा, "धान्य फेंक कर तुम भी सब के समान निश्चष्ट पड़ जाओ ।" Y २८. 'वे राजा को यह विश्वास दिलाते रहे कि उसकी सेना के आगे शत्रु निरंतर क्षीण पड़ता जा रहा है, केवल एक बार [ और ] उसे परिग्रह को [ रणक्षेत्र में ] देने की आवश्यकता थी ।' Jain Educationa International ( २० ) २७. पद्यांश यह है : कोठारी नइ बोल्यउ विरउ, धान नखावि सहु तरं परउ ॥ २३४ ॥ इससे अग्रिम चउपर में हमें यह सूचना भी 'तिणि नीचि नाख्या सहु धान ।' उस समय तक कोई निश्चेष्ट मिलती है । किन्तु दुर्ग में था ही नहीं । इसलिये निश्चेष्ट पड़ने का कोई प्रश्न ही नहीं है। धान नखावि ( नखाव ) सहु त परउ' का अर्थ यही है कि 'तू सब ( सहु ) धान्य दूर ( परे, परउ ) फिक्रवा दे ( नखाव ) ।' २८. चउपर यह है । :--- रिणमल रउपाल मांगइ पसाउ; एक बार परघउ दाउ राउ, safe की करां अति भलउ, जे में तुरक पाडां पातलउ ॥२३६॥ वास्तविक अर्थ यह है : "रिणमल और रायपाल ने यह प्रसाद ( favour) मांगा, “एक वार राय हमें परिग्रह ( सेना ) दें। हम कटक में भली क्रीडा करेंगे, जिससे हम तुर्कों को कमजोर कर सकें । अपभ्रंश और राजस्थानी के जानकार ' पसाउ' 'परघड', 'कीलउ' 'पातलउ' आदि शब्दों से अच्छी तरह परिचित हैं। 'पातलउ' पातला ( पतला ) है । For Personal and Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. "इन दोनों ने प्रच्छन्न रूप से ऐसा कुछ किया कि सवा लाख ( संपादलक्ष ) का परिग्रह स्वामिद्रोह करके बादशाह से जा मिला।" (३०) जाजा ने कहा, "घर वह जावे जो माता पिता के अतिरिक्त तीसरे का जन्मा हो ।" (३१) महिमाशाहि ने कहा कि तो वह कोठार के धान्य और गढ की रक्षा करेगा | Jain Educationa International ( २१ ) २९. चउपर यह है : 'राय तणइ मनि नहीं विशेष, द्रोहे कीधउ काम अलेख सवालाख परिघउ (यह ) रावु, द्रोहे मिल्या जाइ पतिसाहि ॥ २३७॥ 'भलेख' का अर्थ 'अलेख्य है । इसी 'अलेख्य' कार्य को कवि ने २२२ वीं चउपई में भी इंगित किया है । द्रोह का उत्तरदायित्व शायद कवि ने प्रधानों पर हो रखा है। (३०) पद्यांश यह है : 'जाजउ कहइ ति जाउ, जे जाया तिह जण तणा ॥ २४८ ॥ I संभवतः 'ति जण' का अर्थ डा० गुप्त ने तीसरा जन किया है । वैसे "तिर जण " का अर्थ 'वह (अवक्तव्य) पुरूष' अर्थात् जार प्रतीत होता है। मल्ल के कवित्त में इसी प्रसंग में 'तसै जणे' है (पृष्ट ४९ दूहा ३) (३१) चउपई यह है : Roman महिमासाहि इसिउ कहइ, निसुणि राय हमीर | धान जोवाडि कोठार ना, गढ राखां तर मीर ॥ २५४ ॥ अर्थ यह है : तुम महिमा साहि ने कहा, 'हे राय हमीर, सुनो । कोठार के धान्य को दिखवाओ ।" ( ' धान्य होगा ) तो हम गढ़ रखेंगे ।' For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) - इससे अग्रिम चौपाई में यह वर्णित है कि राज ने कोठारी से पूछा कि कोठार में कितना धान है। बनिये ने सब अंबार खाली दिखा दिए। . (३२) उसने भृत्य माहे- (३२) मूल पद्यांश रखे महेसरी करउ प्रधान श्वरी को प्रधान बनाने (२२५) में रखे' शब्द का अर्थ डा० गुप्त ने गलत किया तथा दोनों अमीरों को है यह अव्यय है और फलितार्थ निषेधात्मक है श्री सम्मान देने के लिए कह जिनराजसूरि और श्रीमद् देवचन्द्रजी आदि राज कर कुमार को विदा स्थानी तथा गूजराती के कवियों ने इसका प्रचुरता से किया। प्रयोग किया है। गूजरात में तो आज भी बोलचाल में निषेध पर बल देने के लिए यह शब्द पर्याप्त प्रचलित है । अतः यहां माहेश्वरी प्रधान बनाना निषिद्ध किया है । आगे महेसरी ना बाढिज्यो कान भी निषेध का ही समर्थक है। (३३) मुकलावइ = मुक्त (३३) मुक्त के स्थान पर विसर्जन करना या किया । (२७४) विदा देना अधिक उपयुक्त है । (३४) “जमहर (जौहर) (३४) चउपई यह है:करने के लिए हम्मीर ने जमहर करी छड़उ हुयउ, हमीर दे चहुआण । घोड़ा पलाणा।" सवालाख संभरि धणी, घोडई दियइ पलाण ॥२७९॥ हम्मीर ने जौहर करने के लिए नहीं अपितु जौहर कार्य से विरत होने पर घोड़ा पलाणा। जमहर स्त्रियों के लिए था; पुरुषों के लिए जौहर के बाद आमरणान्त युद्ध । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) "यह सुनकर ] राजा ने अपने आप ही अपना गला काट डाला ।" ३६. उसने मांगा कि रणमल, रायपाल तथा गढ़ के कोठारी की खाल एक अंगूठा मोटी निकलवा ली जाय । ( २३ ) (३५) पद्यांश यह है : Jain Educationa International राव पवाडउ कोयउ भलउ आपणही सारयउ जै गलउ ॥२९३॥ राजा ने यह बड़ा पवाड़ा किया कि अपने ही हाथ अपना गला काट डाला । 'पवाड़ा' के अर्थ पर हमने आगे विचार किया है । ( ३६ ) यह अर्थ संगत नहीं कहा जा सकता । मनुष्य की खाल और एक अंगूठा मोटी ? वह गैंडा तो नहीं है । 'अंगूठा थकी का अभिप्रेत अर्थ 'अंगूठा मोटी' न होकर अंगूठे तक की ( अर्थात् समस्त शरीर की ) खाल है । अंग्रेजी में इसे Flaying alive कहते हैं । हम्मीर महाकाव्य से तुलना हम्मीर महाकाव्य में भी हम्मीर की कथा का विशद वर्णन है । हम्मीरायण का रचना समय सं० १५३८ है । हम्मीर महाकाव्य की रचना ग्वालियर के तंबर : राजा वीरम के समय हुई, जिसकी ज्ञात निश्चित तिथियाँ सं० १४५८ और. १४७९ हैं ( तारीख मुबारकशाही, १७७; प्रशस्ति संग्रह, महावीर ग्रन्थमाला, द्वितीय पुष्प, जयपुर, पृ० १७३, पंक्ति २४ ) । हम्मीर महाकाव्य में हम्मीर की सब जीवनी का वर्णन है, उसकी जानकारी कुछ अधिक परिपूर्ण और प्राचीन: आधारों पर आश्रित प्रतीत होती है । अलाउद्दीन से संघर्ष के बारे में दी हुई, दोनों काव्यों की सूचनाओं में जो अन्तर है, उसे कोष्टक रूप में इम इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं : : For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण हम्मीर महाकाव्य १, जयत्तिगदे का पुत्र (१) जैत्रसिंह के पुत्र हम्मीरदेव ने गद्दी पर - हम्मीर दे जब रणथंभोर बैठते ही दिग्विजय का निश्चय किया और मालवा, में राज्य कर रहा था, मलखान के विद्रोही सर मेवाड़, आबू, बदनोर, अजमेर, सांभर, मरोठ, खंडेला, दार महिमासाहि और चम्पा, ककराला, तिहुनगढ़ आदि पर विजय प्राप्त कर मीरगामरू ने हम्मीर की रणथम्भोर वापस आया। तदनन्तर उसने कोटि यज्ञ शरण ली। महाजनों ने किया और पुरोहित के कहने पर एक मास का मौनउनके व्यय आदि को __ व्रत धारण किया। उसी समय उल्लूखान को अलाध्यान में रखते हुए राजा उद्दीन ने कहा, 'रणथम्भोर का राजा हमें कर दिया को उन्हें निकाल देने की सलाह दी। किन्तु राजा करता था। उसका पुत्र हम्मीर तो हम से बात भी ने इस पर ध्यान न दिया। नहीं करता। इस समय वह व्रत में स्थित है। तुम इस पर अलूखान बहुत बड़ी जाकर उसके देश का विनाश करो” (सर्ग ९,१-१०४) सेना लेकर रणथम्भोर पर चढ़ आया। (१८-६६) (२) अलुखान की चुप- (२) उल्लूखान बनास के किनारे पहुँचा। चाप चढाई का किसी को घाटी के अन्दर घुसने में अपने को असमर्थ पाकर वह पता न शान्ति ने वहीं ठहरा । सेनापति भीमसिंह और मन्त्री धर्मसिंह में भाग्यवशात् जाजा ने उसकी फौज पर आक्रमण किया। मुसलमानी देवड़ा भी वहीं आ उतरा फौज हारी। इधर-उधर लूटपाट कर धर्मसिंह तो रणजहाँ अलूखान की कुछ थम्भोर की ओर लौट गया। किन्तु दर्रे में प्रवेश सेना का पड़ाव था। करती समय भीमसिंह के सिपाहियों ने मुसलमानों से जाजा ने उसकी सेना छीने हुए नगारों को बजा डाला। उसे अपनी जय को नष्ट किया और खबर का संकेत समझकर तितर-बितर हुए मुसलमानी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) रणथम्भोर में दी। उधर सिपाही एकत्रित हो गए। भीमसिंह वीरता से युद्ध अल्लूखान बढ़कर हीरापुर करता हुभा मारा गया। घाट पर जा उतरा। व्रत के पूरा होने पर हम्मीर ने धर्मसिंह को हम्मीरदे ने महिमासाहि नपुंसक, अंधा आदि कहते हुए उसे वास्तव में शरीर और अनेक क्षत्रियों की से अन्धा और नपुंसक बना दिया। धर्मसिंह का पद सेना के साथ अलखान उसने खांडाधर मोज को दिया। किन्तु कुछ दिन पर आक्रमण किया। बाद धन की आवश्यकता पड़ने पर उसने अंधे धर्मसिंह अलखान पराजित होकर को फिर अपने पुराने पद पर नियुक्त कर दिया। भागा और बादशाह तक प्रजा को अनेक करों से पीड़ित कर उसने राजा के पुकार हुई। (६७-८३) विरुद्ध कर दिया। भोज को भी राजा और धर्मसिंह ने इतना तंग किया कि वह और उसका भाई पीथसिंह यात्रा के बहाने दिल्ली जाकर अलाउद्दीन के नौकर हो गए। भोज के चले जाने पर हम्मीर ने दण्ड नायक का पद रतिपाल को दिया (सर्ग ९,१०६-१८८) ३. अल्लाउद्दीन ने ३. भोज की सलाह से अलाउद्दीन की सेना ने क्रुद्ध होकर बहुत बड़ी फसल कटने से पहले रणथंभोर पर आक्रमण किया। सेना एकत्रित की और उल्लूखान जब हिन्दूवाट पहुंचा तो हम्मीर के रणथंभोर को जा घेरा। सेनानियों ने आठ ओर से उस पर आक्रमण किया, मोल्हउ भाट के मुख से पूर्व से वीरम ने, पश्चिम से महिमासाहि ने, जाजदेव की हुई देवलदेवी, गढ़, ने दक्षिण से, उत्तर से गर्भरुक ने, आग्नेय दिशा से हाथी आदि की मांग रतिपाल ने, वायव्य से तिचर ने, ईशान से रणमल्ल हम्मीर ने ठुकरा दी। ने और नैर्ऋत से वैचर ने। मुसल्मानी सेना बुरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) महिमासाहि और हम्मीर तरह पराजित हुई और उल्लूखान जान लेकर भागा। के राजपूतों ने मुसलमानी रतिपाल ने बन्दी मुसल्मानी स्त्रियों से गांव-गांव में सैन्य को रौंद डाला और निसरखान को मार छाछ निकवाई। राजा ने रतिपाल को खूब पुरस्कृत डाला। (८४-१७३) किया (१०-१-६३) ४ अब सब प्रान्तों इसी समय हम्मीर से आज्ञा प्राप्त कर महिमासाहि और देशों की फौज लेकर अलाउद्दीन ने आक्रमण आदि ने भोज की जागीर पर आक्रमण किया किया। हम्मीर ने भी और उसके भाई को सकुटुम्ब पकड़ कर ले आए। इस अवसर पर छत्तीस एक तर्फ से रोता धोता मोजदेव और दूसरी ओर से कुलके राजपूतों को पराजित उल्लूखान अलाउद्दीन के दरबार में पहुँचा। बुलाया। युद्ध आरम्भ अलाउद्दीन ने हम्मीर का समूल उच्छेद करने का हुआ, बादशाह उसे एक निश्चय किया और राज्य के प्रत्येक प्रान्त से सेनाएँ ओर खड़ा देखता। बादशाही सेना हारी। बहुत मंगाई (१०-६४-८८) सुल्तान के माई उल्लूखान और से मीर और मलिक मारे . निसुरत्तखान ने हम्मीर को पराजित करने के लिए गए। खबर लेने पर प्रयाण किया। दरों को पार करना कठिन था इसलिए मालूम हुआ कि सवा दोनों भाइयों ने सन्धि-मन्त्रणा के बहाने मोल्हण लाख आदमी समाप्त को हम्मीर के पास भेजा, और छल से दर्रे में प्रवेश हुए हैं। (१७४-१९२) कर मुण्डी, प्रतौली और श्री मण्डपदुर्ग एवं जैत्रसर आदि के चारों ओर अपनी सेना के पड़ाव डाल दिए (११-१-२४) __ मोल्हण यथा तथा दरबार में पहुँचा, और उसने हम्मीर से लाख स्वर्णमुद्राओं चार हाथियों, तीन सौ घोड़ों और राजकन्या की मांग की। विशेषतः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) मांग चार मुगलों की थी जिन्होंने उन भाइयों की आज्ञा भंग की थी (११,५९-६०)। हम्मीर ने उसे धमकाते हुए कहा, यदि तुम दृत रूप में न आये होते तो मैं तुम्हारी जीम निकलवा डालता। जिस तरह हाथी आदि के जीवित रहते कोई हाथी के दाँत, सर्प की मणि और सिंह की केसर-पंक्ति को नहीं ले सकता, इसी तरह चौहान के धन को उसके जीते कोई ग्रहण नहीं कर सकता। शरणागत शत्रुओं की सामान्य पुरुष भी रक्षा करते हैं। मुझ से मुगलों को मांगने वाले तुम्हारे स्वामी तो सर्वथा मूर्ख होंगे। मैं एक विस्वे के शतांश को भी देने के लिए तैयार नहीं हूं। जो तुम्हारे स्वामी से बन पड़े, वह करे (११-२५-६८) हम्मीर ने उसके बाद पूरी तैयारी की मुसलमान सेनापतियों के दुर्ग-ग्रहण के अनेक प्रयत्नों को उसने विफल किया। एक दिन युद्ध में दुर्ग से चलाया हुआ एक गोला शत्रु के गोले से भिड़कर उछला और उससे निसुरत्तिखान मारा गया । (११-६९-९९) निसुरत्तिखान का अन्तकृत्य कर इस बार अलाउद्दीन स्वयं रणथंभोर पहुँचा | प्रातःकाल होते ही हम्मीर ने आक्रमण किया। दिन भर घोर युद्ध हुआ। इसी प्रकार दूसरा दिन मी भयंकर युद्ध में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) बीता। इस युद्ध में मुसलमानी फौज के ८५,००० योद्धा काम आए। (१२-१-८९) ... ५. एक दिन हम्मीर ५. एक दिन हम्मीर की मजलिस जमी थी। सिंहासन पर बैठा था। गाना हो रहा था। उसी समय सुन्दरी धारादेवी उसके आदेश से महिमासाहि ने अलाउद्दीन के नर्तकी ने वहां आकर नृत्य शुरू किया। मयूरासन - सातों छत्र काट डाले। बन्ध से नृत्य करते हुए उसने ताल-त्रुटि के समय सुल्तान ने लकड़ों से खाई सुल्तान को पश्चाद्-भाग दिखाया। इससे खिन्न को भरने का यत्न किया। होकर अलाउद्दीन ने कहा, "क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जब हम्मीर के सैनिकों ने जो इसे बाण से मार गिराए। सुल्तान के भाई ने लकड़ियाँ जलादी तो उत्तर दिया, 'तुमने उड्डानसिंह को कैद में डाल रखा सुल्तान ने बालू से खाइ को भर कर गढ लेने का है। वही यह काम कर सकता है।' बादशाह ने प्रयत्न किया। किन्तु गढ़ उखानसिंह की बेड़ियाँ कटवा दी और उस पर कृपा के अधिष्ठातृ देव की माया दिखाई। उस दुष्ट ने बाण से धारा को मार कर से ऐसा पानी आया कि दुर्ग की उपत्यका में गिरा दिया। महिमासाहि ने बालू बह गई। (१९३-२०२) बादशाह को मारना चाहा, किन्तु हम्मीर के मना ... हम्मीर के सामने करने पर उसने उड्डानसिंह को ही मारा। उसके धारू और वारू नत, विनाश से चकित होकर अलाउद्दीन ने अपना डेरा कियां सुल्तान को पीठ तालाब के दूसरी ओर कर दिया । (१३-१-३८) दिखाकर नाचती थी। सुल्तान ने खाई को पूलियों, उपलों, और लकसुल्तान ने बन्धनमुक्त महिमासाहि के चाचा ड़ियों के टुकड़ों से मरवा दिया और एक और गढ़ द्वारा उन्हें एक बाण में के निकट सुरंग पहुंचा दी। किन्तु हम्मीर ने खाई ही मरवा डाला। सामान को अग्नि के गोलों से और सुरंग के आदमियों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) बारह वर्ष तक इस को लाख के तेल से जला दिया। इस प्रकार से उसने तरह युद्ध चला (पद्य २१२) बादशाह के अनेक उपायों को व्यर्थ किया। (२०३-२१२) (१३-३९-४८) ६. दिल्ली से वापिस ६. वर्षा आ गई। यथा तथा संधान की इच्छा आने की अर्ज होने लगी। से अलाउद्दीन ने दूतों द्वारा रतिपाल को बुलाया। तब बादशाइ ने हम्मीर को कहला कर भेजा, उसे खूब प्रसन्न किया ! और उसके सामने अंचल "बारह वर्ष युद्ध की सीमा पसार कर कहने लगा, “मैं उस दुर्ग को लिए बिना है। हम पर्याप्त रण-क्रीड़ा - गया तो मेरी सब कीति लुप्त हो जाएगी। किन्तु कर चुके हैं। अब मुझे बिदा दो। मैं तो तुम्हारा मेरे सौभाग्य से तुम आ गए हो। मैं तो केवल मेहमान हूँ।" लोगों की विजय का इच्छुक हूँ। यह राज्य तो तुम्हारा ही सलाह से हम्मीर ने अपने दो अत्यन्त विश्वस्त होगा।” सुल्तान ने उसे खूब मदिरा पिलाई । प्रधानों को बात चीत के बादशाह को वचन देकर रतिपाल वापस लौटा । लिए भेजा। बादशाह ने (१३-४९-८२) उन्हें खुब मान दिया। उन्हें पूरी बून्दी और कुछ अन्य ग्रास का भी आश्वासन देकर बादशाह ने उन्हें अपनी ओर मिला लिया (२१३-२३०) ७. जब हम्मीर ने ७. रणथंभोर लौट कर रतिपाल ने राजा को पूछा तो मन आई बात भड़काते हुए कहा, “अलाउद्दीन कहता है कि वह मूर्ख बना दी कि बादशाह तो अपनी लड़की को न देगा तो मैं उसकी स्त्रियों को Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवलदे को मांगता है। भी छीन लँगा। इस पर मैं उसे भर्त्सना दे कर मैं देवलदे ने कहा, "मुझे चला आयो हूँ। रणमल्ल आप से नाराज है। इसलिए देकर तुम अपने को पाँच सात आदमी ले जा कर आप उसे राजी कर बचाओ। समझ लेना कि मैं पैदा ही नहीं हुई, या लें।" जब बीरम के पास हो कर रतिपाल निकला छोटी अवस्था में ही मर तो शराब की गंध से उसने अनुमान कर लिया कि गई। किन्तु इम्मीर ने रतिपाल शत्रु से मिल गया है। किन्तु राजा ने इस बात पर ध्यान न रतिपाल के विरुद्ध कार्य करना उचित न समझा। दिया। (२३१-२३३) उधर रानियों के कहने से देवलदेवी पिता के पास पहुँची और अनेक नीतियुत वाक्यों से उसे अपने प्रदान के लिए समझाया। किन्तु इससे प्रसन्न होने के स्थान पर हम्मीर अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। उसने पुत्री की बातों का समाधान कर उसे वापस अपने स्थान पर भेज दिया। (१३-८४-१२९) ८. कोठारी से मिल ८. उधर रतिपाल ने रणमल्ल के पास जाकर कर उन्होंने सब धान दूर कहा, माई ! यहाँ से भागो। राजा तुम्हें पकड़ने आ गिरवा दिया। उससे रहा है। तुम्हें अभी विश्वास न हो तो सायंकाल के कहा, हमें पूरी बूंदी मिली समय जब वह पाँच सात आदमियों के साथ आए तो है हम तुझे प्रधान बनाएंगे। फिर रिणमल मेरा वचन सत्य मान लेना।" राजा को उसी तरह और रउपाल ने हम्मीर से आता देख रणमल्ल गढ़ से उतर कर शत्रु से जा सेना मांगी। उन्होंने कहा, को मिला। उनकी दुश्चेष्टा से खिन्न होकर जब राजा कि शत्रु कमजोर · पड़ ने कोठारी जाहड से अन्न के बारे में पूछा तो सन्धि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) जाएगा।” संशय रहित की इच्छा से उसने कहा कि अन्न है ही नहीं । राजा ने उन्हें सब सेना (१३०-१३०-३७) दी। वे बादशाह से जा मिले । गढ़ में कोई ऐसा व्यक्ति न रहा जिसके हाथ में हम्मीर हथियार दे। (२३४-२४०) . ९. हम्मीर ने शेष ९. इस सार्वत्रिक कृतघ्नता से खिन्न होकर लोगों को बुलाया और कहा, “मैं तुम्हारा ठाकुर उसने महिमासाहि को बुलाया और कहा, तुम विदेशी हूँ, तुम मेरी प्रजा। कहो हो। तुम्हारा यहाँ रहना उचित नहीं है। जहाँ कहो मैं तुम्हें कहाँ पहुंचाऊँ ?" मैं तुम्हें पहुँचा दूं। हम तो क्षत्रिय हैं। अपनी किन्तु वे जाने को राजी न हुए। उसने जाजा से जमीन के लिए प्राणों की आहुति देना हमारा तो धर्म कहा, 'जाजा तुम जाओ। है।' इन वचनों से मर्माहत होकर महिमासाहि घर तुम परदेशी पाहुणे हो।' पहुँचा और स्त्री, बालकादि सब को तलवार की धार कहते इन्कार किया कि उतार कर हम्मीर से कहने लगा, "तुम्हारी भाभी ऐसे समय में वही लोग जाने से पर्व एकबार तम्हारे दर्शन करना चाहती है।" जाएंगे जो ऐसे वैसे व्यक्तियों की सन्तान है। राजा वहाँ पहुँचा और घर के उस वीभत्स दृश्य को दोनों मीरों ने तो यह भी देख कर मूर्छित हो गया। सचेतन होते ही महिमाकहा कि वह उनका ___ साहि के गले लग कर अपने को धिक्कारता हुआ वह समर्पण कर दुर्ग का उद्धार करे। किन्तु हम्मीर इसके विलाप करने लगा। . (१३८-१६६) लिए तैयार न हुआ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) दुर्ग रक्षा का फिर विचार होने लगा। किन्तु हम्मीर ने जब कोठारी से धान्य के बारे में पूछा तो उसने जा कर खाली कोठे दिखा दिए (२४१-२५५) १०. राजा ने अब १०. वहाँ से लौट कर जब उसने कोष्ठागार को जमहर (जौहर) करने का देखा तो उसमें उसे अन्न से परिपूर्ण पाया। जाहड़ ने निश्चय किया। वीरमदे से उसने जाने के लिए झूठ बोलने का कारण भी बताया। "तेरी बुद्धि पर कहा; किन्तु वह राजी न बज्र पड़े", कहते हुए राजा ने बाहर जाने के इच्छुक हुआ। तब उसने कुमार नागरिकों के लिए मुक्ति द्वार खोल दिया और बाकी को तिलक दिया, उचित को जौहर की आज्ञा दी। स्वयं दानादि दे और शिक्षा दी, और उसकी मां भगवान् जनार्दन की अर्चना कर वह पद्मसर के किनारे के साथ उसे वहाँ से निकाल दिया। हाथियों पर बैठ गया। रंगदेवी आदि रानियों ने अपने को और घोड़ों को हम्मीर के सुभूषित किया। राजा ने संतुष्ट हो कर अपनी अनुयायियों ने मार डाला। केशपट्टिका काट कर उन्हें दी। फिर देवलदेवी को घर घर में लोगों ने गले लगा कर वह रो पड़ा। रानियां हम्मीर की जमहर किए। तमाम केशपटिका हृदय पर रख कर अग्नि में प्रवेश कर गई। रणथंभोर ऐसा जला उन्हें अन्याञ्जलि देकर राजा ने जब जाजा को भेजा मानों हनुमान् ने लंका में अग्नि लगाई हो। तो वह नौ हाथियों के सिर काट कर राजा के पास पहुंचा और कहने लगा, जिस प्रकार रावण ने शिव फिर कोठे देखे तो उन्हे की अर्चना की थी, वैसे ही मैं तुम्हारी अर्चना करता धान्य से परिपूर्ण पाया। हूँ। ये नौ सिर है, और दसर्वां सिर मेरा होगा।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाजा वीरमदे और दोनों वीरम ने राज्य को तिरस्कृत कर दिया, तब राजा मीर गढ़ की रक्षा के लिए प्रसन्नता पर्वक जाजदेव को राज्य दिया, और तैयार थे, किन्तु हम्मीर ने कहा, "अब अनर्थ हो स्वप्नागत पद्मसर के आदेशानुसार उसने सब द्रव्य चुका है। अब जीने से पद्मसर में डाल दिया। फिर हम्मीर की आज्ञा से क्या लाभ ?" बीरम ने छाहड़ का सिर काट डाला (१३-१६९-१९२) (२५६-२७७) ११. गढ़ मे केवल ११. वीरम, सिंह, टाक, गङ्गाधर, चारां मुगल ये रहे-वीरमदे, हम्मीरदे, बन्धु और क्षेत्रसिंह परमार इन वीरों के साथ हम्मीर मीर ( गाभरू ), महिमा- युद्ध में उतरा । पहले वीरम काम आया। फिर शत्र बाणों से महिमासाहि को मूच्छित देख कर हम्मीर साहि, माट और पाहुणा आगे बढ़ा और अनेक शत्रुओं का वध कर स्वयं अपने जाजा । हम्मीर घोड़े पर हाथ से ही मरा। उसके लिये यह असह्य था कि शत्रु चढ़ा, किन्तु वीरम को उसे जीता पकड़ें। युद्ध की तिथि श्रावण शुक्ल षष्ठी पैदल देख कर घोड़े से रविवार था। (१३-१९२-२२५) उतर पड़ा और घोड़े को सूर वंशी रतिपाल को और रणमल्ल को धिकार है। अभिनंद्य वह जाजा है जिसने हम्मीर की मृत्यु अपने हाथ से मार डाला। के बाद भी दो दिन तक दुर्ग की रक्षा की। दो न न दोनों मीर, फिर जाजा, कहने से हां का अर्थ बनता है यह सोचकर जिसने उसके बाद बीरम ने युद्ध __हम्मीर के “जा, जा" का अर्थ 'ठहर जा' किया और किया हम्मीर ने स्वयं स्वामि की आज्ञा का मङ्ग किए बिना उसकी सेवा की अपने हाथों गला काट वह जाजा चिरजयी हो। अहकार निकेतन उस महिमासाहि का वर्णन तो क्या किया जाए जिसने कर अपनी इह लीला प्राणान्त पर भी शत्रु के सामने सिर न झुकाया। समाप्त की। उस वीर महिमासाहि की बराबरी कौन कर सकता संवत् १३७१ ज्येष्ठ है जो पकड़े जाने पर पैर को आगे दिखाता हुना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) भष्टमी शनिवार के दिन अलाउद्दीन की सभा में घुसा, और जिसने यह पूछने हम्मीर काम आया और पर कि यदि में तुम्हें जीवित छोड़ दूं तो तुम मेरे गढ़ टूटा । (२७८-२९४) लिए क्या करोगे, यह उत्तर दिया, 'वही जो तुमने हम्मीर के लिए किया है।' (१४-१-२०) १२. युद्ध के बाद अलाउद्दीन रण- १२. पूछने पर जिसने रणक्षेत्र में क्षेत्र में आया। जब उसने हम्मीर के पड़े हम्मीर के सिर को पैर से दिखाया, विषय में पूछा तो रणमल ने पैर से उसे और पूछने पर राजा से प्राप्त कृपाओं दिखाया । इतने में माट नल्ह ने हम्मीर का भी वर्णन किया, उस रतिपाल की की विरुदावली पढ़ी और बादशाह को अलाउद्दीन ने जो खाल निकलवा डाली सब सिर दिखाए-जाजा का जिसने वह ठीक ही किया। (इससे मानों उसने जलहरी रूपी रणथंभोर में स्थित अपने यह उपदेश दिया कि) कोई स्वामिद्रोह स्वामीरूपी महादेव की अपने सिर से न करे । (१४-२१) पूजा की थी, वीरम का गाभरू और महिमासाहि का और हम्मीर का भी। जब बादशाह ने उसे वर देना चाहा तो उसने यही प्रार्थना की कि स्वामिद्रोही रतिपाल आदि को प्राण-दण्ड दिया जाए और उसके बाद उसकी भी इहलीला समाप्त की जाए। बादशाह ने रायपाल, रणमल, और बनिए की खाल निकलवा कर भाट को प्रसन्न किया। भाट का हनन कर उसने उसकी इच्छा पूर्ति भी की। राजा, मीर आदि की उसने उचित अन्य-क्रिया की । (२९५-३२३) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य कथाओं में सत्यासत्य का विवेचन हम ऊपर हम्मीरायण का सार दे चुके हैं । किन्तु तुलनात्मक दृष्टि से विषय के अध्ययन के लिए कोष्टकों में किसी अंश में उसकी पुनरावृत्ति आवश्यक हुई है। उन्हें देखने से यह स्पष्ट है कि हम्मीरायण और हम्मीरमहाकाव्य की कथाओं में पर्याप्त समानता है। हम्मीरमहाकाव्य के अनुसार हम्मीर की मृत्यु के बाद कवियों ने हम्मीर विषयक अनेक छोटी मोटी रचनाएं की । शायद यही रचनाएं हमारे काव्यों की मूलस्रोत हो । किन्तु यह भी असम्भव नहीं है कि 'भाण्डउ' व्यास ने हम्मीरमहाकाव्य को सुना और उसका कुछ आश्रय भी लिया हो। विशेषतः कथाओं का अन्तर विवेच्य है। जहाँ दोनों कथाओं में भिन्नता है, उसमें कौन ग्राह्य है और कौन अग्राह्य ? न केवल यह कहना पर्याप्त है कि यह कथा कल्पित प्रतीत होती है, या 'यह अधिक प्रमाणिक है कयोंकि इसमें अधिक विस्तार नहीं है'। और न हम पारस्परिक कथाओं को केवल अन्य कथाओं के मौन के आधार पर ही एकान्ततः तिलांजलि दे सकते हैं । जो बात हमें एक स्थान पर न मिली है वह शायद अन्यत्र मिल सके । समसामयिक आप्त ग्रंथों और अभिलेखों के विरुद्ध जानेवाली परम्परा का हमें अवश्य त्याग करना पड़ता है। किन्तु वहाँ भी आप्तता आवश्यक है । पूर्वाग्रह वहाँ भी हो सकता है । मुसलमान इतिहासकार यदि हिन्दू राजा के विषय में कुछ लिखें या चारण और भाट किसी सुल्तान, अमीर आदि के विषय में तो दोनों के लेखों की कुछ परीक्षा करनी पड़ती है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए हम अभिलेखों, खजाईनुल फुतूह, तारीखे फिरोजसाही, फुतू हुस्सलातीन, तारीखे फरिश्ता आदि तवारीखों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और चारणी साहित्य की अनेक पुस्तकों का विषय विवेचन में यथासमय प्रयोग करेंगे। हम्मीरायण में हम्मीर के पिता का नाम जयतिगदे दिया है और हम्मीर महाकाव्य ने जैत्रसिंह । हम्मीर के वि० १३४५ के शिलालेख में जैत्रसिंह नाम ही है; किन्तु यह सम्भव है कि बोलचाल की भाषा में जैत्र सिंह का नाम जैतिग ही रहा हो। हम्मीरायण ने युद्ध का केवल मात्र यही कारण दिया है कि हम्मीर ने विद्रोही मुगल सरदार महिमाशाहि और गर्भरूक को शरण दी थी। हम्मीरमहाकाव्य को भी यह कारण अज्ञात नहीं है। किन्तु उसने मुख्यता अन्य राजनैतिक कारणों को दी है । एक देश में दो दिग्विजयी नहीं हो सकते। अलाउद्दीन को यह बात खलती थी कि रणथंभोर उसे कर नहीं दे रहा था; वही रणथंभोर जो किसी समय दिल्ली के अधीन था उधर हम्मीर कोटिमखी था ; उसे अपने बल का गर्व था। भोज के प्रतिशोध की कथा बाद में आती है उससे काव्य में रोचकता अवश्य बढ़ी है; किन्तु यह समझना भूल होगा कि हम्मीरमहाकाव्य ने उसे प्रमुखता दी है। वास्तव में उसका दृष्टिकोण प्रायः वही है जो तारीख फिरोजशाहो का । उसे भी मुहम्मदशाह की कथा ज्ञात थी, तो मी प्रमुखता उसने अल्लाउद्दीन की दिग् जिगीषा को ही दी है । और वास्तव में यह बात है भी ठीक । इन दोनों उच्चाभिलाषी व्यक्तियों में युद्ध अवश्यम्भावी था चाहे मुहम्मदशाह हम्मीर के दरबार में शरण ग्रहण करता या न करता। उत्तर के अन्य राज्यों में कौन मुहम्मदशाह पहुँचे थे जो अलाउद्दीन ने उनपर आक्रमण किया ? विरोधाग्नि तो अल्लाउद्दीन के समय से पहले ही ज्वलित हो चुकी थी। उसमें मुहम्मदशाह को दारणदान ने एक प्रबल आहुनि देकर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) पूर्णतः प्रज्वलित कर दिया । इसके अतिरिक्त अन्य घटनाएँ भी हुई जिनसे भल्लाउद्दीन को रणथम्भोर लेने के लिए और भी दृढ़प्रतिज्ञ होना पडा । अतः विवेचना से सिद्ध है कि युद्ध के कारण दोनों काव्यों में ठीक हैं । किन्तु इम्मोरायण ने केवल तात्कालिक कारण देकर सन्तोष किया है । हम्मीरमहाकाव्य की दृष्टि और कुछ गहराई तक पहुंची है' । युद्ध की घटनाओं के वर्णन में कुछ अन्तर है किन्तु मुसलमानी तवा - रीखों को पढ़ने से प्रतीत होता है कि हम्मीरमहाकाव्य ने जलालुद्दीन के समय की कुछ घटनाएं सम्मिलित की हैं। भीमसिंह की मृत्यु और धर्मसिंह का अन्धीकरण शायद सन् १२९१ के लगभग हुए हों । धर्म सिंह पर पुनः कृपा सन् १२९१ और १२९८ के बीच में हुई होगी। हम्मीरायण आदि में इन घटनाओं का अभाव सम्भवतः इनके सन् १२९८ के पूर्व होने के कारण है । किन्तु भोजादि की कथाएं कल्पित नहीं है । खांडावर या खङ्गधर भोज भारतीय ऐतिह्य का प्रसिद्ध व्यक्ति है । उसने तन मन से अल्लाउद्दीन की 1 सेवा की और वह अन्ततः कान्हडदे और सातल के विरुद्ध युद्ध करता हुआ मारा गया । यही मोज सम्भवतः खेम के पन्द्रहवें कवित्त का भोज है; और यह भी बहुल सम्भव है कि मल्ल के दशर्वे पद्य में भी ( जिसके आधार पर खेम का पन्द्रहवां पद्य लिखा गया है ) भोज का नाम रहा हो । श्री १ - अलाउद्दीन की नीति के लिए देखें तारीखे फिरोजसाही, जिल्द ३, पृष्ट १४८ ( इलियट और डाउसन का अनुवाद ); आगे दिए हुए मुस्लिम तवारीखों के अवतरण, "अर्ली चौहान डाइनेस्टीज” पृ. १०८, १०९ और प्रस्तावना के अन्त में प्रदत्त हम्मीर की जीवनी | २ - देखें महभारती, भाग ८, पृ. ११३ ११४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) अगरचन्दजी को प्राप्त प्रति में यह कवित्त त्रुटित है। भोज का भाई पीथम या पृथ्वीसिंह इसी तरह मल्ल के कवित्त ९ का 'प्रीथीराज हो सकता है जिसके रणथम्भोर से प्रयाण और बादशाह से मिलने का स्पष्ट निर्देश, "प्रिथीराज परवाण कियौ, पतिसाहां भेलो" शब्दों में है। ११ वें पद्य में फिर यही 'पीथल' के रूप में वर्तमान है । इसलिए यदि हम्मीरमहाकाव्य की प्रामाणिकता के लिए भोजादि व्यक्तियों का 'कवित्तादि' में निर्देश अमीष्ट हो, नो वह निर्देश भी वर्तमान है। ___ धर्मसिंह की कथा को कल्पित क्यों माना जाय ? उसमें न असंगति है और न अलौकिकता। विद्यापति आदि ने उसका नाम न लिया है तो उसके अनेक कारण हैं। उनकी कथा अत्यन्त संक्षिप्त है। वह उन अमात्यों में भी न था जो भागकर अलाउद्दीन से जा मिले थे। वह हम्मीर के पतन का कारण बनता है; किन्तु केवल ऐसे रूप में जिसका अनुमान मात्र किया जा सकता है। ठोक पीट कर देखने से मालूम पड़ता है कि नयचन्द्र को नाम घड़ने की आदत न थी और उसे इतिहास की अच्छी जानकारी थी। और तो क्या उसकी तिथियाँ तक ठीक हैं। नयचन्द्र ने रणथम्भोर पर अलाउद्दीन के आक्रमण का कारण उसकी दिग्जिगीषा, और रणथम्भोर के पतन का कारण मुख्यतः हम्मीर की गलत आर्थिक नीति को समझा है । नयचन्द्र ने वास्तव में जिस रूप से कथा को प्रस्तुत किया वह उसे काव्यकार के ही नहीं, इतिहासकार के पद पर भी आरूढ़ करता है। अलाउद्दीन से विग्रह बन्ध चुका था। बहुत बड़ी सेना, विशेषतः घुड़सवारों को रखना आवश्यक था। अतः धर्मसिंह को अपना अर्थ-सचिव बनाकर उसने प्रजा पर खूब कर लगाए। यह आर्थिक उत्पीड़न हम्मीर के पतन का मुख्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) कारण बना। यही तथ्य हम्मीरायण के कर्ता 'माण्डउ' को भी ज्ञात था। हम्मीरायण के महाजन भी सैनिक व्यय के विरुद्ध आवाज उठाते हैं; किन्तु सब व्यय के विरुद्ध नहीं, अपितु उस व्यय के जो मीर भाइयों के वेतन के कारण उन पर लद गया था।' ____ हम्मीर महाकाव्य और हम्मीरायण दोनों ही जाजा को प्रमुखता देते हैं, किन्तु दोनों के स्वरूप में कुछ अन्तर है। हम्मीरायण का जाजा पाहुणा है। वह घोड़े बेचने निकला है, और दैववशात् उसी स्थान पर पहुंच जाता है जो उलूखाँ ने घेरा है । उसके सवार मुस्लिम सेना विनाश करते हैं और वह उलूनखां के आने की सूचना रणथम्भोर पहुंचाता है । हम्मीर उसे बहुत धन देता है। जब उलूगखां हीरापुरघाट होकर छाइणी (झाईन ) नगर को जलाकर उसके राज्य स्थान को ढहाकर बढ़ता है और हम्मीर, महिमासाहि और गाभरू को साथ लेकर रात के समय मुसलमानी सैन्य पर आक्रमण करता है, हम्मीरायण के जाजा का इसमें कुछ विशेष हाथ नहीं है। हम्मीर महाकाव्य में जाजा हम्मीर के वीर सेनानी के रूप में वर्तमान है। वह हम्मीर के आठ प्रधान वीरों में एक है। वह उन सेनानियों में से १ मुसल्मानी तवारीखों में धर्मसिंह का नाम नहीं है। किन्तु उन्होंने दिल्ली सल्तनत का इतिहास लिखा न कि हम्मीर के राज्य का। अन्य बातों में भी हिन्दू साधनों पर अनैतिहासिकता का आक्षेप करते समय लेखकों को मुसलमानी इतिहासों की अपूर्णता और उनके पूर्वाग्रहों का भी ध्यान रखना चाहिए। उनमें परस्पर विरोध भी पर्याप्त हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) जिन्होंने अलाउद्दीन के प्रसिद्ध सेनापति उलूनखां के छक्के छुड़ा दिएहै थे। हम्मीर शम्भु तो जाजा उसके लिए सिर अर्पण करने के लिए समुद्यत रावण है।' जाजा वह वीर है जो अन्तिम गढ़रोध में अभिषिक्त होकर स्वामी की मृत्यु के बाद भी ढाई दिन तक गढ़ की रक्षा करता है । वह जाति से 'चौहान' है। ___हम्मीरायण ने भी आगे जाकर जाजा के शौर्य की पर्याप्त प्रशंसा की है। उसमें भी एक स्थान पर रणथम्भोर को जलहरी, हम्मीर को शम्भु जाजा को सिर प्रदान करनेवाले भक्त से उपमित किया गया है ( ३०५) किन्तु उसके कुछ कथन हम्मीर महाकाव्य के विरुद्ध पड़ते हैं। वह सर्वत्र प्राहुणे के रूप में वर्णित है। वह देवड़ा भी है जो चौहानों की शाखा विशेष है। देवड़े चौहान हैं; किन्तु उन्हें देवड़ा कहकर ही प्रायः सम्बोधित और वर्णित किया जाता है। इससे अधिक खटकनेवाली बात यह है कि वह विदेशी के रूप में वर्णित है : जाजा तुं घरि जाह, तुं परदेसी प्राहुणउ । म्हे रहीया गढ़ मांहि, गढ गाढउ मेल्हां नहीं ॥ २४७ ॥ हम्मीर गढ़ में रहेगा; वह उसकी चीज है, उस द्वारा रक्ष्य है। किन्तु जाजा परदेशी अतिथि है। उसे गढ़ की रक्षा में प्राणोत्सर्ग करने की आवश्यकता नहीं । वह अपने घर जाए तो इसमें कोई दोष नहीं। यही बात सामान्यतः परिवर्तित शब्दों में कवित्त रणथंभोर रै राणे हमीर हठाले रा' में भी वर्तमान है (पृ. ४९, दोहा १-२ )। किन्तु उसका कर्ता कवि मल्ल 'माण्डउ' से एक कदम और आगे बढ़ गया है। उसने जाजा को बड़ १ रावणः शम्भुमानर्च तथा त्वामर्चयाम्यहम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूजर बना दिया है (पृ. ४४, पद्य २)। इससे अधिक कथा का विकास 'भाट खेम रचित राजा हम्मीरदे कवित्त' में है जिसके अनुसार 'जाजा बड़ गूजर प्राहुणा ( मेहमान ) होकर आया था। उसे राजा हमीर ने अपनी बेटी देवलदे विवाही थी। वह मुकुटबद्ध ही मरा। देवलदे राणी तालाब में डूब कर मर गई' ( देखें 'बात', पृ. ६४) किन्तु जाजा-विषयक प्राचीन सूचनाओं में तो उसका परदेशित्व आदि कहीं सूचित नहीं होता। प्राकृतपैङ्गलम् के अन्तर्गत जाजा-सम्बन्धी पद्यों में हम्मीर उसका स्वामी है (पृ. ३९, पद्य ३ ), और वह उसका अनुयायी मन्त्रि-वर है' (पृ० ४०, पद्य ४ ) वह प्राहुणा नहीं, हम्मीर का विश्वस्त योद्धा है । 'पुरुष परीक्षा में भी हम्मोर जाजा को चला जाने के लिए कहता है, किन्तु इसका कारण जाजा का विदेशित्व नहीं है ( देखें परिशिष्ट ३, पृ० ५४ )। हम्मीर विषयक प्राचीन प्रबन्धों में विदेशित्व तो महिमासाहि भादि तक ही परिमित है। हम्मीर महाकाव्य में हम्मीर महिमासाहि से कहता है : प्राणानपि मुमुक्षामो वयमात्मक्षितेः किल । क्षत्रियाणामयं धर्मों न युगान्तेऽपि नश्वरः ॥ १४९ ॥ यूयं वैदेशिकास्तद्वः स्थातुं युक्त न सापदि । यियासा यत्र कुत्रापि व्रत तत्र नयामि यत् ॥ १५१ ॥ १ पुर जज्जला मंतिवर, चलिअ वीर हम्मीर ॥ डा० माताप्रसाद गुप्त 'मल्ल' पाठ को विशेष उपयुक्त समझते हैं । इस पाठ पर हम अन्यत्र विचार करेंगे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) "हम अपनी भूमि के लिए प्राण त्याग के लिए भी इच्छुक रहते हैं। यह क्षत्रियों का वह धर्म है जो प्रलयकाल में भी प्रलुप्त नहीं होता। तुम विदेशी हो, इसलिए आपत्तियुक्त इस स्थान में तुम्हारा रहना उचित नहीं है। जहाँ कहीं जाने की इच्छा हो, कहो मैं तुम्हें वहां पहुंचा दूं।" पुरुष परीक्षा का कथन और भी ध्येय है। जब हम्मीर जाजादि से चले जाने के लिए कहता है तो वे उत्तर देते हैं : "आप निरपराध राजा ( होते हुए भी) शरणागत पर कृपाकर संग्राम में मरण को अङ्गीकृत करते हैं। हम आपकी दी हुई आजीविका खानेवाले हैं। अब स्वामी आपको छोड़कर हम कैसे कापुरुषों की तरह आचरण करें। किन्तु कल सुबह महाराज के शत्रु को मारकर स्वामी के मनोरथ को पूर्ण करेंगे। हाँ, इस बिचारे यवन को भेज दीजिए।" यवन ने कहा, "हे देव ! केवल एक विदेशी की रक्षा के लिए आप अपने पुत्र, स्त्री और राज्य को क्यों नष्ट कर रहे हैं। राजाने कहा, 'यवन, ऐसा मत कहो। किन्तु यदि तुम किसी स्थान को निर्भय समझो तो मैं तुम्हें वहाँ पहुँचा दूं।" (परिशिष्ट ३, पृ० ५४)। उक्ति-प्रत्युक्ति से स्पष्ट है कि हम्मीर के योद्धा-समाज में केवल एक विदेशी है, और वह जाजा नहीं, अपितु महिमासाहि है। 'भाण्डउ' ने न जाने क्यों जाजा पर विदेशित्व का ही आरोपण नहीं किया, अपितु महिमासाहि के लिए प्रयुक्त युक्तियों को भी जाजा के लिए प्रयुक्त किया है। महिमासाहि को जो वचन हम्मीर ने कहे थे उन्हें हम अभी उद्धृत कर चुके हैं। मांडउ की कृति में हम्मीर प्रायः वही शब्द जाजा से कहता है :- . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) जाजा तुं धरि जाह, तुं परदेसि प्राहुणउ । म्हे रहीया गढ़ माहि, गढ गाढउ मेल्हां नहीं ॥ एक उक्ति मानो दूसरे का भावानुवाद है। जाजा के विदेशित्व के स्वीकृत होने पर कथा जिस रूप में बढ़ी हम ऊपर उसका निर्देश कर चुके हैं। प्रसङ्गवश जाजा के विषय में इतना लिख कर हम फिर इन दोनों काव्यों में वर्णित घटनावली पर विचार करेंगे। यह सर्वसम्मत है कि अलाउद्दीन स्वयं रणथंभोर के घेरे के लिए पहुंचा। किन्तु हम्मीरायण में हम्मीर के रात्रि के आक्रमण के अनन्तर ही सुल्तान रणथंभोर आ पहुंचता है। हम्मीर महाकाव्य का घटना क्रम कुछ भिन्न है। उलुगखां की पराजय के बाद मीर भाइयों ने भोज की जगरा पर आक्रमण किया। भोज वहाँ न था। किन्तु उसका भाई और दूसरे कुटुम्बी मुहम्मदशाह के हाथ पड़े। भोज ने जाकर अलाउद्दीन के दरबार में पुकार की। किन्तु इस बार भी अलाउद्दीन स्वयं न आया। उसने उल्लू और निसुरत्तखान ( उल्लूगखां और नुसरतखाँ ) को ही युद्ध के लिए भेजा। सन्धि का बहाना कर अब की बार ये घाटी को पार कर गए । मुण्डी और प्रतौली में नुसरतखाँ और मण्डप १. जज्जल के महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व पर इमने आज से बारह वर्ष पूर्व इण्डियन हिस्टॉरिकल क्वार्टरली, १९४९, पृष्ठ २९२-२९५ पर एक लेख प्रकाशित किया था। डॉ० हजारीप्रसादजी द्विवेदी की 'हिन्दी साहित्य के आदिकाल' की 'आलोचना' में आलोचना करते समय भी हमने यह भी सिद्ध किया था कि प्राकृत गिल का जज्जल कवि नहीं अपितु हम्मीर का सेनापति जाजा है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) हम्मीरायण में अला मैं उल्लू खाँ की सेना जा पहुँची; और वहीं से उन्होंने मोल्हण को अपना - दूत बनाकर हम्मीर के पास भेजा । हम्मीरायण में स्वयं अलाउद्दीन मोल्हा - को भेजता है । मुसलमानी तवारीख फुतू हुस्सलातीन के आधार पर हमें • हम्मीर महाकाव्य का ही कथन मान्य है । १ दोनों की माँग में कुछ अन्तर है । हम्मीर महाकाव्य में यह माँग लाख स्वर्णमुद्राओं, चार हाथियों, चार मुगलों, राजकन्या, और तीन सौ घोड़ों के लिए है। उद्दीन कुछ माँगता ही नहीं, अपनी माँग के उज्जयिनी, सांभर आदि भी देने के लिए तैयार है । उसमें हाथियों की "संख्या अनिश्चित और मुगलों की दो है, जो शायद ठीक है । साथ ही - इसमें धारु और वारु नाम की नर्तकियों के लिए भी माँग की गई है । दोनों काव्यों का उत्तर एक सा । ऐसा ही उत्तर 'सुर्जन चरित' में भी वर्णित है; और इसकी सत्यप्रत्ययता फुतू हुस्सलातीन द्वारा समर्थित है । " स्वीकृत होने पर मांडू, नुसरतखाँ की मृत्यु का प्रसङ्ग दोनों काव्यों में हैं । किन्तु नुसरतखाँ किस तरह मरा इसका ठीक वर्णन तो हम्मीरमहाकाव्य में है । तारीखे फिरोज शाही से भी हमें ज्ञात है कि जब नुसरतखाँ पाशीब और गड़ गज तैयार कर रहा था; दुर्ग पर की किसी मगरिबी का गोला उसे लगा और वह बुरी तरह घायल हो कर तीन चार दिन में मर गया । हम्मीरमहाकाव्य में और तारीखे फिरोजशाही में भी अलाउद्दीन इसी के बाद ससैन्य रणथंभोर पहुँचता है । उसके पीछे दिल्ली में विद्रोह हुआ और अन्यत्र भी; किन्तु सुल्तान रणथंभोर के सामने से न हटा । 3 १. फुतू हुस्सलातीन का अवतरण आगे देखो। २. "" "" ३. तारीखे फिरोजशाही का अवतरण आगे देखें । "" Jain Educationa International "" " For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) फरिश्ता ने हम्मीरमहाकाव्य के इस कथन का भी समर्थन किया है कि हम्मीर ने दुर्ग से निकल कर मुसल्मानों को बुरी तरह से हराया। यह' पराजय इतनी करारी थी कि एकबार तो मुसल्मानी सैन्य को घेरा उठा कर झाईन के दुर्ग में आश्रय लेना पड़ा ।' हम्मीरायण में मारी गई मुसल्मानी सेना की संख्या सवा लाख और हम्मीरमहाकाव्य में ८५,००० है । वास्तव में मारे गए मुसल्मानी सैनिकों की संख्या ८५,००० से भी पर्याप्त कम' रही होगी। एक दो दिन की लड़ाई में उन दिनों इतने आदमियों का हत' होना असम्भव था। ____हम्मीर की नर्तकी धारू के मारे जाने की कथा दोनों काव्यों में है। हम्मीरायण ने बारु नाम और बढ़ा दिया है। मल्ल और खेम की कवित्तों में भी एक ही नतकी है। वारू, वारङ्गना का ही पर्याय है, माण्डउ ने उसे अलग समझ लिया मालूम देता है। इस कथा की वास्तविकता का कोई निश्चय' नहीं किया जा सकता। प्रायः ऐसी ही कथा कान्हड़दे - प्रबन्ध में भी है। गढ़ रोध के वर्णन में भी समानता है। हम्मीरमहाकाव्य में अलाउद्दीन के खाई को पूलियों और लकड़ी के टुकड़ों से भरने और दुर्ग तक सुरंग पहुँचाने के प्रयत्नों का वर्णन है। जिस तरह हम्मीर ने इन प्रयत्नों को विफल किया उसका भी इसमें निर्देश है। यह वर्णन मुसल्मानी इतिहासकारों द्वारा समर्थित है। हम्मीरायण में खाई को बालू के थेलों से पाट कर और उन्हीं के बृहत् ढेर पर चढ़ कर गढ़ के कंगूरों तक पहुँचने का मनोरञ्जक. वर्णन है । मुसल्मान इतिहासकारों ने लिखा है कि अलाउद्दीन ने बाहर से मँगवा कर सेना में थेले बँटवाए थे। 'भाण्ड' ने उनके पायजामों की ही बालू की पोटलिया बनवा दी है। इस वर्णन में हम्मीरमहाकाव्य और. १. आगे दिया तारीखे फरिश्ता का अवतरण देखें। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इम्मीरायण ने एक दूसरे की अच्छी अनुपूर्ति की है और दोनों का ही वर्णन तत्कालीन इतिहासों से समर्थित है। बोरी पर बोरी डालकर मुसल्मान सैनिकों ने एक पाशीब तैयार की। जब यह पाशीब दुर्ग की पश्चिमी बुर्ज की ऊँचाई तक पहुँची, तो उन्होंने उस पर मगरिबियां रखीं और उनसे किले पर बड़े-बड़े मिट्टी के गोले चलाने शुरू किए, चौहानों ने अपनी मगरिबियों के गोलों से पाशीब को नष्ट कर दिया। सुरंग बनाने वाले सिपाहियों को रालयुक्त तेल के प्रयोग से चौहानों ने मार डाला। दोनों ओर की यह झपट कई दिन तक चलती रही। किन्तु हम्मीरायण का उस समय को बारह वर्ष बतलाना अशुद्ध है। चारणी शैली में गढ़ रोध को बारह वर्ष तक पहुँचाना सामान्य-सी बात रही है। अलाउद्दीन ने राजस्थान के अनेक दुर्गों को लिया। प्रायः हर एक गढ़रोध का समय बारह साल है, चाहे वास्तव में बारह महीने से अधिक समय दुर्ग को हस्तगत करने में न लगा हो। दोनों काव्यों में लिखा है कि अन्ततः अलाउद्दीन गढ़रोध से थक गया। यह कथन किसी अंश में मुसल्मानी इतिहासों द्वारा समर्थित है। दिल्ली और अवध में विद्रोह के समाचारों से मुसल्मानी सिपाहियों की हिम्मत टूट रही थी। किन्तु उनके हृदय में सुल्तान का इतना भय था कि किसी को इतना साहस न हुआ कि वह रणथंमोर को छोड़कर चला जाए। __ अलाउद्दीन से बातचीत का वर्णन दोनों काव्यों में है। किन्तु हम्मीरा१. तारीखे फिरोजशाही इ० डी० ३, पृ० १७४-५ २. वही, पृ. १७७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ). यण के वर्णन में शुरू से ही रतिपाल (रायपाल) और रणमल्ल (रिणमल) अलाउद्दीन के दरबार में पहुंचते हैं। हम्मीरमहाकाव्य में रणमल्ल का विद्रोह रतिपाल की कारिस्तानी का फल है। किन्तु इनमें से कोई भी कथन ठीक हो, यह तो निश्चित ही है कि हम्मीर के ये दोनों प्रधान सेनानी शत्रु से जा मिले थे। ____ हम्मीरायण और हम्मीरमहाकाव्य में कोठारी के विश्वासघात या मूर्खता के कारण हम्मीर को यह झूठी सूचना मिलती है कि दुर्ग में धान्य नहीं है। किन्तु खज़ाइनुल फुतूह के वर्णन से तो प्रतीत होता है कि दुर्ग में अन्न का वास्तव में अकाल पड़ चुका था। अमीर खुसरो ने लिखा है, "हां, उनकी सामग्री समाप्त हो चुकी थी। वे पत्थर खा रहे थे। दुर्ग में धान्य का अकाल इस स्थिति तक पहुँच चुका था कि एक चावल का दाना दो स्वर्णमुद्राओं से वे खरीदने को तैयार थे और यह उन्हें न मिलता था।२ अलाउद्दीन को इस अन्नामाव की सूचना देकर रतिपाल और रणमल्ल ने मानों दुर्ग के पतन को निश्चित ही बना दिया। हम्मीरायण और हम्मीरमहाकाव्य का यह कथन कि वास्तव में भण्डार अन्न परिपूर्ण थे, सम्भवतः ठीक नहीं है। इसी अन्नाभाव के कारण सम्भवतः हम्मीर की बहुत सी सेना उसे छोड़कर चली गई थी। दुर्ग में जौहर की कथा सभी ग्रंथों में वर्तमान है। मुसल्मानों ने भी इसकी ज्वालाओं को देखा; और अनुमान किया कि गढ़रोध समाप्ति पर १. हम्मीर के कवित्त में भी (देखो पृ० ४७) में अनेक स्वामिद्रोहियों के नाम हैं। इनमें वीरम को झूठ मूठ समेट लिया गया है। २. हबीब ( अनुवादक ), खज़ाइनुलफुतूह, पृ० ४० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) है।' यह कथा दोनों ही काव्यों में वर्तमान है कि महिमासाहि ने अन्त तक हम्मीर का साथ दिया। किन्तु हम्मीरमहाकाव्य में मुहम्मदशाह के अपने बाल-बच्चों और स्त्री को असिसात् करने की कथा अधिक है। एक मुसल्मान वीर के लिए सम्भवतः जौहर का यही उचित स्वरूप था। बाकी का जौहर का वर्णन आज कल की Scorched earth Policy की याद दिलाती है जिसमें इस लक्ष्य से कि कोई वस्तु शत्रु के हाथ में न पड़े, समी वस्तुएँ भस्मसात कर दी जाती है । जौहर में स्त्रियों की आहुति ही न होती, हाथी, घोड़े आदि उपयोगी जीव मार दिए जाते, और सार द्रव्य प्रायः वावड़ी, कुएँ आदि ऐसे स्थानों में फेंक दिए जाते जहाँ से शत्रु उनको न प्राप्त कर सकें। रणथंभोर के दुर्ग में भी इसी नीति का अनुसरण किया गया था। ___ जौहर से पूर्व राजवंश के एक कुमार को गद्दी देकर बाहर निकालने की कथा हम्मीरायण में वर्तमान है। हम्मीरमहाकाव्य के अनुसार राजा ने प्रसन्नतापूर्वक राज्य जाजा को दिया। इस विरोध का परिहार शायद किया जा सकता है। हम्मीर ने एक स्ववंशज कुमार को बाहर निकाल दिया; किन्तु अपनी मृत्यु के बाद भी दुर्ग के लिए युद्ध करने का मार जाजा को दिया। जालोर में यही कार्यमार कान्हडदे के वीर पुत्र बीरम ने समाला था। हम्मीरायण ने अन्तिम युद्ध में ६ व्यक्तियों की उपस्थिति लिखी है १. देखें हमारी पुस्तक Early Chauhan Dynasties पृ. १६६, टिप्पण ५८ २. वही पृ. ११४। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६ ) वीरम, हम्मीर, मीर गाभरू, महिमासाहि और जाजा। हम्मीरमहाकाव्य में हम्मीर के अन्तिम युद्ध में जाजा उसका साथी नहीं है। उसे राज देकर दुर्ग में छोड़ दिया गया है । उसके साथी चार मुगल बन्धु, टाक गङ्गाधर वीरम, क्षेत्रसिंह परमार और सिंह हैं। इस युद्ध में सम्बन्ध हिन्दू-हिन्दू का नहीं, केवल अभिन्न मैत्री और स्वामिभक्ति का है । हम्मीर के सेवक एक एक करके उसे छोड़ गये तो मी मुगल बन्धु अन्त तक उसके साथ रहे। हम्मीरायण के अनुसार महिमासाहि (मूहम्मद शाह) ने युद्ध में प्राण त्याग किया। किन्तु हम्मीर महाकाव्य में उसके मूच्छित होने और सचेतन होने पर अलाउद्दीन से उत्तर प्रत्युत्तर का हम ऊपर उल्लेख कर चुके हैं । हम्मीरमहाकाव्य ही का कथन इसमें ठीक है । तारीखे फिरिश्ता और तबकाते अकबरी ने भी इसके वीरोचित उत्तर का उल्लेख किया है । अलाउद्दीन ने मुहम्मदशाह को घायल पड़े देखा तो कहने लगा, "मैं तुम्हारे घावों की चिकित्सा करवाऊं और तुम्हें इस आफत से बचा लूं तो तुम मेरे लिए क्या करोगे और इसके बाद तुम्हारा व्यवहार कैसा होगा ?" वीर मुहम्मदशाह ने उत्तर दिया “मैं ठीक हो गया तो तुम्हें मारकर हम्मीरदेव के पुत्र को सिंहासन पर बिठाउंगा, इस उत्तर से क्रुद्ध होकर अलाउद्दीन ने उसे मस्त हस्ती से कुचलवा दिया। किन्तु उसने मुहम्मदशाह को अच्छी तरह दफनाया। स्वामीमक्ति की वह कद्र करता था१२ दूसरों को जैसा काव्यों में लिखा है समुचित सजा मिली। रणमल्ल, रतिपाल और उनके साथियों को मरवा दिया गया। फिरिश्ता के शब्दों में “जो लोग अपने चिरंतन स्वामी को धोखा देते है, वे किसी दूसरे के नहीं हो सकते।" १ वही पृ० ११४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीर महाकाव्य में हम्मीर के देहावसान के बाद दो दिन तक जाजा के युद्ध का वर्णन है। "प्राकृतपैङ्गलम्" आदि में जो अनेक उक्तियां जाजा के सम्बन्ध में है, उन में कुछ का जाजा के इस अन्तिम युद्ध से सम्बन्ध हो सकता है। जाजा हम्मीर के लिए क्या नहीं करने को उद्यत था, सेना में सब से अग्रसर हो युद्ध करने के लिये, सुल्तान के सिर पर अकेले बढ़ कर तलवार चलाने, सुल्तान के क्रोधानल में आहुति देने, और अपने स्वामी की शिरः कमल द्वारा पूजा करने के लिए, स्वामिभक्ति के इतिहास में जाजा का नाम अग्रगण्य है। हम्मीरायण ने गढ़ पतन की तिथि संवत् १३७१ रखी है जो सर्वथा अशुद्ध है। अमीर खुसरो की दी हुई तिथि १० जुलाई, सन् १३०१ (वि० सं० १३५८) है और हम्मीर महाकाव्य की तिथि १२ जुलाई बैठती है जो जाजा के राज्य के दो दिनों को सम्मिलित करने से ठीक ही बैठतो है। हम्मीरायण और कान्हड़दे प्रबन्ध हम ऊपर इस बात का निर्देश कर चुके हैं कि हम्मीर महाकाव्य और हम्मीरायण के मूल स्रोत सम्भवतः कई ऐसे फुटकर काव्य हैं जिनकी रचना हम्मीरदेव के देहावसान के थोड़े समय के अन्दर हुई थी। 'भाण्डउ' व्यास और हम्मीर महाकाव्य की कथा में साम्य का यह कारण हो सकता है। किन्तु स्थान-स्थान पर यह भी प्रतीत होता है कि भाण्डउ व्यास ने हम्मीर महाकाव्य से कुछ बातें ली है ; और ऐसा करना अस्वाभाविक भी तो नहीं है। ... कान्हड़दे प्रबन्ध और हम्मीरायण में भी काफी समानता है। कथा का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) विन्यास प्रायः वही है । जालोर और रणथंभोर का वर्णन, सेना का प्रयाण, महमद अहमद, काफर और माफर जैसे शब्दों की सूची, राजपूत जातियों के नामोल्लेख और ग्रढ़ का शृङ्गारादि अनेक अन्य एकसे वर्णन हम्मीरायण के पाठक को कान्हड़दे प्रबन्ध की याद दिलाते हैं । नीचे हम कुछ समान शब्दावली का उदाहरण भी प्रस्तुत कर रहे हैं । इनके आधार पर कोई बात निश्चित रूप से तो नहीं कही जा सकती, किन्तु यह विचार कभी-कभी उत्पन्न होता है कि afra ने शायद कान्हड़दे प्रबन्ध सुना हो । किन्तु यह ध्यान भी रहे कि यह साम्यता विषय के साम्य और प्रचलित सामान्य प्रणाली के कारण भी हो सकती है। कान्हड़दे प्रबन्ध १. द्यउ मुझ निर्मल मत्ति २. मुडोधानी कुँअरी घणी, अंतेउरी कान्हड़दे तणी ४.५२ १.१ ३ : टांका वावि मर्या घी तेल, वरस लाख पुहुचइ दीवेल ॥४-३६ ४. इणि परि राजवंस जे सबइ, लहइ ग्रास ग्राम भोगवइ ॥४.४५ ॥ ५. अंगा टोप रंगाउलि षोड़ा ॥१.१८९ ६. कान्ह तर संपति इसी, जिसी इंद्रधरि रिद्धि ॥१.९ Jain Educationa International हम्मीरायण १. कथा करंता मो मति देहि १ २. ऊलग करइ मोडोघा घणी । १९ मोटा राय तणी कूंपरी परणी पांचसइ अंतेउरी । २५ ३. घीव तेल री बावडि जिसी । जीमतां नहीं कदे खूटसी ॥२४॥ ४. जे कुलवंता भला छइ सूर, तिह नइ इ ग्रास तणा सवि पूर २१ ५. अंगाटोप रिगावली तणा ॥ २३ ॥ ६. पुहवी इन्द्र कहीजइ सोइ इन्द्रसभा हम्मीरां होइ ॥ ६ ॥ For Personal and Private Use Only " Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. अहि महिमद नइ हाजीऊ ॥४.६५ ८. घांची मोची सूई सूनार ॥४.१९॥ ___ गांछा छीपा नइ तेरमा ॥४.२० ९. दल चलंत धरणी कापड, सेषन मालइ मार। सायर तणां पूर ऊलटियां, जेवा रेलणहार २.६३ १०. मारइ देस, फिरइ घण फोजइ। अनइ लस्यइ धान । बोलइ ठोरधार सपराणा । माणस झालइ बान ॥१.७०॥ ११. कटक तणी सामगरी दीठी, सांतल करिउ बषाण । धन्य धन्य दिन आज अम्हारउ, जे आव्यउ सुरताण । २.१०७ ७. अहमद महमद महवी कीया १०५ हाजी कालू ऊंबरा बड़ा ॥१०४॥ ८. मोची, घांची नई तेरमा, ११० सूई सूनार तणी नहीं मणा ॥१०९॥ ९. ढीली थकउ चाल्यु सुरताण, सेषनाग टलटलीया ताम । डूंगर गुडइ समुद्र मलहलइ, त्रिभुवन कोलाहल ऊछलइ । ॥१४॥ १०. सवालाख माहि दीधी वाह, लूभइ बंधइ माणस आह , ढाइइ पोलि नगर प्राकार, देश माहि वलि फिर्या अपार॥११७॥ ११. आज अम्हारउ जिव्यउ प्रमाण, हूँ मलउ ऊपनठ चहुआण । रिणथंभोर हउ होवउ राय, . मुझ घरि ढीली आव्यउ पतिसाह । ॥३२॥ १२. सोवन कलस दंड मलहलइ। ऊपरि थकी धजा लहलहइ ॥११॥ १३. तंबोलीय मालीय कलाल, नाचणी मोची नइ लोहार ॥१०९ १४. सींगणी तणा विछड़इ तीर ।१८६ यंत्र नालि बहइ ढींकुली ॥१८७|| १२. तरल त्रिकलसा झलहलइ रे, धन धरीइ विमाल । ३.१५४ १३. माली तम्बोली सोनार, . चालइ घाट घड़ा सोनार ४.८४ १४. साम्हा सींगणी तीर विछटाइ, निरता वहइ नलीयार । २.१२५ यंत्र गरवी गोला नाखइ २.१२८ १५. राउलि बिहूँ सिखावण कही। ॥४.१४३॥ १५. राय सिखावणि दीधी भली ॥२६. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) हम्मीरायण के स्वतन्त्र प्रसंग हम्मीरायण में कुछ ऐसे प्रसङ्ग भी हैं जो कान्हड़दे काव्य से ही नहीं हम्मीर महाकाव्य से भी सर्वथा स्वतन्त्र है। महिमासाहि और मीर गामरू को शरण मिलने पर महाजनों का हम्मीर के पास पहुँच कर उसे इस नीति के विरूद्ध समझाना ऐसा ही प्रसंग है। कान्हड़दे प्रबन्ध में महाजन कान्हड़दे के पास अवश्य पहुंचते हैं, किन्तु उनका व्यवहार इनसे सर्वथा भिन्न है। उनमें स्वामिभक्ति तो इनमें स्वार्थ है, जब मुसलमानी सेना रणथंभोर पर आक्रमण करती है तो सहायता प्रदान न कर वे दुकानों में बैठे हँसते हैं। अन्त में एक वणिक जौहर का कारण बनता है। किन्तु सांसारिक दृष्टि से महाजनों की सलाह ठीक थी, और भाण्डउ ने उसे बहुत सुन्दर शब्दों में दिया है : विष वेली ऊगंतड़ी, नहे न खटी जे ( होइ); इणिवेलि जे फल लागिस्यइ, देखइलउ सहूवइ कोइ ॥ ६१ ॥ इणि वेली जे फल लागिसई', थोडा दिन मांहि ते दीसिसइ ; तिहरा किसा हुस्यइ परिपाक, स्वादि जिस्या हुस्यइ ते राख ॥ ६२ ॥ जब मुसल्मानी सेना रणथंभोर की ओर बढ़ती है, तब भी उसी रूपक को प्रयुक्त करते हुए कवि ने कहा है :— हाटे बइठा हसइ वाणिया, वेलितणा फल जोअउ सयाणिया ॥ ७३ ॥ जाजा को विदेशी पाहुणा कहकर इस बात का अन्त तक निर्वाह करना भी भाण्डउ व्यास की ही सूझ प्रतीत होती है। विजय होने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर नगर में उत्सव के वर्णन हम्मीर महाकाव्य में हैं, और कान्हड़दे प्रबन्ध में भी। किन्तु वर्धापन के वर्णन में भाण्डउ ही कह सका है :- रणथंमवरि बधावउ करइ, ते मूरिख मनि हरख जि धरई" नाल्हभाट का अलाउद्दीन के दरबार में जाना, अलाउद्दीन से उत्तर प्रत्युत्तर करना, और अन्त में अलाउद्दीन द्वारा स्वामिद्रोहियों को मरवाना भी सम्भवतः माण्डउ की ही सूझ है । वीर भाट जाति की युद्ध में उपस्थिति और उसके महत्त्वपूर्ण कार्य का यह एक पर्याप्त पुराना उदाहरण हैं। ____कान्हड़दे प्रबन्ध में अनेक राजपूत जातियों की सूची है। किन्तु हम्मीरायण की सूची में संदा, वंदा, कछवाहा मेरा, मुकिमाण, बोडाणा, माटी, गौड, तँवर, सेल, डामी, डाडी, पयाण, रूण, गुहिलत्र; हिल, सिंधल, मंडाण; चंदेल, खाइडा, जाडा, और निकुंद नाम अधिक है। संख्या भी जोड़ने पर पूरी छत्तीस बैठती है। घेरे के वर्णन में भी सामान्यतः कुछ नई बातें हैं जिनका ऊपर निर्देश हो चुका है। रणमल्ल जौर रायपाल किस चाल से एक लाख सैनिकों को किले से निकाल ले गए-यह भी कुछ नवीन सूचना है । हम्मीर के अन्तिम युद्ध के वर्णन में भी मांडउ ने अच्छी सफलता प्राप्त की है। ये पद्य पठनीय है : जमहर करी छडउ हुयठ, हमीर दे चहुयाण ; सवालाख संभरि धणी; घोड़इ दियइ पलाण ॥ २७९ ॥ छत्रीसइ राजाकुली, ऊलगता निसि दीसः तिणी वेला एको नहीं, उवाढउ लेवहु ईस ॥ २८ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) हाथी घोड़ा घरि हुँता, उलगाणा रा लाख ; सात छत्र धरता तिहां, कोई न साहइ बाग || २८१ ॥ अन्त में हम्मीर की राजलक्ष्मी के अन्त से भी माण्डर ने एक अपने ढंग का नवीन निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है : (ए) खाज्यो पोज्यो विलसज्यो, ज्यांरइ संपइ होइ । मोह म करिज्यो लख्मी तणउ, अजरामर नहिं कोइ ॥ २८७ ॥ (ए) खाज्यो पीज्यो विलसज्यो. धनरउ लेज्यो लाह ; कवि "भांडर" असउ कहइ, देवा लांबी बाँह ॥ २८८ ॥ मोल्हा भाट ने भी जिस रूप से अलाउद्दीन का सन्देश हम्मीर के I "भाट ने कहा उक्ति वैचित्र्य है सामने पेश किया है उसमें अच्छा "हे राजा सुनो, लक्ष्मी और कीर्ति तुझे वरण करने के लिए आई है । सच कह तू किस से विवाह करेगा। तूं वर है, वे दोनों सुन्दर तरुणियां हैं। सुल्तान ने स्वयंवर रचा है । हे हम्मीरदे, जिसे तू ठीक समझे ग्रहण कर ।" राजा ने कहा, "हे बारहट, कीर्ति और लक्ष्मी में कौन भली है ? लक्ष्मी से बहुत द्रव्य घर आएगा । कीर्ति देश, विदेश में होगी ।” मोल्हा ने कहा, "मुझे सुल्तान ने भेजा है। उससे तू कुमारी देवलदे का विवाह कर और उसके साथमें धारू और बारू को भेज । सुलतान ने बहुत से हाथी और दो मीर भी मांगे हैं। इतना करने पर वह तुम्हें निहाल कर देगा | वह तुझे मांडव, उज्जैन, और सवालाख सांभर देगा' | ये चारों बातें पूरी कर अनन्त लक्ष्मी का मोगकर । राजा सुनो, कीर्ति दुर्लभ १ - यह अर्थ सर्वथा स्पष्ट नहीं है । वास्तव में ये स्थान उस समय न बादशाह के अधीन थे, और न हम्मीर के । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) होती है। यदि तू नमन न करेगा तो तुझे दुःख ! ( विषहर ) की प्राप्ति होगी। यदि तू शरण न देगा तो तुम्हें कीति की प्राप्ति न होगी।" (१४६-१५२ ) इसका जो उत्तर हम्मीर ने दिया, वह उसके चरित के अनुरूप ही है। वीरों की गाथा के गायन को मध्यकालीन कवि पवित्र मानते रहे हैं। पद्मनाम ने कान्हड़दे प्रबन्ध को पवित्र ग्रन्थों और तीर्थों के समान पवित्र समझा है। भाँडउ व्यास को भी अपने प्रन्थ की पवित्रता में विश्वास है : रामायण महाभारथ जिसउ, हम्मीरायण तोजउ तिसउ ; . पढ़इ गुणइ संभलइ पुराण, तियां पुरषां हुइ गंग सनान ॥ ३२४ ॥ सकल लोक राजा रंजनी, कलियुगि कथा नवी नीपनी ; ... मणतां दुख दालिद सहु टलइ, मांडउ कहइ मो अफलां फलइ ॥ ३२६॥ प्रतीत होता है कि रामायण नाम को ध्यान में रख कर ही भाँडउ व्यास ने अपने ग्रन्थ का नाम हम्मीरायण रखा है। रणथंभोर का भौगोलिक वृत्त रणथंभोर की चढ़ाई के वर्णन को उसकी स्थिति के ज्ञान के बिना अच्छी तरह समझना असम्भव है। इसीलिए शायद भाण्डउ व्यास ने रणधंमोर का कुछ वृत्त दिया है जो भौगोलिक और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। उस नगरी में अनेक विषम घाट वापो, और सरोवर थे (७), Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और चार मुख्य फाटक थे। इनमें पहले दरवाजे का नाम नवलखी था, जो अब भी इसी नाम से प्रसिद्ध है (९)। . कलशध्वजादि से मंडित उसमें अनेक मन्दिर थे, उसमें कोटिध्वज अनेक व्यापारियों की दानशालाएं थी, नगर में अनेक जती, व्रती रहते। हजारों वेश्याएं भी उसमें थी। राजा त्रैलोक्यमन्दिर शैली के बने महल में रहता। पास ही गरमी और सर्दी के लिए उपयुक्त महल भी थे। रिण और थंम के बीच में नीची जमीन थी (१७)। जब अलाउद्दीन रणथंभोर पहुंचा तो हम्मीर ने चारों दरवाजे सजाए (१३५) गढ़ को सेना के बल से लेने में अपने को असमर्थ पाकर उसने गढ़ की बनावट को ध्यान में रखते हुए उसे लेने के अन्य उपाय किये थे (१९३)। हम ऊपर बता चुके हैं किस प्रकार रिण पर पाशीब बनाने का प्रयत्न किया था। भाण्डउ ने इसका वृत्तान्त खूब मनोरञ्जक बनाया है। कहा जाता है कि अलाउद्दीन ने सब फौज को आज्ञा दी कि वह उस झोल को बालू से भरे । मुसलमानी फौजियों ने लड़ना छोड़ दिया सूथन की पोटली बनाकर उस से बालू ला लाकर वे वहाँ डालने लगे। छठे महीने यह काम पूरा हुआ। कंगूरों तक अब मुसलमानी फौज के हाथ पहुँचने लगे उससे राजा हम्मीर को अत्यन्त चिन्ता हुई (१९८-२०१)। किस प्रकार यह प्रयत्न विफल हुआ यह ऊपर बताया जा चुका है । हम्मीर महाकाव्य में रणथमोर के पद्मसर का वर्णन है (१३-९२) । यह तालाव अब भी पद्मला के नाम से प्रसिद्ध है। अबुलफज्ल ने इस प्रसिद्ध दुर्ग के बारे में लिखा है, 'यह दुर्ग पहाड़ी प्रदेश के बीच में । इसलिए लोग कहते हैं कि दूसरे दुर्ग नंगे है, किन्तु यह बख्तरबन्द है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८ ) इसका वास्तविक नाम रन्तःपुर (रण की घाटी में स्थित नगर) है, और रण उस पहाड़ी का नाम है जो उसकी ऊपरी ओर है (अकबरनामा, २, पृ. ४९०), रणथंभोर के दुर्ग को हस्तगत करने के लिए अकबर ने रण की घाटी के निकट ऊंची सबात बनाई और रण की पहाड़ी पर से यथा तथा सबात के सिर तक पत्थर फेंकनेवाली तोपें पहुँचाई। । वीरविनोद में भी लिखा है, "ऊपर जाकर पहाड़ की वलन्दी ऐसी सीधी है कि सीढ़ियों के द्वारा चढ़ना पड़ता है और चार दाजे आते हैं। पहाड़ की चोटी करीब एक मील लम्बी और इस कद्र चौड़ी है, जिस पर बहुत संगीन फसील बनी हुई है। जो पहाड़ की हालत के मुवाफिक ऊँची और नीची होती गई है और जिसके अन्दर जा बजा बुर्ज और मोर्चे बने हुए हैं।" इम्पीरियल गजेटियर में भी प्रायः यही बातें हैं। साथ ही यह भी लिखा है कि पूर्व की ओर नगर है जिसका दुर्ग से सम्बन्ध पैड़ियों द्वारा है। डा० ओझा का भी यह टिप्पण पठनीय है, "रणथंभोर का किला अंडाकृति वाले एक ऊँचे पहाड़ पर बना है, जिसके प्रायः चारों ओर अन्य ऊँची ऊँची पहाड़ियाँ आ गई हैं जिनको इस किले की रक्षार्थ कुदरती बाहरी दीवारें कहें, तो अनुचित न होगा। इन पहाड़ियों पर खड़ी हुई सेना शत्रु को दूर रखने में समर्थ हो सकती है। इनमें से एक पहाड़ी का. नाम रण है जो किले की पहाड़ी से कुछ नीची है और किले तथा उसके बीच बहुत गहरा खड्डा होने से शत्रु उधर से तो दुर्ग पर पहुँच ही नहीं सकता।” ( उदयपुर का इतिहास, भाग १, पृ० ४) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 8 ) नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भाग १५, पृष्ठ १५७-१६८, में श्री पृथ्वीराज चौहान का 'रणथंभोर' पर लेख भी पठनीय है। इसके मुख्य तथ्य निम्नलिखित है :(१) मोरकुण्ड से पहाड़ी का चढ़ाव है। यहां से कुछ चढ़ कर पक्का पर- कोटा और मोर दरवाजा नाम की एक पोली है । (२) यहां से उतर कर और फिर उतार चढ़ाव के बाद दूसरा परकोटा है जिसका नाम बड़ा दरवाजा है। (३) इससे उतर कर एक बड़ा मैदान है जिसके तीन तरफ पहाड़ियां और __चौथी ओर रणथंभोर का दुर्ग है। इसी मैदान में पद्मला तालाब है, छोटा पद्मला दुर्ग में है। (४) आधे कोस चलने चलने पर किले पर चढ़ने का फाटक आता है जिसे नौलखा कहते हैं। किले का पहाड़ ओर से छोर तक दीवार की तरह सीधा खड़ा है। उस पर मजबूत पक्का परकोटा और बुर्ज बने हुए हैं। (५) नौलखा दरवाजे से ऊपर तक पक्की सीढ़ियां बनाई गई हैं, जिन पर तीन फाटक बीच में पड़ते हैं। (६) किले में पांच बड़े तालाब हैं। (५) दिल्ली दरवाजे पर शंकर का मन्दिर है। 'यही राव हम्मीरदेव का सिर है जो मनुष्य के सिर के बराबर है। कहते हैं राव हम्मीर जबअलाउद्दीन को परास्त करने आए तो गढ़ में रानियों को न पाया। वे सब भस्म हो गई थीं। राव को इससे इतनी ग्लानि हुई कि उन्होंने आत्मघात करने का निश्चय कर लिया, लेकिन कुछ विचार कर शिव के मन्दिर में गया और पूजन कर कमल काट कर शिव पर चढ़ा दिया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) (८) गढ़ केवल साढ़े तीन कोस के घेरे में है, पर है सीधे खड़े पहाड़ पर । किले के तीन और प्राकृतिक पहाड़ी खाई और झुरमुट हैं । खाई के उस ओर वैसा ही खड़ा पहाड़ है जैसा किले का । खिंचा है। फिर चौतरफा कुछ नीची जमीन के का परकोटा । इस प्रकार किला कोसों के बीच में फैला हुआ है । उस पर परकोटा बाद तीसरे पहाड़ हम्मीरायण के १२५ वें पद्य 'सतपुड़ा' का नाम है यह वह पर्वतमाला है जिस में से निकल कर बनास दक्षिण प्रवाहिनी बनती और चम्बल नदी से जाकर मिलती है । सतपुड़ा के अद्रिघट्टों को पार करना आसान न रहा होगा । हम्मीरायण का चरित्र-चित्रण हम्मीरायण में कुछ पात्रों का अच्छा चरित्र चित्रण हुआ है । हमीरदे शरणागत रक्षक ( ३०७ ); 'रण अभंग' ( २९ ) 'अगंजित राव' (२१६ ) और कीर्तिधनी (१४८ ) है । अलाउद्दीन की मांगों को ठुकराते हुए वह सुल्तान के दूत मोहण से कहता है । कीरति मोल्हा वरिजि मई, लाछी तुं ले जाह ; डाभ अग्रि जे ऊपडइ, ते न आप पतिसाह “१५३” जइ हारउ तर हरि सरणि. जइ जीप तउ डाउ, राउ कह बारहट, निणि, बिहुँ परि मोनई लाइ “१५४" हम्मीर कीर्ति का प्रेमी है लक्ष्मी का नहीं । बादशाह ने उससे गढ़ मांगा था, वह उसे दर्भाप्र भी देने को तैयार नहीं है, उसे जय और पराजय दोनों में ही लाभ दिखाई पड़ता है, जय में अपनी बात रहेगी, युद्ध में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु हुई तो वैकुण्ठ की प्राप्ति होगी। स्वार्थी महाजन और सुल्तान ऐसे वीर को शरणागतों को समर्पित करने के लिए राजी या विवश न कर सके तो आश्चर्य ही क्या है ? किन्तु इस वीर राजपूत में नौकरों की पूरी पहचान नहीं है, इसीलिए यह अपने प्रधानों से धोखा खाता है। अपनी 'आण' की रक्षा में स्वयं को या प्रजा को भी कष्ट सहना पड़े तो इसकी उसे चिन्ता नहीं है। शत्रु के आगे झुकना तो उसने सीखा ही नहीं :__ मान न मेल्यउ आपणउ, नमी न दीधउकेम । नाम हुवउ अविचल मही, चंद सूर दुय जाम ॥३०८॥ हम्मीर महाकाव्य में हम्मीर के चरित में कुछ विकास भी है। अन्तिम युद्ध के दृश्य में अपने भाई के प्रेम के कारण घोड़े से उतर कर लहू-लुहान पैरों से युद्ध में अग्रसर होते हम्मीर का दृश्य हृदयद्रावक है। यहाँ करुण और वीर रसों का एक विचित्र मेल है जो अन्यत्र नहीं मिलता। दुसरा मुख्य चरित्र महिमासाहि का है। वह अद्वितीय धनुर्धर, . स्वाभिमानी और दृढ़प्रतिज्ञ है, हम्मीर ने उसे माई के रूप में स्वीकार किया है और दोनों इस भ्रातृत्व की भावना का अन्त तक निर्वाह करते हैं। किन्तु हम्मीरायण में महिमासाहि ( मुहम्मदशाह ) के चरित्र की उदात्तता पूर्णतया प्रस्फुटित न हो सकी है। ____ रणमल्ल और रायपाल हम्मीर के कृतघ्न स्वामिद्रोही अमात्य हैं जिन्हें अन्त में अपनी करणी का फल भोगना पड़ता है। स्वार्थी महाजनों का भी ' 'माण्डउ' ने अच्छा खाका खींचा है। परिजनों में नाल्ह भाट का चरित्र अच्छा बना है । जाजा के विषय में हम ऊपर पर्याप्त लिख चुके हैं । उसका चरित प्रस्तुत करने में 'कवि' ने सफलता प्राप्त की है। हम्मीर को ईश और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) उसे भक्त के रूप में देखने के रूपक को अन्त तक निवाहते हुए भाण्डउ ने लिखा है : 'जाजउ' सिर सिर ऊपरि कीयउ, जाणे ईश्वर तिणि पूजीयउ ॥२९५॥ 'वीरमदे' रउ माथउ देठि, बेउ मीर पज्या पग हेठि ॥२९६॥ जाजा का मस्तक हम्मीर के सिर पर था, मानों ईश्वर का उसने अपने सिर से पूजन किया हो। देवलदे सरल स्वभाव की राजपूत कन्या है जो पिता को बचाने के लिए अपना बलिदान देने के लिए उद्यत है। शायद कई अन्य राजपूत कन्याओं ने भी इसी प्रकार कहा हो : देवलदे (इ) कहइ सुणि बाप, मो वड़इ उगारि नि आप, जाणे जणी न हुंती घरे, नान्हीं थकी गई त्या मरे ॥ २३२ ॥ प्रतिनायक अलाउद्दीन का चरित्र खींचने में भी भाण्डउ ने कुछ कौशल से काम लिया है। वह दिग्विजयी है। (८३) उसे यह सह्य नहीं है कि उसका अपमान कर कोई मनुष्य सजा पाये बिना रह जाय (८६-८८) किन्तु वह देश की व्यर्थ लूट पाट के विरुद्ध है ( ११८-११६ ) किन्तु हम्मीर के माट का वह सम्मान करता है। उसमें वह चालाकी और फरेब भी है जिससे एक शत्रु को वश में कर वह दूसरे को नष्ट कर सके। किन्तु वास्तव में वह कृतघ्नता का विरोधी और स्वामिभक्ति का आदर करता है। हम्मीर की मृत्यु होने पर वह स्वयं पैदल रणक्षेत्र में आता है हम्मीर आदि के बारे में पूछ कर उनकी उचित अन्त्य क्रिया करवाता और स्वामिद्रोही रणमल्ल आदि को उचित दण्ड देता है । हम्मीर की मृत्यु से उसे कुछ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सींगणी गुण तोडइ सुरताण. आलम साह न खाई (न) खाण (२६८) उलूराखाँ आदि के चरित सामान्यतः ठीक हैं। वर्णन बहुल होने के कारण अन्य अनेक प्राचीन काव्यों की तरह यह काव्य चरित्र के विकास पर विशेष बल न दे सका है। सामंतशाही जीवन और सैन्य सामग्री उस समय के जीवन के अनेक पहलुओं पर, विशेषतः तत्कालीन सामन्तशाही जीवन और सैन्य सामग्री पर हमें इस काव्य से पर्याप्त सामग्री मिली है। राजा की मुख्यता तो स्वीकृत ही है । उस की नीति पर सब कुछ निर्भर था और यह नीति शान्ति की भी हो सकती थी और विग्रह की भी। किन्तु नीति का निर्धारण करने पर भी उसके लिए यह आवश्यक था कि वह समाज के दो प्रभावशाली वर्गों, सामन्तों और महाजनों को अपनी ओर रखे। यही उसकी जन-शक्ति और धनशक्ति के आधार थे। सामन्तों का और सामन्तों के प्रति राजा के व्यवहार का इस काव्य में अच्छा वर्णन है। राजा के सामन्तदल में सवालाख घोड़े थे (१९)। कुलवान् और अच्छे शूर व्यक्तियों को राजा पूरा वेतन (प्रामादि) देता। समय पड़ने पर वे उसका काम निकालते। वह उनका कभी अपमान न करता (२१)। वे कभी किसीको प्रणाम (जुहार) न करते, घर बैठे भंडार खाते, युद्ध में वे किसी से भी न डरते। भगवान् से भी लड़ने के लिए तैयार रहते (२२)। उनके पास कवच और अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्र थे। सूर वंश के रणमल और रायपाल हम्मीर के प्रधान थे। उन्हें आधी बूंदी ग्रास (जागीर) में मिली थी। जब मुहम्मदशाह और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसका माई रणथंभोर पहुँचे तो राजा ने उन्हें भी अच्छी जागीर दी और साथ ही नकद वेतन भी दिया (५१-२)। युद्ध का आरम्म होते ही इन वीरों के पास संदेश पहुँचता : लहता ग्रास अम्हारइ घणा । हिव अन्तर दाखउ आपणा (७५) और ये सब नियत स्थान पर आकर एकत्रित हो जाते (देखों ७५-७९,१६६-१७१) इनमें समी राजकुलों के लोग रहते । यह भ्रान्तिमात्र है कि परमारवंशी राजा के अनुयायी परमार और चौहान के चौहान ही होते। रणमल्ल और रतिपाल सूर वंश के थे। हम्मीर के अन्तिम संग्राम में उसका साथ देनेवाले चार राजपूतों में एक टाक, एक परमार, एक चौहान और एक अज्ञातवंशीय राजपूत था। दूसरी शक्ति धनी महाजनों की थी। युद्ध के आर्थिक साधन इन्हीं के हाथ में थे। इसलिए राजनीति में भी इनका दखल था। हम्मीरायण में महाजनों को हम्मीर के पास पहुँचना और स्पष्ट शब्दों में हम्मीर की नीति को अपरीक्षित और अयुक्त कहना-इसी महाजनी प्रभाव का प्रमाण है। उनका असहयोग उसके पतन का एक मुख्य कारण भी है। जालोर में इसी वर्ग का समर्थन कान्हड़देव के अनेक वर्षीय सफल विरोध की नींव बन सका था। स्वयं राजा के पांच सौ हाथी और 'सहस एक सइ 'पंच' घोड़े थे और वह सवालख सांभर का प्रभु था ( १९-२०)। अनेक प्रकार के योद्धाओं के और हाथी घोड़ों के तनु-त्राण आदि उसके पास थे उसके कोष्टागारों में धान्य का संग्रह था (२३-२४)। उसके ५०० मन सोना और करोड़ों १ देखें Early Chauhan Dynasties. . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का धन था। कहने का तात्पर्य यह है कि तत्सामयिक राजा दुगी में इस सब सामग्री को तैयार रखते। दुर्ग को अच्छी तरह सज्जित - रसमा तो उस समय राजपूतों के लिए सर्वथा आवश्यक था ही। यही मध्यकालीन राजपूतों के स्वातन्त्र्य संग्राम के साधन और प्रतीक थे। इन्हीं के सामने से मुसल्मानी. सेनाओं को हताश होकर अनेक बार पीछे लौटना पड़ता था। जब तक जल और धान्य की कमी न होती, दुर्गस्थ सेना प्रायः लड़ती ही रहती। कई बार रात में सहसा दुर्ग से निकल कर ये शत्रु पर आक्रमण करते (७९)। शत्रु को चिढ़ाने के लिए कंगूरों पर.छोटी पताकाएं लगाते, दरवाजों का शृङ्गार करते और बुर्ज-बुर्ज पर निशान बजाते । गाना बजाना भी होता। दोनों ओर से बाण छूटते.। मगरिबी नाम के यन्त्रों से नीचे की सेना पर गोले बरसाए जाते। ठेकलियों से भी पत्थर फेंके जाते। नलियारों का भी हम्मीरायण और हम्मीर महाकाव्य में वर्णन है। (११३-१८७) ___खजाइ नुलफुतुह पत्थर बरसाने वाले यन्त्रों में से इरादा, मंजनीक और मगरिबों के नाम हैं। जिस प्रकार के पत्थर फेंके जाते थे, उन्हें कई वर्ष पूर्व मैंने चित्तौड़ में देखा था। शायद अब भी वे अपने स्थान पर हों। दुर्ग से राल मिले तेल, जलते हुए बाण, और दूसरी आग लगाने वाली वस्तुओं का भी प्रयोग होता। खजाइनुलफुतूह में रणथंभोर के घेरे के वर्णन से स्पष्ट है कि मुसल्मानी सिपाहियों को कदम कदम पर आग में से बढ़ना पड़ा था। ऊपर से पायकों ने बाणों की वर्षा की मुसल्मानों को हताश होकर वापस लौटना पड़ा। . दुर्ग लेने के उपायों को भी हम हम्मीरायण में पाते हैं। को इतनी बुझी तरह से घेरा जाता कि उसमें से कुछ न भा जा सके। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) यह गाढ़उ विट्य सुरताणि, को सलकी न सकइ तिणि ठामि । महो मांहि मरइ लखकोड़ि, पातिसाह नवि जाए छोड़ि ॥२११॥ ऐसी अवस्था में दुर्ग में प्रायः अन्न की कमी पड़ जाती और उसे आत्मसमर्पण करना पड़ता । अन्दर के लोगों में से किसी को लालच देकर फोड़ लेना दूसरा साधन था । राजपूतों के अनेक दुर्गों को इसी साधन के प्रयोग से मुसल्मानों ने प्रायशः हस्तगत किया था। सुरंग लगा कर रणथंभोर लेने के प्रयत्न का हम्मीर महाकाव्य में वर्णन है । पाशीब या शीबा बना कर रणथंभोर को हस्तगत करने की भी कोशिश की गई थी । पाशीब बनाने में लकड़ियां डाल-डाल कर एक ऊँची बुर्ज तैयार की जाती और जब उसकी उँचाई प्रायः दुर्ग की उंचाई तक पहुंच जाती तो उस पर मगरिबियां रख कर दुर्ग के अन्दर के भागों पर गोलाबारी की जाती । बालू की बोरियों से भी पाशीब तैयार हो सकता था । हम्मीरायण ( १६८ - २०० ) और खजाइनुलफुतूह के अस्पष्ट वर्णनों से प्रतीत होता है कि अलाउद्दीन ने कुछ ऐसा ही प्रयत्न किया था, किन्तु वह कृतकार्य न हुआ। हम्मीरायण ने जलप्रवाह से बालू बहजाने पर घाटी का रिक्त होना लिखा है ( २०२), किन्तु खजाइनुलफुतूह ने मुसल्मानी सेना को रोकने का श्रेय वीर दुर्गस्थ राजपूतों को ही दिया गया है। उनके अग्निबाणों मैं से हो कर जाना आग में से गुजरना था । साथ ही ऊपर से बाणों की वर्षा और मगरिबियों की निरन्तर मार भी थी । यंत्र नालि बहइ ढींकुल, सुभट राय मनि पूजई रलि । मरइ मयंगल आवटइ अपार, आहुति लइ जोगिणि तिणि बार ॥ १८७॥ ( देखें 'खजाइनुलफुतूह, जर्नल ऑफ इण्डियन हिस्ट्री ८, पृ० ३६१-३६२ ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) इसी तरह बर्नी ने भी इस उपाय के निष्फल होने का निर्देश किया है । दुर्गमन होने पर हथियार न डालना, राजपूतों की विशेषता थी । इसी कारण से शत्रु यथाशक्ति अन्य उपायों द्वारा ही दुर्ग को हस्तगत करने का प्रयत्न करते । दुर्ग में सीधा घुसना तो सर्प के मुँह में हाथ डालना था । * सामाजिक जीवन हम्मीरायण आदि काव्यों के आधार पर तात्कालिक सामाजिक जीवन के विषय में बहुत कुछ कहा जा सकता है । संक्षेप में ही ब्राह्मणों के प्रति आदर, महाजनों की दृढ़ आर्थिक स्थिति, वीरों का धर्मगत भेद होने पर भी परस्पर सौहार्द, बेश्या प्रथा का प्रर्याप्त प्रचार, नाट्य नृत्य संगीतादि में जनता की रुचि और दानशीलता आदि कुछ ऐसे विषय हैं जिनका हमें इस काव्य से अच्छा ज्ञान होता है। विशेष रूप से नाल्ह भाट का चरित पठनीय है। चारण और माट मध्यकाल में प्रायः वही महत्त्व रखते हैं जो सामन्त और सरदार | चौदहवीं शताब्दी के महान् कवि पण्डित ज्योतिरीश्वर के वर्णरत्नाकर का निम्नलिखित भाटों का वर्णन इतना सजीव और मध्यकालीन स्थिति का परिचायक है कि पाठकों के समक्ष उसे उपस्थित करना हम उचित समझते हैं, वर्णन निम्नलिखित हैं :अथ भाट वर्णना - मारपरिकली परिहने । सारु सोनाक टाड चारि परिहने । खडनीक पाग एक मथा बन्धने । सो न सूचीक कराओ एक । देवगिरि पछेभोला एक फाण्ड बन्धने । तीषि त्रोषि, वाकि, नीकि सोना * गड़गज आदि कुछ अन्य यन्त्रों को परिभाषा के लिए आगे दिये मुसलमानी तारीखों के अवतरण देखें । 1 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) 1 PR के पर जे तिङ्ग बानी । लोहाक निर्म्म उलि सोनाक डोर छुरी एक बाम कइ बन्धने । पुनु कइसन माट, संस्कृत, प्राकृत, अवढ्ठ, पैशाची, सौरसेनी, मागधी कहु भाषाक तत्वज्ञ, शकारी, अमिरी, चाण्डाली, सावली, दाविली, औतकलि, विजातीया ॥ सातहु उपभाषाक कुशलह । पानिनि · चन्द्र, कलाप, दामोदर, अर्द्धमान, माहेन्द्र, माहेश, सारस्वत, प्रभृति ये आठओं व्याकरण ताक पारग । धरणि, विश्व, व्यालि, अमर, नामलिङ्ग अजयपार, शाश्वत, रुद्रट, उत्पलिनी, मेदिनीकर, हारावली प्रभृति अठारह: ओकोषतं न्युत्पन्न । ध्वनि, वामन, दण्डी, महिमा, काव्यप्रकाश, दशरूपक,रुद्रट, शृङ्गारतिलक, सरस्वतीकण्ठाभरणादि अनेक अलङ्कारक विज्ञ । शम्भु,वृत्तरत्नाकर, काव्य तिलक, छन्दोविचिति, भारतीभूषण, कविशेषर प्रभृति अनेक छन्दोग्रन्थ तं कुशल | कादंबरी, चक्रवाल वायस, गद्यमाला, अपूर्व छइ . हर्षचरित, , चम्पू, वासवदत्ता, शालमञ्जरी, कर्पूरमञ्जरी, प्रभृति अपूर्व्वग्रन्थ कृताभ्यास । केवारी, गोहरिया, साकिक, शुद्धमुख, निरपेक्ष, दाता, कवि सातओये भट्टगुण ते सम्पूर्ण । स्वामि वर्णाङ्कित पीछा कइ मण्डलि छातीए घर ओले भाट देखअह । तंका पछा केओ विछालि चलल, के ओ पएरेहि, काहुका नालिका छाती धले, काहुका पुत्र, काहुका बहुआरी, कभननो सुतह छाती धरल । जओ बुलाविअ तो मन्द बोलता बलवउ चरि चरि औषध खएले । ओगला सैचानक अइसनि आँखि कएले । ओड़हुलक माला एकहोंक परिइले, मथाये आनक मारि से तन्हिक सिङ्गाल धारले चिरले अछवा.... पेटे वाह वाह बोलइ समथहे । इथ भो नाक साप अइसनाह । कार्तिककल्याण करहल आह, नगारि बिस तीसतें परिवेष्टित भाट देषु" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) इस उद्धरण में भाट की वेश-भूषा, विद्या, व्यवहारादि समीका वर्णन है । उसके बहुमूल्य वस्त्र, भाभूषण और आयुध उच्चपद के अनुरूप है । उसका शास्त्रीय ज्ञान इतना प्रगाढ़ है कि बड़े बड़े पण्डितों और कवियों के ज्ञान को मात करता है। वह सर्वभाषाविज्ञ, अष्टव्याकरण पारग, अष्टादश कोष व्युत्पन्न, अनेक अलङ्कार विज्ञ, एवं बहुत ग्रन्थ कृताभ्यास है । वह कवि भी है और दाता भी । अनेक व्यक्ति उसके पीछे पीछे चलते हैं । अर्वाचीन भाटों से परिचित व्यक्ति मध्यकालीन भाटों के महत्त्व को कठिनता से ही समझ पाते हैं । किन्तु वर्णरत्नाकर का वर्णन पढ़ने वाला व्यक्ति आसानी से ही चन्द, मोल्हण ( कान्हड़ दे प्रबन्ध ), मोल्हा और नाल्ह ( हम्मीरायण ) आदि के व्यक्तित्व और प्रभाव को समझ सकता है । पृथ्वीराज विजय का पृथ्वीभट भी इसी श्रेणी का है । हम्मीरायण के कुछ शब्द * हम्मीरायण के ३२६ छन्दों में पर्याप्त अध्येय सामग्री है। किन्तु हम उनमें से कुछ ऐसे ही शब्दों पर यहां विचार करेंगे जिनका अर्थ या तो विवादग्रस्त है या जिनके अर्थ पर विवाद की संभावना है । ऊलग, ऊलगाणा- इन शब्दों का इस काव्य में अनेकशः प्रयोग है । विशेषतः ( सैनिक ) सेवा के अर्थ में अलग शब्द का प्रयोग हुआ है । ''ऊलगाणा' ऊलंग करने वाले के लिए प्रयुक्त है । हम्मीर की अनेक मोडोधा धणी ( मुकुटधर सरदार ) ऊलग करते थे ( १९,२८९ ) महिमासाहि और उसका भाई अलुखान को उलगते थे ( ४४,४५ ) 'उलगाणा' शब्द ३३वें पद्य में इन्हीं दोनों भाइयों के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए प्रयुक्त है। हम अन्यत्र भी इन शब्दों का यही अर्थ प्रदर्शित कर चुके हैं । इस शब्द के प्रयोग का बहुत सुन्दर उदाहरण हम्मीरायण का यह दोहा है: उलगाणा खायइ सदा, ऊरण हुइ इकबार । चाडं घणी ठाकुर तणी, सारइ दोहिली वार ॥१८९॥ - गुडी-यह शब्द छोटी पताका या फरी के अर्थ में प्रयुक्त है। ( १३४ )' बहुत सम्भव है कि इसका मूल किसी द्रविड़ भाषा से लिया गया हो। ग्रास-सामन्ती बोलचाल में इस शब्द का प्रयोग बहुत अधिक है । योद्धाओं की आजीविका के लिए प्रदत्त जागीर और नकद द्रव्य आदि दोनों ही ग्रास के अन्तर्गत हैं ( देखो २१,५०,५१,५२,१९०, २२४ आदि) असपति (८८)-यह अश्वपति शब्द का अपभ्रष्ट रूप है। सर्वप्रथम यह शब्द केवल उत्तर पश्चिमी भारत और अफगानिस्तान के मुसलमान राजाओं के लिए प्रयुक्त हुआ था। इसका कारण शायद उनकी बलशाली अश्वारोही सेना रही हो। किन्तु परवर्ती काल में दिल्ली, गुजरात आदि के सुल्तानों के लिए यह शब्द प्रयुक्त होने लगा। हम्मीरायण का प्रयोग इसी दूसरी प्रकार का उदाहरण है। . .. आलमशाह' ( ८४, ८५, ८८,६१, १२०, १७५ आदि )यह शब्द व्यक्ति वाचक सा प्रतीत होता है। किन्तु वास्तव में यह चक्रवर्ती के अर्थ में प्रयुक्त है। __१ देखें वरदा वर्ष ४ के अङ्क में 'गुडी उछली' पर हमारा टिप्पण । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) आरी सीरा तोरण ( १३५) उत्सव के समय तोरण खड़े करने की परिपाटी चिरकाल से भारत में चली आई है । अन्य ग्रन्थों में तलिया तोरण का वर्णन है। आरीसारी तोरण भी सम्भवतः तलिया तोरण पवाडउ (२१०, २६३)-पवाड़ा शब्द के मूलार्थ के विषय में पर्याप्त मतभेद है । मरुमारती, वर्ष, अङ्क में हमने इसका प्राचीन अर्थ 'युद्ध' या ऐसा ही कोई वीरकार्य मानने का सुझाव दिया है। हम्मीरायण सोलहवीं शताब्दी की कृति है। किन्तु इसमें मी पवाड़उ के उसी प्राचीन अर्थ की झलक है । २९३ वीं चउपई इस प्रकार है: राय पवाडउ कीयउ मलउ, आपण ही सार्यउ जै गलउ ॥ ( राजा ने अच्छा 'पवाड़ा' किया। उसने अपने आप ही अपना गला काटा) पवाड़े के युद्ध या युद्ध के सन्निकट अर्थ को ध्यान में रखते हुए हमने उसे 'प्रपातक' से व्युत्पन्न करने का भी सुझाव दिया था। किन्तु 'प्रवाद' शब्द भी लगातार इमारे ध्यान में रहा है। प्रवाद से मिलताजुलता शब्द 'भट्टवाद' (वीरत्व की ख्याति ) प्राचीन राजस्थानी और गुजराती में प्रचलित रहा है, जिसका अपभ्रष्ट रूप मडवाउ अनेक ग्रन्थों में मिलता है। 'भडवाडउ' शब्द की भी गवेषणा की; किन्तु उसकी कहीं प्राप्ति न हुई। जमहर-इसके लिये आजकल जौहर शब्द प्रचलित हो चुका है। डा. वसुदेवशरण जी अग्रवाल ने जौहर को अतुगृह से व्युत्पन्न माना जो माषाशास्त्र की दृष्टि से सर्वथा ठीक है (जतुगृह 2 जउगृह / जउघर / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) जठहर जौहर)। किन्तु कान्हड़दे प्रबन्ध में पद्मनाभ ने और हम्मीरायण में ( २६२, २६३, २७३, २७९) माण्डउ व्यास ने जमहर शब्द का प्रयोग किया है जो स्पष्टतः यमगृह का अपभ्रष्ट रूप है । जमहर शब्द ही यदिठीक हो तो आधुनिक जौहर तक का परिवर्तन शायद कुछ इस प्रकार से निर्दिष्ट किया जा सकता है। यमगृह (जमगृह < जमघर<जमहर<जंवहर< जौहर<जौहर । अचलदास खीची री वनिका में जउहर शब्द प्रयुक्त है। अचलदास द्वारा गिनाए हुए 'जउहर' जोगा जोगाइत सीहोर के रोलू, और रणथंभोर के हम्मीर के स्थानों में हुए थे। वचनिका की अपेक्षाकृत एक नवीन प्रति में 'जोहर' शब्द प्रयुक्त है । उसमें कुछ अन्य जोहर गिनाए गए है, जैसे समियाणे में सोमसातल के घर, जैसलमेर में दूदा के घर, जामलोर में करमचन्द चहुवाण के घर, तिलक छपरी के गहलोतों के घर, जालोर में कान्हड़दे के घर। वचनिका की अन्य प्रतियों में जहर, जमहर और जिमहर शब्द भी प्रयुक्त हैं जो हम्मीरायण और कान्हड़दे के यमगृह के सन्निकट हैं।" .. परघउ, परिघउ-( २३०, २३३, २३६, २३७ ;-यह शब्द परिग्रह का अपभ्रष्ट रूप प्रतीत होता है जिसका अर्थ नौकर-चाकर, लवाजमा या सेना किया जा सकता है। रायपाल और रणमल ने अलाउद्दीन से मिलकर यह निश्चय किया कि वे रणथंभोर से सेना भी निकाल लाएंगे (परिघउ ले आवां छा तिहां, २३०)। जाकर उन्होंने हम्मीर से प्रार्थना की कि वह कृपाकर उन्हे 'परघउ' ( सेना ) दे जिससे वे कटक में भलि, १ देखें सादूल राजस्थान रिसर्च इन्स्टीट्यूट द्वारा प्रकाशित संस्करण 'अचल - दास खोचीरी वचनिका" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) क्रीड़ा करें और तुर्को को पातला' (दुर्बल ) कर दें ( २३७)। हम्मीर ने उन्हें सवालाख ‘परिघउ' ( सेना ) दी ( २३८)। __समाध्यउ, समाध्यो (३१६, ३१९)-यह शब्द साधारु के प्रद्युम्नचरित में समदिउ ( १८४ ) के रूप में प्रयुक्त है। संस्कृत में इसका अर्थ समाहित शब्द से किया जा सकता है। इन सब प्रसंगों में इसका अर्थ "प्रसन्न होकर' किया जा सकता है। कणहलउ (४५):-महिमासाहि ने अपने विषय में कहा है. - "अह्मनइ मान हुतउ एतलउ, घरि बइठा लहता कणहलउ" इससे अनुमान किया जा सकता है कि इसका अर्थ भोजनादि से है। हम्मीर के सामन्तों के विषय में कवि ने कहा है : ते नवि कीणइ करइ जुहार, घरि बइठा खाई भंडार (२२)। यहाँ भण्डार से मतलब सम्भवतः अन्न भंडार का होगा, और यही अर्थ शायद 'कणहलक' से अभिप्रेत है। नवलखि - यह शब्द चउपइ ९ और १७२ में है। रणथम्भोर दुर्ग की चढ़ाई में यह पहला दरवाजा है। इसी के पास नुसरतखां मारा गया। हम ऊपर डा० माताप्रसाद के नौलखी शब्द के अर्थों का विवेचन कर चुके हैं। - हेडाउ (६८) इस शब्द पर भी हम ऊपर कुछ विचार कर चुके हैं। अभी और उदाहरण अपेक्षित हैं। बीटी (६७, ७१ )- यह निश्चित है कि इसका अर्थ बोड़ी नहीं है। प्रसंग से लूटनाया घेरना अर्थ हो सकता है । कान्हड़दे प्रबन्ध में बीटी शब्द प्रयुक्त है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) डीलइ ( ९६ ), डीलज (१००), डील ( १९०):-डील का अर्थ शरीर है। डीलइ स्वयं के अर्थ में प्रयुक्त है। डीलज = डील ही धइवड़ ( १३५) = ध्वजपट हम्मीर सम्बन्धी अन्य साहित्य और प्राचीन उल्लेख हम्मीर विषयक साहित्य हम्मीरमहाकाव्य और हम्मीरायण तक ही सीमित नहीं है। हम्मीर का जीवनोत्सर्ग एक महान् आदर्श के अनुसरण में हुआ था। जब कभी ऐसे अवसर उपस्थित हुए, जनता उसे याद करने से न भूली । रणमल्ल छन्द में एक राठौर वीर के युद्ध का कीर्तन है। किन्तु कवि श्रीधर काव्य के आरम्भ में ही हम्मीर का स्मरण करता है। रणमल्ल उपमेय तो हम्मीर उपमान है: हम्मीरेण त्वरितं चरितं सुरताण फोज संहरणम् । कुरुत इदानीमेको वरवीरस्त्वेव रणमल्लः ॥३॥ ( हम्मीर ने शीघ्र ही सुल्तान की फौज का संहार किया। अब वही अकेला श्रेष्ठ वीर रणमल्ल करता है।) अचलदास खीचीरी वचनिका का रचयिता शिवदास तो हम्मीर को भूल पाता ही नहीं। जब हुशंगशाह की फौज चलती है तो लोग पूछते हैं कि "बादशाह किसके विरुद्ध बढ़ रहा है। अब तो सोम सातल कान्हड़दे नहीं हैं। हठीला राव हम्मीर भी अस्त हो चुका है" ( ९-४ )। अन्यत्र हम्मीर की तरह अचलदास भी कलियुग को बदलने वाले और आदर्शपूर्ति के लिए मरणोद्यत व्यक्ति के रूप में निर्दिष्ट है। (१४.१५) "सिंहासन पर बैठा अचलदास सातल सोम और हम्मीर से भी बढ़कर दिखाई पड़ता था ( १५८)। अपनी रानियों के सामने जौहर के आदर्श को उपस्थित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५ ) करता हुआ अचलेश्वर कहता है, "कल ही के दिन तो रणथम्भोर में राज हम्मीरदेव के घर में जौहर हुआ था । उन जौहरों में जो हुआ वही तुम पूरी कर दिखाओ ( २१.९ ) । ” काव्य के अन्त में भी फिर शिवदास ने हम्मीर का स्मरण किया है । सातल, सोम, हम्मीर और कन्हड़दे ने जिस तरह जौहर जलाया, उसी तरह रणक्षेत्र में पहुँचकर चौहान ( अचलदास ) ने अपने आदिम कुलमार्ग को उज्ज्वल किया ( २७ )” । कान्हड़दे प्रबन्ध में पद्मनाम हम्मीर का स्मरण करना न भूला | जब अलाउद्दीन की सेना गढ़रोध छोड़कर जाने लगी तो हम्मीर का पदानुगमन करने की इच्छा से वीर कान्हड़दे भी कहता है । तुझ वीनयूँ आदि योगिनी, पाछा कटक आणि तूं अनी । हमीररायनी परि आदरु, नाम भारउ उपरि करउं ॥ वर्णों में प्राकृत पैङ्गलम् के हम्मीर और जाजाविषयक पद्य भी पठनीय हैं। इनके विषय में डा० माताप्रसाद गुप्त ने लिखा है, "इन छन्दों में वास्तविक ऐतिहासिकता नहीं मिलती है । उदाहरणार्थ एक छन्द में कहा गया है कि हम्मीर ने खुरासान की विजय की थी, जिसमें उसने खुरासान के शासक से ओल ( जमानत ) में उसके किसी आत्मीय को ले लिया था । किन्तु हम्मीर का खुरासान पर आक्रमण करना ही इतिहास-सम्मत नहीं है ।” किन्तु क्या वास्तव में इस उदाहरणार्थ प्रस्तुत पद्य में खुरासान की विजय का वर्णन है ? पद्य यह है : ढोल्ला मारिय ढिल्ली महं मुच्छिय मेच्छ सरीर । पुर जज्जला मंतित्रर चलिय वीर हम्मीर । चलिअ वीर हम्मीर पाअ भर मेइणि कंपइ । दिगमगणह अंधार धूलि सूरह रह पिअ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगमगणह अंधार आण खुरासाणक ओल्ला । दरमरि दमसि विपक्ख मारम ढिल्ली महं ढोल्ला ॥ यहां पांचवी पंक्ति में 'खुरासाण' शब्द को देखते ही, यह परिणाम निकालना ठीक न था कि कवि के मतानुसार हम्मीर ने खुरासान पर विजय प्राप्त की थी और उस देश के शासक को 'भोल' में ले आया। यहां प्रसंग दिल्ली या दिल्ली राज्य पर आक्रमण का है, खुरासान पर किसी चढ़ाई का नहीं। इसलिए देखने की आवश्यकता तो यह थी कि खुरासान का कोई दूसरा अर्थ है या नहीं। डिंगलकोष को.आप उठाकर देखते या किसी वृद्ध चारण को पूछते तो आपको ज्ञात होता कि यहां खुरासान शब्द मुसलमान के अर्थ में प्रयुक्त हैं। कविराजा मुरारिदान ने मुसलमान शब्द के ये पर्यायवाची शब्द दिए हैं: रोद खद खदड़ो तुरक मीर मेछ कलमाण । मुगल असुर बीबा मियां रोजायत खुरसाण ॥ ५७३ ॥ कलम जवन तणमीट (कह) खुरासान अर खान, चगथा आसुर (फेर चव मानहु ) मूसलमान ॥५७४ ॥ पृथ्वीराज के प्रसिद्ध पत्र में भी खुरसाण इसी अर्थ में प्रयुक्त है: धर रहसी, रहसी धरम खप जासी खुरसाण । अमर विसम्मर ऊपरी, राखो नहचो राण ॥ पद्य के प्रसंग और डिंगलकोष के इस अवतरण से स्पष्ट है कि 'खुरसाण' का अर्थ दिल्ली का कोई मुसलमान ही हो सकता है। इसके खुरासान तक पहुँचने की आवश्यकता नहीं है। हम्मीर के विषय के कुछ अन्य पद्य भी प्रकृतपैङ्गलम् में हैं । एक में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) . हम्मीर अपनी प्रेयसी से म्लेच्छों के विरूद्ध रणाङ्गण में जाने की अनुमति चाहता है। दूसरे में म्लेच्छों के विरुद्ध हम्मीर के प्रयाण का वर्णन है । तीसरा पद्य जज्जल विषयक है । एक पद्य में हम्मीर की मलय, चोलपति,गुर्जर, मालब और खुरसाण पर विजय का वर्णन है । यह खुरसाण भी भारत देशीय कोई मुसलमान राजा है। छठे पद्य में सेना के प्रयाण का बहुत ही सजीव वर्णन है। सातवें पद्य में वीभत्स रणस्थली में विचरते हुए. हम्मीर का वर्णन है I : इन पद्यों में पर्याप्त अतिरञ्जना है । किन्तु इस अतिरञ्जना के आधार: पर इनके समय पर कुछ कहना असम्भव है । इतिहास में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जब कवि समसामयिक होते हुए मी अतिरञ्जना करता है वाक्पति का 'गौडवो' ऐसी ही कृति है । नरवर्मन् द्वारा लक्ष्मवर्मन् की विजय का वर्णन रघुवंश के दिग्विजय की याद दिलाता है । गौड, घोड़, बंग, अंग, गूर्जर, मलय, चोल, पाण्ड्य, कीर, भोटादि की भर्ती जिस आसानी से होती है वह अनेक शिलालेखों में दर्शनीय है । भाषा की दृष्टि से प्राकृतपैङ्गलम् के पद्यों को शायद सन् १४०० के आसपास रखना ठीक हो । शार्ङ्गधर का हम्मीरविषयक उल्लेख और वर्णन भी पर्याप्त प्राचीन हैं । ग्रन्थ के आरम्भ में ही अपने वंश के वर्णन के प्रसङ्ग में शाङ्ग घर: ने लिखा है कि पहले शाकम्भरी ( सांभर ) देश में श्रीमान् हम्मीर राजा चाहुबाण वंश में उत्पन्न हुआ, वह शौर्य में अर्जुन के समान ख्यात था। परोपकार के व्यसन में निष्ठ, पुरन्दर के गुरु ( बृहस्पति ) के समान, राघवदेव नाम का द्विजश्रेष्ठ उसके सभ्यों में मुख्य था" । शाङ्ग घर: Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) इस राघवदेव का पौत्र था, और जिस विद्वान् को नयचन्द्रसूरि ने भी 'षड़भाषा-कविचक शक्र' और 'अखिल-प्रामाणिकाप्रेसर' कहा है उसके लिए उसके पौत्र के हृदय में कुछ अभिमान होना स्वाभाविक ही है। साथ ही नयचन्द्र के उल्लेख से यह भी सम्भावना होती है कि हम्मीर की सभा में अनेक षडभाषाकषियों और तार्किकों का मण्डल था जिनमें मुख्य राघवदेव था। पद्धति का १२५७ वा श्लोक भी हम्मीरपरक है । कवि अज्ञात है। हम्मीर की सेनाके प्रयाण को उद्दिष्ट कर वह कहता है, 'हे चक्र (चक्रवाक ! ) चक्री ( चकवी !) के विरह ज्वर से तू कातर मत हो। रे कमल तू संकुचित न हो। यह रात्रि नहीं है। हम्मीर भूप के घोड़ों की टाप से विदीर्ण भूमि की धूलि के समूहों से यह दिन में ही अन्धकार हो गया है।" हम्मीर-विषयक अन्य प्राचीन रचना विद्यापति की पुरुष-परीक्षा है। राजस्थान से बहुत दूर रहने पर भी कवि को हम्मीर विषयक अनेक तथ्य ज्ञात थे। उसका अदीन अलाउद्दीन और महिमासाह मुहम्मदशाह है। अलाउद्दीन और हम्मीर के सन्देश और प्रतिसन्देश भी इतिहास सम्मत तथ्य हैं। मन्त्रियों के नाम रायमल और रामपाल हैं जो रणमल्ल और रतिपाल के विकृत स्वरूप से प्रतीत होते हैं। जाजमदेव ( जाजा) आदि योद्धाओं और महिमासाहि के अन्त तक हम्मीर का साथ देने की कथा भी पुरुष-परीक्षा में है। किन्तु जाजा के लिये इसमें 'योध' शब्द प्रयुक्त होने से यह अनुमान करना कि जाजा किसी उच्चपद पर प्रतिष्ठित न था कुछ विशेष तर्कानुमत प्रतीत नहीं होता। योद्धा होना तो उच्च से उच्च पदस्थ राजपूत के लिए भूषण है, दृषण नहीं। जोधपुर के राज्य के संस्थापक का नाम केवल जोधा मात्र था। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( E ) 'मल और खेम के कवित्तों में तो जाजा का इतना महत्त्व Y कि हम्मीर मुहम्मदशाह से कहता है कि जब तक रणथंभोर का गढ़, नाजा बड़गूजर और उसका बन्धु वीरम रहेंगे, तब तक वह उसको त्याग न करेगा। खेम के ११ वें कवित्त में वह 'वड राउत' है, और ऐसा ही निर्देश सम्भवतः मल्ल के त्रुटित कवित्त में भी रहा होगा । पुरुष परीक्षा में जौहर का मी वर्णन है । किन्तु कथा इतनी संक्षिप्त है कि उसमें हम्मीर विषयक बहुत-सी बातें छुट गई हैं। लेखक का -लक्ष्य केवल हम्मीर की दयावीरता सिद्ध करना था। इसके लिए जितनी सामग्री उसने प्रयुक्त की है वह पर्याप्त है । इससे अग्रिम कृति हम्मीर हठाले के कवित्त हैं जिनकी मूँधड़ा राजरूप ने संवत् १७९८ में देशनोक में नकल की । कर्ता “ कविमल' (कवित्त ३,६) या 'कवि माल' ( कवित्त ५) है और इस छोटी सी २१ कवित्तों की कृति में वीर रस की अच्छी परिपुष्टि हुई है। पहले कवित्त में 'महिमा मुगल' शरण की प्रार्थना करता है । जाजा और वीरम के महत्त्व को प्रदर्शित करते हुए द्वितीय कवित्त में हम्मीर की उक्ति हम अभी दे चुके हैं। तीसरे कवित्त में बादशाह की ओर से राजकुमारी के सुल्तान से विवाह, धारू वारू नर्तकियों के समर्पण, और हाथी, घोड़ों और द्रव्य आदि की मांग है। चौथे कवित्त में हम्मीर का दर्पपूर्ण उत्तर है। उसकी मांग अल्लाउद्दीन से भी बढ़कर है । वह गजनी माँगता है, उसके भाई अलीखान ( उलूग्रखां ) से घास कटवाना चाहता है, उससे 'मरहठी नारी' माँगता है, और यह भी चाहता है कि बादशाह अनेक अन्य बादशाहों के साथ आकर उसकी सेवा करे । पाँचवें कवित्त में अलाउद्दीन का दूत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों सेनाओं की शक्ति की तुलना करता हुआ सुल्तान को बाज से और हम्मीर को चिड़िया से उपमित करता है। छठे कविक्त में हम्मीर का उत्तर है, 'जो मैं बादशाह के सामने सिर झुकाऊँगा, तो सूर्य आकाश में न उदित होगा, यदि मैं दण्ड (कर ) दंगा तो हरिहर ब्रह्म और सुकृत सब विसृष्ठ होंगे। मैं पुत्री को देने की कहूं तो जीभ के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे "मैं बादशाह से आकर मिला तो पृथ्वी डूब जायगी। उत्तर में फिर दूत सातवें कवित्त में अलाउद्दीन की सामर्थ्य का बखान करता है। उत्तर में हम्मीर आठवें कवित्त में कहता है, “तू इसको देवगिरि मत समझ। यह यादव राजा नहीं है । तू इसको चित्तौड़ मत समझ। यह कर्ण चालुक्य नहीं है। इसको गुजरात मत समझ जिसे करोड़ों छल करके लिया है। अरे, अलाउद्दीन मैं हम्मीर हूं जो इस क्षेत्र का खरा और रक्षक कपाट है। अब रणथंभोर का रोध करने पर तेरे सत्त्व का पता लगेगा।' उत्तर में नवम कवित्त में दृत बताता है कि रणमल, बादशाह से जा मिलेगा, वीरम्म घर का भेद देगा, राजा छाहड़दे अभी उसके विरुद्ध है, पृथ्वीराज अलाउद्दीन से जा मिला है। जिन भृत्यों से यह मरोसा था कि वे युद्ध में साथ देंगे वे तो शत्रु से जा मिले हैं। किन्तु इससे हम्मीर विचलित नहीं होता। वह कहता है, 'चाहे पीथल मिले, १ डा० माताप्रसाद गुप्त ने कवित्त का अर्थ सर्वथा भूतार्थक किया है जो ठीक नहीं है । दूत 'मिलै' धातु से रणमल और वीरम के लिए भविष्य की सम्भावना का द्योतन करता है। छाहड़दे विरुद्ध ( अमेल ) हो गया है और पृथ्वीराज बादशाह से जा मिला है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१ ) चाहे प्रतापसी, चाहे कुल मार्ग को लजा कर, दूसरे ठाकुर चन्द, सूर्य और भी चाहे विधि आदि भी अल्लाउद्दीन से जा मिलें तो भी यह उससे सन्धि न करेगा। ग्यारहवें कवित्त में दिगदिगन्त से भाई मुसलमान सेना और हम्मीर के प्रसन्न होकर उसका सामना करने का वर्णन है । बारहवें कवित्त में उड्डाणसिंह के हाथ नर्तकी धारू की मृत्यु का उल्लेख है । तेरहवें वित्त में मोमूसाह ( मुहम्मदशाह ) हम्मीर से बीड़ा लेकर अलाउद्दीन का छत्र काट डालता है । चौदहवें कवित्त में यह वर्णित है कि आठ लाख औषधियों के चूर्ण ( पाउडर ) को प्रयुक्त कर अलाउद्दीन ने जब नाल ( तोप ? ) चलाई तो रणथंभ की दीवार एक ओर से टूट गई। फिर भी ( कवित्त १५ ) हम्मीर ने देवगिरि के राजा की तरह कायर होकर किला न छोड़ा । उसने बढ़ती मुसलमान सेना पर अच्छी चोट की । 'राज पलट जाता है, दिन पलट जाते हैं, किन्तु बड़े आदमियों के वचन नहीं पलटते', यह कहते हुए हम्मीर ने जाजा से चले जाने को कहा । वह तो 'परदेसी पाहुना था' । किन्तु जाजा ने ऐसे आचार को दोगली संतान के लिए ही उपयुक्त बताकर गढ़ छोड़ने से इन्कार कर दिया (दोहा १-३ ) । और अलाउद्दीन की सेना पर आक्रमण कर घोर युद्ध करता हुआ काम आया । ( कवित्त १६ - १७) आगे के दो कवित्तों में युद्ध का वर्णन है । मीर भी अन्य स्वामिभक्तों के साथ युद्ध में काम आए। ( १८-१९ ) श्रावण की पंचमी, शनिवार के दिन सम्वत् "अगणमै " में हम्मीर युद्ध करता हुआ काम आया । रणमल शत्रु से जा मिला (२० ) । बारह वर्ष तक युद्ध चला । अलाउद्दीन के ग्यारह लाख सैनिकों में से केवल एक लाख बचे ( कवित्त २१ ) | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) महिमासाहि का इतिहास की दृष्टि से इस कृति का कुछ महत्त्व है । शरण में आना, धारू की उड्डानसिंह के हाथ मृत्यु, हम्मीर और अलाउद्दीन के दूत का कथोपकथन, रणमल का विश्वासघातादि ऐसी सामग्री है जो अन्यत्र भी मिलती है । विशेष ध्यान देने योग्य बातों में जाजा का महत्व है । हम्मीर को उस पर बड़ा भरोसा है। जाति से इन कवित्तों के अनुसार वह बड़गूजर है ( कवित्त २ ) दूहे २ में वह 'परदेसी पांदणों' के रूप में अभिहित है ( पृ० ४९, दूहा २ ); किन्तु वह हम्मीर का विश्वस्त 'स्वामिर्मी' सेवक है । (१६) उसके पिता का नाम वैजल है ( १७ ) और उसके एवं राव के मरने पर ही गढ़ का पतन होता है । वित्त में जाजा को 'बड़गूजर, हम्मीरायण में 'देवड़ा', हम्मीर महाकाव्य में 'चाहमान' और भाट खेम को कृति में फिर बड़गूजर के रूप में देखकर जाजा की जाति को निश्चित करना कठिन पड़ता है । किन्तु इनमें सबसे प्राचीन कृति हम्मीर महाकाव्य है; और उसीका कथन सम्भवतः सबसे अधिक विश्वस्त है' । युद्ध को बारह वर्ष तक चलाना (२१) अशुद्ध है । हम्मीर के स्वर्ग प्रयाण के लिए श्रावण मास पञ्चमी तिथि और शनिवार ठीक हो सकते हैं । किन्तु 'छमीछर अगणमै' अशुद्ध है ( २० ) । न कवित्त का पृथ्वीराज हम्मीर महाकाव्य के भोजदेव का भाई हो तो हम्मीरमहाकाव्य की भोज की प्रतिशोध कथा कल्पित नहीं है । छितिपति छाsदेव और चन्दसूर के विषय में कुछ और शोध की आवश्यकता है । भाट खेम की रचना "राजा हम्मीरदे कवित्त" ( पृ० ६०-६६ ) की १. इसी प्रस्तावना में ऊपर हमारा जाजा- विषयक विमर्श पढ़ें । २. डा• माताप्रसाद गुप्त कथा को कल्पित मानते हैं ( देखें हिन्दुस्तानी १९६१, पृ० ६-७ ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रति का लेखन-काल संवत् १७०६ है। इसलिए कवित्त की रचना इस संवत् से परतर नहीं हो सकती। इसके प्रथम कवित्त में मंगोल की शरणागति और दूसरे में शरणप्रदान का वर्णन है। इसके बाद अलाउद्दीन के दूत मोलण और हम्मीर का वार्तालाप है। इसमें मोलण अलाउद्दीन की सामर्थ्य का बखान करता है। हम्मीर उससे गजनी, उलूगखों, नसरतखां, मरहठी नारी, ठट्ठा, तिलंग आदि का मांग करता है। (३-७) उसके बाद अलाउद्दीन के धेरे ( ९) उड्डानसिंह के हाथ धारू की मृत्यु (११) अलाउद्दीन के छत्र कटने ( १२१४), इसके बाद और युद्ध के आरम्भ होने का वर्णन है। साथ ही गद्यभाग में यह सूचना भी है, “जाजा बड़गूजर प्राहुणा होकर आया था । राजा हमीर ने उसे अपनी बेटी देवलदे विवाही थी। वह मोड़ बांधे ही काम आया। राणी देवलदे तालाब में डूबकर मर गई। किन्तु कवित्त में फिर वही कथानक चालू रहता है। हम्मीर जाजा को परदेसी पाहुणा कहते हुए जाने के लिए कहता है, किन्तु जाजा इन्कार करता है ( दूहा २)। पन्द्रहवें कवित्त में हम्मीर कहता है कि चाहे राणा रायपाल, चाहे बाहड, भोजदेव, रावतमोज, रतौ (रतिपाल ), वीरमदे, रावत जाजा, चन्दसूर और सभी देवी देवता भी शत्रु से मिल जाएँ तो भी वह अपने वचन का त्याग न करेगा (१५)। उसके बाद उसने अपूर्व युद्ध किया। सम्वत् १३५३, माघ सुदी एकादशी मंगल के दिन अलाउद्दीन ने रणथम्भोर लिया और मध्याह्न के समय हम्मीर ने अपना सिर सतप्रोल दरवाजे पर महादेव को चढ़ाया। - इन कवित्तों का स्वतन्त्र मूल्य विशेष नहीं है 'भाटखेम की कृति भी For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) . तीसरे कवित्त को स्थान पर खेम अधिक शुद्ध हैं । हम इन्हें कहें या न कहें इसमें भी हमें सन्देह है, क्योंकि यह प्रायः 'रणथंभोर रै रांणै इमीर इठालै रा कवित्त का शब्दानुवाद या भावानुवाद मात्र है। कहीं कहीं मल्ल की कृति त्रुटित या अस्पष्ट है । उसकी पूर्ति और समझ में यह रचना अवश्य सहायक है । दोनों काव्यों के पहले दो कवित्त कुछ शब्द भेद होने पर भी वास्तव में एक ही हैं। मल्ल के खेभ ने पाँचवाँ बना दिया है। चौथे कवित्त के के आठ कवित्त हैं । किन्तु कुछ नाम मल्ल के कवित्त से अलीखान से उलखाँ नाम उलूगखान के अधिक सन्निकट है। साथ ही नुसरतखाँ 'थटा' और 'तिलंग' के नाम बढ़ा दिए गए है । खेम का सातवाँ कवित्त मल्ल के पाँचवें कवित्त का, और नवां कवित्त मल के ग्यारहवें कवित्त का और दसवाँ कवित्त मल्ल के आठवें कवित्तका रूपान्तर है । मल्ल का बारहवाँ वित्त खेमका ग्यारहवाँ है । बारहवें कवित्त में मल्ल के कवित्त की सामान्य छाया ही आ सकी है । खेम का बारहवाँ पद्य प्रायः नवीन है : किन्तु चौदहवां पद्य फिर मल्ल के पन्द्रहवें पद्य का रूपान्तर है । 'बात' खेम भाट की या तो निजी कृति है या इसे किसी अन्य भाट ने जोड़ दी है । जाजा 1 देवलदेवी का पति के बड़गूजर होने में ही हमें अत्यधिक सन्देह है उसे बनाकर तो खेम ने कल्पना की परकाष्ठा कर डाली है । इम्मीर महाकाव्य का कथन तो इसका विरुद्ध है ही ; यह अन्य प्राचीन और नवीनकृतियों से भी असमर्थित है । खेम का पन्द्रहवाँ पद्य मल्ल के नवें पद्य का रूपान्तर है : किन्तु कुछ फेरफार सहित । इसका वाइड मल्ल का छाइड है। रायपाल, भोजदेव और राउत जाजा आदि के नाम इसमें अधिक हैं । खेम का सोलहवां पद्य उसकी कृति है । रणथंभोर के पतन का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५ ) -समय भी उसका निजी ही नहीं, सर्वथा अशुद्ध भी है । हम्मीर के रणथंभोर के दरवाजे पर आकर 'कमल-पूजा' की कथा अब भी प्रसिद्ध है। प्राचीन पारम्परिक कथा से इसका विरोध है। नैणसी ने गढ़ के पतन की दो तिथियाँ दी हैं, सम्वत् १३५२ श्रावण बदी ५ (नैणसी की ख्यात, भाग १, पृ० १६० ) और दूसरी संवत् १३५८ ( भाग दूसरा, पृ० ४८३ )। इनमें दूसरा संवत् ठीक है। महेशकृत 'हम्मीर रासो' की दो प्रतियाँ श्री अगर चन्दजी नाहटा के संग्रह में हैं और कुछ प्रतियाँ अन्यत्र भी हैं। ‘भाषा डिंगल से प्रभावित राजस्थानी है।” इस कृति की कुछ उल्लेख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं। (१) महिमासाहि को अलाउद्दीन की किसी बेगम से अनुचित सम्बन्ध के कारण निकाला जाता है। गाभरू बादशाह की सेवा में रहता है। (२) छाणगढ़ का रणधीर हम्मीर की सहायता करता है। इसलिए रणथम्भोर को लेने से पहले बादशाह छणगढ़ लेता है । ( ३ ) नर्तकी को गामरू गिराता है । (४) सुर्जन कोठारी के मिल जाने से अलाउद्दीन को ज्ञात होता है 'कि दुर्ग में धान्य नहीं है। (५) बादशाह सेतुबन्ध जाकर भगवान् शिव का पूजन कर समुद्र में कूद कर अपने प्राणों का त्याग करता है । इस कथा में कल्पना अधिक और ऐतिहासिक तथ्य कम है। जोधराज कृत हम्मीर-रासो प्रकाशित रचना है। इसके बारे में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) इतना ही कहना पर्याप्त है कि यह प्रायः महेश के हम्मीर-रासो का रूपान्तर है। इसी प्रकार चन्द्रशेखर वाजपेयी का हम्मीर हठ; भी प्रकाशित है' इतिहास की दृष्टि से इसका महत्त्व भी विशेष नहीं है। . . ... ग्वाल कविका हम्मीर हठ सं० १८८३ की कृति है | यह चन्द्र-- शेखर के 'हम्मीर-हठ' से बहुत कुछ मिलती-जुलती है।' ___ "माण्डउ की हम्मीरायण के अतिरिक्त एक 'वृहद् हम्मीरायण' भी जिसका सम्पादन श्री अगरचन्द नाहटा कर रहे हैं। श्री नाहटा की सूचना: के अनुसार 'हम्मीरायण की दो प्रतियों में से एक प्रति तो पूर्ण है और दूसरी प्रति में केवल २४८ पद्य हैं, जबकि पूरी प्रति में अन्तिम पद्य संख्या १३७३ है। ऐसा प्रतीत होता कि अधूरी प्रति इस पूर्ण प्रति से ही नकल की जा रही थी जो पूरी नहीं हुई।” मूल प्रति सं० १७८४ की है। भाषा हिन्दी है, और किसी अंश तक जान की भाषा से मिलती है। कविता का आरम्म सरस्वती, गजानन, चतुर्भुज आदि को प्रणाम कर किया गया है । लक्ष्य वही है जो किसी वीरगाथा का होना चाहिए सांवत रूप हमीर की, सांवत सुण है बात । - सूरापण हुवै चौगनो, सूरां सदा सुहात ॥ प्रति के अन्त में सेना की संख्या है। 'अन्तेवरी', निधान, रतन, मुकुटबन्ध राजा, सोना रूपा का आगर, पट्टण, धूल के गढ़, रत्न आदि की भी संख्याएँ हैं जो अतिशयोक्ति पूर्ण हैं। .. - इस ग्रंथ की समीक्षा हम यथासक्य अन्यत्र करेंगे। ६.१ देखें श्री विश्वनाथप्रसाद मिश्र-वाल कवि', धीरेन्द्र वर्मा विशेषांक हिन्दी अनुशीलन, पृ० २३३, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८७ ) राजस्थान पुरातत्त्व मन्दिर सं० ४९०२ पर एक ग्रन्थ का आरम्म 'श्रीगने साय नमः' हमीराइन लीषतै शब्दों से होता है। किन्तु इसका आरंभ गणेशवन्दन है। उसके बाद सरस्वती की आराधना कवित्त है, जिसमें कृति का नाम 'हमीररासो' है। अन्तिम कवित्त में, जिसकी संख्या २८५ है, फिर पुस्तक 'हमीराइन' ग्रंथ के नाम से निर्दिष्ट है। समस्त ग्रन्थ देखने पर कुछ निश्चित रूप से लिखना सम्भव है। आरम्म दूसरी हमीरायण से कुछ भिन्न है। आगरे के श्री उदयशङ्कर शास्त्री के पास एक कृति है जिसका नाम "पातसाह अलावदीन चहुवान हमीर की वचनका भट्ट मोहिल कृत है।" किन्तु कृति के अन्दर कवि का नाम मल्ल है जो हम्मीर के कवित्तों के कर्ता मल्ल से भिन्न तथा पर्याप्त अर्वाचीन है। ___ इस ग्रंथ का आरम्भ गणपति की स्तुति से है। रणथम्भोर के दुर्ग का भी अच्छा वर्णन है ( ७-१४ ) । इसके बाद वनिका में हम्मीर-विषयक एक विचित्र कथा है । हम्मीर बादशाह का 'राजपूत' है, किन्तु उसे पूरे हाथ से सलाम न कर एक अंगुली दिखाता है। इसलिए उसे लोग बांका हमीर कहते थे। इस चैर का कारण बताने के लिए कवि ने सुल्तान के पूर्वजन्म की वार्ता दी है। सोमनाथ पट्टण में दो अनाथ ब्राह्मण बालकों ने जिनके नाम अलैया और कनैया थे, बारह वर्ष तक बिना किसी वृत्ति के गौएं चराई। फिर बारह वर्ष उन्होंने तीर्थयात्रा की और भनेक तीर्थो से सोमनाथ पर चढ़ाने के लिए जल ग्रहण किया। किन्तु शिव ने पण्डा भेजकर कहलाया कि यदि वे उस पर चल चढ़ायेंगे तो मन्दिर गिर पड़ेगा और शिवलिंग मग्न होगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८८ ) इससे दुःखी होकर दोनों काशी गए और काशी- करोत लेकर उन्होंने प्राण छोड़ें । अन्तिम समय में अलैया ने बादशाह बनकर गोवध और रुद्रमूर्ति के भङ्ग की प्रार्थना की और कनैया ने उनकी रक्षा के लिए श्यामसिंह सोनिंगरा के घर में अवतार की I आगे की कथा मुझे प्राप्त नहीं है । किन्तु इतने से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस ग्रंथ में विशेष ऐतिहासिकता नहीं है । यह केवल जन मनोरञ्जन के लिए घड़ी हुई बात है जिसके तत्त्व अनेक स्थलों से संगृहीत है । संस्कृत काव्यों में 'हम्मीर महाकाव्य' के अतिरिक्त सुर्जन चरित मैं हम्मीर की कथा है। वह जैत्रसिंह का पुत्र ( ११-७ ) और त्रिविध वीर था ( ११-८ ) । आसमुद्रान्त भूमि को विजित कर उसने तुरुष्कों पर आक्रमण किया और आसानी से दिल्ली जीत ली ( ११-१५-१६ ) । चम्बल में स्नान कर और मृत्युञ्जय भगवान् शिव का अर्चन कर उसने तुलादान दिया ( ११-४२-४६ ) । शुभ मूहूर्त में उसने 'कोटिमख' यज्ञ का आरम्भ किया ( ११-५८ ) । इस अवसर को उपयुक्त समझकर अलाउद्दीन रणथम्भोर के लिए रवाना हुआ ( ११-६४ ) । उसका भाई उल्लूखान भी ५०,००० सवारों सहित चला ( ११-६५ ), और जगरपुर में उसने डेरे डाले। हम्मीर के सेनापति रण ( रंग ) मल्ल ने उल्लूखान को हराया ( ११-६९ ) इससे क्रुद्ध होकर अलाउद्दीन ने रणथम्भोर को जा घेरा ( ११-७१ ) । हम्मीर कृत्य की समाप्ति पर रणथम्भोर वापस भाया ( ११-७४ ) । अलाउद्दीन का दून सन्देश लेकर उसके पास पहुँचा ( १२ - ३ ) । उसने कहा, बादशाह को राज्य करते सात वर्ष बीत चुके हैं । तुमने न कर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) द्वारा और न सेवा द्वारा उसे प्रसन्न किया है। तुमने बादशाह का बिगाड़ करने वाले महिमासाहि आदि को अपना सेनापति नियुक्त किया है। और कहने से क्या लाम ? तुमने जगरा तक को लूटा जहाँ उसके भाई के -सामन्तों का निवेश था। महिमासाहि आदि को पिंजरे में डालकर नज़र करो। सात साल का कर दो। अपने हाथी बादशाह को दो। सौ नर्तकी भी अर्पण करो। इतना करने से तुम्हारे प्राणों की रक्षा होगी और तुम्हारा राज्य समृद्ध होगा ( १२-८-२०) हम्मीर ने इसका समुचित उत्तर दिया (१२-२३-३८)। किन्तु धीरे-धीरे दुर्ग की आन्तरिक स्थिति को हम्मीर ने बिगड़ते देखा। उसकी -बहुत सी सेना शत्रु से जा मिली। किसी ने धन के लोम से और किसी ने भय से अलाउद्दीन की नौकरी स्वीकार की। कई चिर-निरोध की यंत्रणा से बाहर निकल गए। ऐसी स्थिति में हम्मीर ने युद्ध का ही निश्चय किया ( १२-४५.४७ ) राणियों ने जौहर किया ( १२-५५ ) और हम्मीर ने अपूर्व युद्ध ( १२-५८-७६ ) युद्ध में धराशायी होकर उसने अनुपम कीति रूपी शरीर की प्राप्ति की ( १२-७७ ) इस काव्य का रचयिता चन्द्रशेखर कवि अकबर का समकालीन था और उसने सुर्जन हाडा के बार बार कहने पर सुर्जन चरित की रचना की थी। काव्य में एकाध बात अतिरज्जित है । उदाहरण के लिए हम्मीर ने कभी दिल्ली पर अधिकार नहीं किया। किन्तु अधिकतर इसके कथन इतिहास सम्मत हैं। __ मुसलमानी साहित्य हम्मीर विषयक इतिहास का दूसरा पक्ष मुसलमानी इतिहासकारों ने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत किया है। समसामयिक लेखक होने के कारण उनके कथन में पर्याप्त सत्य की मात्रा है। माना कि पूर्वाग्रह वश उन्होंने अनेक बातें छिपाई हैं। किन्तु ऐसी बातें भी हमें उनसे प्राप्य हैं जिनके सम्यक् ज्ञान के बिना हम्मीर के जीवन को समझना कठिन है। . अमीर खुसरो-हम सबसे पहले अमीर खुसरो की रचनाओं को लेते है जिसके इतिहास ग्रन्थों की रचना सन् १२९१ से १३२० के बीच में हुई है। दिबलरानी में ( जिसकी रचना सन् १३१६ की है) अमीर खुसरो ने लिखा है :____ "देहली की विजय के उपरान्त जब सिन्ध और पहाड़ों तथा दरियाओं के प्रदेश सुल्तान के अधीन हो गए तो उसने निश्चय किया कि गुजरात का राय भी उसके अधीन हो जाय। उसने उलुगखाँ को आदेश दिया कि वह उस प्रदेश पर आक्रमण करे। उलुगखाने मुअज्जम झायन की ओर रवाना हुआ। रणथम्बोर पर उसने बड़ी तेजी से रक्तपात प्रारम्भ कर दिया | वहाँ का राघ हमयाराय ( हम्मीरदेव ) राय पिथौरा के वंश से था। दस हजार सवार देहली से २ सप्ताह में धावा मारकर वहाँ पहुँचे थे। वहां की चहारदीवारी ३ फरसंग के घेरे में थी और पत्थर की बनी हुई थी। (६४.६५) सुल्तान भी युद्ध के लिए वहां पहुँच गया; किन्तु उलुगखाँ को किले पर आक्रमण करने का आदेश देकर स्वयं चित्तौड़ पर अपना अधिकार जमा लिया"। १. खलजी कालीन भारत, पृ० १७१। २. फरसंग तीन मील के बराबर होता था। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) अलाउद्दीन और हम्मीर के संघर्ष का. इससे अधिक विस्तृत विवरण खुसरो के ग्रन्थ 'खजाइनुलफूतूह' में है जिसकी रचना उसने सन् १३११-१२ में की। भाषा अत्यन्त आलङ्कारिक है । खुसरो ने लिखा है, "जब भगवान् के छाये का आसमानी चित्र रणथम्बोर पहाड़ी पर पहुँचा तब अत्यधिक ऊँचा किला, जिसकी अट्टालिकाएँ नक्षत्रों से बात करती थीं घेर लिया गया। हिन्दुओं ने किले की दसों अट्टारियों पर आग लगा दी, किन्तु अभी तक मुसलमानों के पास इस अग्नि को बुझाने के लिए कोई सामग्री एकत्रित न हुई थी। थैलों में मिट्टी भर भर कर पाशेब' तैयार किया गया। कुछ अभागे नव मुसलमान जो कि इससे पूर्व मुगल थे हिन्दुओं से मिल गये थे। रजब से जीकाद ( मार्च से जुलाई ) तक विजयी सेना किले को घेरे रही। किले से बाणों की वर्षा के कारण पक्षी मी न उड़ सकते थे। इस कारण शाहीबाज़ भी वहाँ तक न पहुँच सकते थे। किले में अकाल पड़ गया। एक दाना चावल दो दाना सोना देकर भी प्राप्त नहीं हो सकता था। मव रोज के पश्चात् सूर्य रणथम्बोर की पहाड़ियों पर तेजी से चमकने लगा। राय को संसार में रक्षा का कोई भी स्थान न दिखाई पड़ता था। उसने किले में आग जलवा कर अपनी स्त्रियों को आग में जलवा दिया। तत्पश्चात् अपने दो एक साथियों के साथ पाशेब तक पहुंचा किन्तु उसे भगा दिया गया। इस प्रकार मंगलवार ३ जीकाद ७०० हिजरी ( १० जुलाई, १३०१ ई०) को किले पर विजय प्राप्त हो गई। झायन जो इससे पूर्व बहुत आबाद था और काफिरों का निवास स्थान था, मुसलमानों १ "मिट्टी का मचान जो किले की दीवारों की ऊँचाई के बराबर बनाया जाता था। इस पर आगे और पत्थर फेंकनेवाली मशीने रखी जाती थीं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२ ) का नया नगर बन गया। सर्व प्रथम बाहिर देव के मन्दिर का विनाश कर दिया गया। इसके उपरान्त कुम के घरों का विनाश कर दिया गया। बहुत से मजबूत मन्दिर जिन्हें कयामत का बिगुल भी न हिला सकता था, इस्लाम के पवन के चलने से भूमि पर सो गए।"१ जलाउद्दीन से संघर्ष १३०१ में हुआ। उससे लगभग १० वर्ष पूर्व जलालुद्दीन से हम्मीर का संघर्ष हुआ था। इसका अच्छा विवरण खुसरो ने सन् १२९१ में ही रचित मिफ ताहुल फुतूह नाम के ग्रंथ में दिया है। हम्मीर की पूरी जीवनी के लिए यह अंश भी उपयोगी है इसलिए हम उसे मी यहाँ उद्धृत कर रहे हैं। _ "( व्यवहाँ से ) दो सप्ताह यात्रा करके सुल्तान रणथंबोर की पहाड़ियों के निकट पहुँच गया। तुर्की ने देहातों का विनाश प्रारम्भ कर दिया। अग्रिम दल के सवार भेजे जाने लगे और हिन्दुओं की हत्या होने लगी। सुल्तान स्वयं झायन से चार फरसंग की दूरी पर रहा। कुछ सवार शत्रुओं के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिये भेजे गये। (२६) ने पहाड़ियों में शिकारियों की भांति शत्रुओं की खोज करने लगे। इसी बीच में उन्हें पांच सौ हिन्दू सवार दृष्टिगोचर हुए, दोनों सेनाओं में युद्ध हो गया। हिन्दू "मार-मार" का नारा लगाते थे। एक ही धावे में ७० हिन्दुओं की हत्या कर दी गई। वे लोग पराजित होकर भाग यये । शाही सेना विजय प्राप्त करके अपने शिविर की ओर वापस हो गई और सुल्तान तक समस्त समाचार पहुँचा दिया गया। उस प्रारम्भिक विजय से सुल्तान का बल और बढ़ गया। दूसरे दिन एक हजार वीर सैनिक भेजे गए.. सेना से झायन १ खलजी कालीन भारत पृ० १५९-६० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो फरसंग की दूरी पर था, किन्तु बीच में बड़ी कठिन पहाड़ियाँ थीं । शाही सेना एक ही धावे में पहाड़ियों में प्रविष्ट हो गई। उसके वहाँ पहुँच जाने से झायन में भी हलचल मच गई। राय को जब सूचना मिली तो उसके हाथ-पैर फूल गए। उसने साहिनी को बुलाया जो हिन्दू नहीं, अपितु लोहे का पहाड़ था और उसके अधीन चालीस हजार सैनिक थे जो मालवा तथा गुजरात तक धावे मार चुके थे। ( २७-२८) उससे युद्ध करने के लिये कहा । उसने दस हजार सैनिक एकत्रित किये। वे लोग झायन से शीघ्रा. तिशीघ्र चल खड़े हुए । तुर्क धनुर्धारियों ने बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। (७९) घमसान युद्ध होने लगा। साहिनी माग गया। एक ही धावे में हजारों रावत मारे गए। तुर्की की सेना का केवल एक खासादार मारा गया। झायन में कोलाहल मच गया। रातों रात राय और उसके पीछे बहुत से हिन्दू झायन से रणथम्बोर की पहाड़ियों की ओर भाग गए। ( ३० ) शाही सैनिक विजय प्राप्त करके रणभूमि से सुल्तान की सेवा में उपस्थित हो गए। बन्दी रावतों को पेश किया गया। जब लूट की धन सम्पत्ति पेश की गई तो सुल्तान बड़ा प्रसन्न हुआ।... तीसरे दिन दोपहर में सुल्तान मायन पहुँचा और राय के महल में उतरा। महल की सजावट और कारीगरी देखकर वह चकित रह गया। वह महल हिन्दुओं का स्वर्ग ज्ञात होता था। चूने की दीवारें आइने के समान थीं। उसमें चन्दन की लकड़ियाँ लगी थीं। बादशाह कुछ समय तक उस महल में रहकर बड़ा प्रसन्न हुआ।. वहाँ से निकल कर उसने मन्दिरों और उद्यानों की सैर की। मूर्तियों को देखकर वह आश्चर्य में पड़ गया। उस दिन तो वह मूर्तियों को देखकर वापस हो गया। दूसरे दिन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४ ) उसने सोने की मूर्तियाँ पत्थर से तुड़वा डाली। महलं, किला तथा मन्दिर तुड़वा डाले गये। लकड़ी के खम्मों को जलवा दिया गया। (३२) झायन की नींव इस तरह खोद डाली गई कि सैनिक धन सम्पत्ति द्वारा मालामाल हो गये। मन्दिरों से आवाज आने लगी कि शायद कोई अन्य महमूद जीवित हो गया। दो पीतल की मूर्तियां जिनमें से प्रत्येक एक हजार मन के लगभग थी तुड़वा डाली गई और उनके टुकड़ों को लोगों को दे दिया गया कि वे (देहली) लौटकर उन्हें मस्जिद के द्वार पर फेंक दें। तत्पश्चात् दो सेनाएँ दो सरदारों की अधीनता में भेजी गई। एक सेना का सरदार मलिक खुर्रम था और दूसरी सेना का सरदार महमूद सर जानदार था । ( ३३ ) झायन से भागकर कुछ काफिर पहाड़ी के दामन में छिप गये थे। मलिक खुर्रम सूचना पाते ही वहाँ पहुँच गया और अत्यधिक लोगों को बन्दी बना लिया। असंख्य पशु भी प्राप्त हुए। मलिक दासों को लेकर सुल्तान की सेवा में उपस्थित हुआ। सर जानदार ने चंबल तथा कुंवारी नदी पार करके मालवा की सीमा पर धावा मारा और वहाँ बहुत लूट मार की। सुल्तान ने झायन से प्रस्थान किया।' जलालुद्दीन के समय के संघर्ष का कुछ वर्णन अमीर खुसरो के तुगलक नामे में भी है। जिसका रचना काल सन् १३२० है। खुसरोखान पर विजय के बाद तुगलकशाह के भाषण को सुनकर लोगों ने कहा, "हे अमीर, तू अपने गुणों को दूसरों के नाम से क्यों बताता है। हम लोगों को तेरे विषय में पूर्ण जानकारी है, जिस समय बादशाह ( जलालुद्दीन खल्जी ) ने रणथम्बोर को घेर लिया और अपनी सेना के चारों ओर एक घेरा तैयार कर लिया तो उस समय राय १ खलजी कालीन भारत, पृष्ठ १५३-५४ . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) रणथम्बोर की एक चुनी हुई सेना ने उस धेरे पर धावा बोल दिया। इससे बादशाह की सेना में कोलाहल मच गया। उस समय बादशाह ने तुझे भी आदेश दिया और तू ने ही अपनी वीरता तथा परिश्रम से आक्रमणकारियों को पराजित किया। इस विजय के फलस्वरूप बादशाह ने तुझे विशेष रूप से सम्मानित किया।"१ __ अमीर खुसरों की रचनाओं में से उद्धृत ऊपर के अवतरणों में हम्मीर विषयक अनेक तथ्य है। किन्तु ये पुस्तकें तत्कालीन सुल्तानों को प्रसन्न करते और उनसे धन बटोरने के लिए लिखी गई थीं। इसलिए इनमें एक भी कटु सत्य न आने पाया है। विवरण एकांगी है और इसे पर्याप्त सावधानी से प्रयुक्त न करने पर कुछ असत्य के प्रचार की सम्भावना है। ___ एसामी :-एसामी ने 'फुतू हूस्सलातीन' की रचना सन् १३५० में की। उसके इतिहास में कई ऐसे तथ्य हैं जो अमीर खुसरो और नयचन्द्र की रचनाओं की अनुपूर्ति करते हैं। ___ सुल्तान जलालुद्दीन के बारे में उसने लिखा है कि "सुल्तान ने शिकार के नियम से झायन की ओर प्रस्थान किया। मायन पहुँचकर सुल्तान के आदेशानुसार सेना ने किले को टुकड़े-टुकड़े कर दिया। मन्दिरों का विध्वंस तथा हिन्दुओं का विनाश कर दिया।"२ अलाउद्दीन के भाई उलुराखां ने गुजरात की विजय के बाद वापस लौटती समय उलुनखाँ ने बलात् सरदारों लूट में से सुल्तान का हिस्सा वसूल कर लिया। “कमीज़ी मुहम्मदशाह, कामरू, यलचक तथा बर्क जो १ खलजी कालीन भारत, पृ० १९२ २ " " , पृ० १९५-९६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहले मुग़ल थे, धन सम्पत्ति मांगने पर उलुगखों की हत्या करने पर कटिबद्ध हो गए। उलुनखाँ उस स्थान पर न था जहाँ वह सोया करता था । उन लोगों एक शस्ता का जो कि शिविर के सामने था सिर काट लिया और उसे भाले की नोंक पर चढ़ाकर सेना में धुमाया। उलुगखाँ चुपके से नुसरतखाँ के पास पहुँचा। नुसरतखाँ ने विद्रोहियों पर आक्रमण कर दिया। यलचक तथा बर्क करणराय के पास भाग गए। कमीज़ी मुहम्मद शाह तथा काभरू रणथम्बोर के किले की ओर चल दिये ।... "उलुगखाँ ने झायन पर आक्रमण किया। जब उलुराखाँ को ज्ञात हुआ कि मुगलों ( मुसलमानों) से दो व्यक्ति राय हमीर की शरण में पहुँच गए हैं तो उसने एक दूत राय के पास भेजा और उसे लिखा कि कमीज़ी मुहम्मदशाह तथा कामरू दो विद्रोही तेरी शरण में आ गए हैं। ( २७०-२७१ ) तू हमारे दुश्मनों की हत्या कर दे अन्यथा युद्ध के लिये तैयार हो जा। हम्मीर ने अपने मन्त्रियों से परामर्श किया। उन्होंने उसे राय दी कि हमें युद्ध न करना चाहिए और उन दोनों को उनके सिपुर्द कर देना चाहिए। हम्मीर ने उत्तर दिया कि जो मेरी शरण में आ चुका है। मैं उसे किसी प्रकार हानि नहीं पहुँचा सकता चाहे प्रत्येक दिशा से इस किले पर अधिकार जमाने के लिए तुर्क एकत्रित क्यों न हो जायँ। राय हम्मीर ने उलुनखाँ को उत्तर लिख भेजा कि “जो लोग मेरी शरण में आ गए हैं उन्हें मैं किसी प्रकार तुझको नहीं दे सकता। यदि तू युद्ध करना चाहता है तो मैं तैयार हूँ।" उलुनखाँ ने यह उत्तर पाकर रणथम्बोर पर आक्रमण करके किले के निकट पहाड़ी के दामन में शिविर लगा दिए । किन्तु उसने देखा कि किले तक पक्षी मी न पहुंच सकते थे। यह देख Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) कर उलुग़खाँ ने सुल्तान से सहायता करने की प्रार्थना की। ( २७२-२७३ ) सुल्तान ने तुरंत हम्मीर पर आक्रमण करने के लिए शहर के बाहर शिबिर लगा दिए। दूसरे दिन वह तिलपट मायन की ओर रवाना हो गया। शाही सेना ने हम्मीर के किले के निकट पहुँचकर किले के चारों ओर शिविर लगा दिए। रात-दिन युद्ध होने लगा। प्रत्येक दिशा में ऊँचे-ऊँचे गरगच' तैयार किए गए। शाही सेना जो मी युक्ति करती, राय उसकी काट कर देता। यदि तुर्क खाइयों को लकड़ी से पाट देते थे तो रात्रि में हिन्दू लकड़ी को जला देते थे। एक वर्ष तक किले को कोई हानि न पहुँच सकी। इसके उपरान्त बादशाह ने एक ऐसी युक्ति की जिसकी काट राय न कर सका । उसने आदेश दिया कि समस्त सैनिक चमड़े तथा कपड़ों के थेले बना कर मिट्टी से भर दें और उन थेलों द्वारा खाई को पाट दें। इस प्रकार किले पर आक्रमण करने लिए मार्ग तैयार हो गया। दो तीन सप्ताह तक घोर युद्ध होता रहा। राय हम्मीर ने जौहर का आयोजन किया। अपनी समस्त बहुमूल्य वस्तुएँ जला डाली। इसके उपरान्त सबसे विदा होकर युद्ध के लिए निकला। फीरोज़ी मुहम्मद शाह और काभरू भी युद्ध के लिए उसके साथ निकले। राय हम्मीर युद्ध करता हुआ मारा गया।" १ "एक प्रकार का चलता फिरता मचान जिसे ऊँचा करके किले की दीवार के बराबर कर दिया जाता था और किले पर आक्रमण करने में सुविधा होती थी। कभी-कभी इस पर छत भी होती थी, जिससे किले के भीतर से आक्रमण करने वाले इन्हें कोई हानि न पहुंचा सकें।" ( खलज़ी कालीन भारत पृ० ३) २ खलजी कालीन भारत, पृ० १९५-६, १९८, २०...... Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) जिआउद्दीन बरनी-जियाउद्दीन बरनी का जन्म सन् १२८५ में हुआ। उसने तारीखे फोरोजशाही की समाप्ति सन् १३५७ में की जब बसकी आयु ७२ वर्ष की थी। उसके इतिहास में भी हम्मीर सम्बन्धी अनेक उपयोगी सूचनाएं हैं। उनमें से मुख्य ये हैं : (१) 'सन् ६८९ हिजरी ( १२९० ई० ) में सुल्तान जलालुद्दीन ने रणथम्बोर चढ़ाई की।...झायन पहुँच कर उसे अपने अधिकार में कर लिया। वहाँ के मन्दिरों को कलुषित कर डाला । . रणथम्बोर का राय, राजकुमारों, मुकद्दमों तथा प्रतिष्ठित व्यक्तियों एवं उनके परिवार सहित अपने किले में बन्द हो गया। सुल्तान की इच्छा थी कि रणथम्बोर पर अधिकार जमा लिया जाय। किले को घेर लेने का आदेश दे दिया गया। मगरबी' तैयार की गई। साबात एवं गरगच लगाए गये । किले पर अधिकार जमाने का प्रयत्न आरम्भ हो गया। अभी यह तैयारियां हो रही थी कि सुल्तान झायन से सवार हो कर रणथम्बोर पहुँचा । किले का निरीक्षण करके चिन्ता में पड़ गया। सायंकाल फिर झायन लौट गया। दूसरे दिन राज्य के पदाधिकारियों तथा सरदारों को बुलवा भेजा। उनसे कहा कि मेरी इच्छा है कि किले पर अधिकार जमा लू । कल जब मैंने किले के निरीक्षण करने के उपरान्त सोच-विचार किया तो मेरी समझ में यह आया कि यह किला उस समय तक विजय नहीं हो सकता जब तक मुसल्मानों की बहुत बड़ी संख्या इस किले को प्राप्त . १-इसका अर्थ तोप भी बताया गया है, किन्तु सम्भव है कि इसके द्वारा आग तथा शीघ्र जलने वाले पदार्थ फेंके जाते हों (खजली कालीन भारत, उ) । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ɛɛ ) : करने के लिये अपने प्राण न त्याग दे और किले पर विजय प्राप्त करने के लिये न्यौछावर न हो जाय । साबातों के नीचे, पाशेब बनाने तथा गरगच लगाने में अपनी जान की बलि न दे दें।.... यह कहकर किले को विजय करने के विचार त्याग दिये और दूसरे दिन कूच करता हुआ सुरक्षित तथा बिना किसी हानि के अपनी राजधानी में पहुँच गया ।” ( २ ) अलाउलमुल्क की राय से सहमत होकर अलाउद्दीन ने विश्वविजय के स्थान पर सर्व प्रथम भारत के हिन्दू राज्यों को जीतने का निश्चय किया । ' सर्वप्रथम अलाउद्दीन ने रणथम्भोर पर विजय प्राप्त करना आवश्यक समझा, कारण कि वह देहली के निकट था और देहली के पिथौराराय का नाती हमीरदेव उस किले का स्वामी था । बयाना की अक्ता के स्वामी उलुगखां को उसे विजय करने के लिए भेजा । नुसरतखाँ को जो उस वर्ष कड़े का मुक्ता था, आदेश भेजा कि कड़े की समस्त सेना तथा हिन्दुस्तान की सब अक्ताओं की सेनाओं को लेकर रणथम्भोर की ओर प्रस्थान करे और रणथम्भोर की विजय में उलगखाँ को सहायता प्रदान करे। उलुगखाँ और नुसरतखाँ ने कायन पर अधिकार जमा लिया । रणथम्भोर का किला घेर लिया और किला जीतने में लग गए । एक दिन नुसरतखाँ किले के निकट पाशेब बंधवाने तथा गरगच लगवाने में तल्लीन था, किले के भीतर से मगरबी पत्थर फेंके जा रहे थे । अचानक एक पत्थर नुसरतखाँ को लगा और तीन दिन उपरान्त उसकी मृत्यु हो गई । वह घायल हो गया । दो यह समाचार अलाउद्दीन को मिला तो वह राजसी ठाठ से शहर से बाहर निकल कर रणथम्भोर की तरफ रवाना हुआ ।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) तिलपत में अलाउद्दीन के भतीजे अकत खाँ ने उसकी हत्या करने का प्रयत्न किया। 'अकतखाँ के उपद्रव को शान्त करने के पश्चात् अलाउद्दीन लगातार कूच करता हुआ रणथम्भोर की ओर रवाना हुआ और वहाँ पहुँचकर डेरे डाल दिये ।... ___ "इससे पूर्व किले को घेर रखा गया था। सुल्तान के पहुँचने के उपरान्त इसमें और तेजी हो गई। राज्य के चारों ओर से बेरियाँ लाई गई। उनके थैले बना बना कर सेना में बाँट दिये गये। थैलों में बाल भरी गयी और वे खन्दकों (खाई ) में डाल दिये गये। पाशेब बांधे गये। गरगच लगाये गये। किलेवालों ने मगरबी पत्थरों द्वारा पाशेबों को हानि पहुँचानी प्रारम्भ कर दी। वे किले के ऊपर से आग फेंकते थे और लोग दोनों ओर से मारे जाते थे।" ___इसी बीचमें अलाउद्दीन को बदायूं और अवध में उसके भानजों के विद्रोह की सूचना मिली। अपने अमीरों को उनके विरुद्ध भेजकर सुल्तान ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। दिल्ली में मौला हाजी ने विद्रोह किया। किन्तु वह भी कई राजभक्त सरदारों ने समाप्त कर दिया। दिल्ली के सब समाचार अलाउद्दीन को मिले। “किन्तु उसने रणथम्भोर का किला जीतने का दृढ़ संकल्प कर लिया था। अतः वह अपने स्थान से न हिला और न देहली की ओर प्रस्थान किया। जितनी सेना भी किले. की विजय में लगी हुई थी, वह सब की सब परेशान हो चुकी थी किन्तु सुल्तान अलाउद्दीन के भय और डर से कोई सवार अथवा प्यादा न तो देहली की ओर प्रस्थान कर सकता और न किसी अन्य ओर।" .. "सुल्तान अलाउद्दीन ने हाजी मौला के विद्रोह के उपरान्त बड़े Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) परिश्रम तथा रक्तपात के पश्चात् रणथम्भोर के किले पर अपना अधिकार जमा लिया। राय हम्मीरदेव तथा उन नव मुसलमानों को जो कि गुजरात के विद्रोह के उपरान्त भाग कर उसकी शरण में पहुंच गए थे, हत्या करा दी। रणथम्भोर तथा उस स्थान के आस पास के विलायत ( प्रदेश) एवं वहाँ का सब कुछ उलुगखां के . सुपुर्द कर दिया गया । अहमद बिन अब्दुल्लाह सरहिन्दी-इस लेखक की तारीखे । मुबारकशाही में भी हम्मीर पर आक्रमण का वर्णन है। इसके अनुसार हम्मीर के पास १२,००० सवार, अगणित प्यादे तथा प्रसिद्ध हाथी थे। फरिश्ता :-फरिश्ता ने अपनी तवारीख 'तारीखे फरिश्ता' की रचना सन् १६०६-१६०७ में की। उसका निम्नलिखित वर्णन मी कुछ नवीन तथ्यों से युक्त है : "नुसरतखों की मृत्यु के बाद हम्मीरदेव ने दो लाख सवारों और पैदलों के साथ गढ़ से निकल कर युद्ध किया। उलुगखाँ घेरा उठाकर झाईन वापस गया और वहाँ से सब हाल बादशाह को लिखा। जब गढरोध एक साल तक या दूसरे कथन के अनुसार तीन साल तक चल चुका था, बादशाह ने चारों ओर से सेना एकत्रित की और उन्हें थैले बाँटे। हर एक ने अपना थेला भरा और उसे खाई में फेंका, 1-खलजीकालीन भारत, पृ० २२-२३, ५९.६५, २- " , पृ० २२३-२२४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) जिसका नाम 'रन' था। इस तरह ( गढ़ की ) दिवार तक ऊँचाई बनने पर घिरे हुए. आदमियों को हराकर उन्होंने किला ले लिया। हम्मीरदेव अपने जाति भाइयों के साथ मारा गया। मुहम्मद शाह के नेतृत्व में कई लोगों ने विद्रोह किया था और जालोर से रणथम्भोर मान आए थे। ये अधिकांश में मारे गए । मीर मुहम्मद शाह स्वयं घायल होकर पड़ा हुआ था। जब सुल्तान की नजर उस पर पड़ी तो उसने दयाभाव से उससे पूछा, मैं तुम्हारी मरहमपट्टी करवाऊँ और तुम्हें इस खतरनाक हालत से बचा लू तो भविष्य में तुम मेरे से कैसा व्यवहार करोगे ?" उसने उत्तर दिया, “मैं स्वस्थ हुआ तो तुम्हें मार कर मैं हम्मीरदेव के पुत्र को गद्दीनशीन करूँगा।” क्रोधाविष्ट होकर सुल्तान ने उसे हाथी के पैरों के नीचे कुचलवा दिया, किन्तु फौरन ही मुहम्मदशाह की हिम्मत और स्वामिधर्मिता का स्मरण कर उसके मृत शरीर को अच्छी तरह दफनवा दिया। इसके अतिरिक्त उसने उन आदमियों को भी मरवा दिया...जिन्होंने राजा को छोड़ दिया था, जैसे राजा के वजीर रणमल आदि। उसने कहा, "अपने स्वामी के प्रति इनका ऐसा व्यवहार रहा है। ये मेरे प्रति सच्चे कैसे हो सकते हैं ?" __ बरनी के वर्णन से अमीर खुसरों की कुछ जान बूझ कर की हुई गल्तियां दूर की जा सकती हैं। जलालुद्दीन ने न खुशी से रणथंमोर छोडा और न माईन। वह इसके लिए विवश हुआ था। हम्मीर ने १-खजाइनुलफूतूह, जर्नल आफ इण्डियन हिस्ट्री, १६२६, पृ. ३६५ पर तारीखे फरिश्ता से अंग्रेजी में अनूदित अवतरण का हिन्दी अनुवाद । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ )। अलाउद्दीन को भी आसानी से दुर्ग नहीं दिया, उसने अन्त तक अलाउद्दीन का सामना किया और अनेक बार उसके प्रयत्नों को विफल किया। और इसामी का वर्णन तो और भी अधिक उपयोगी है। उसने चारों मुगल बन्धुओं के नाम दिए हैं। नयचन्द्र ने महिमासाहि को काम्बोज कुलान्वय बताया है, क्योंकि उसका नाम कमीजी मुहम्मदशाह था। नयचन्द्र का गाभरूक वास्तव में कामरू है, और विचर और तिचर वास्तव में यलचक तथा बर्क हैं। इनमें से इसामी के कथनानुसार यलचक और वर्क कर्ण के पास चले गए थे। किन्तु यह सम्भव है कि वहाँ अपने को सुरक्षित न समझ कर वे रणथंभोर चले आए हों। उसने उलगखों और हम्मीर को दूत द्वारा उत्तर और प्रत्युत्तर भी दिया है। इसमें हम्मीर के वास्तविक चरित की अच्छी झलक है। उलुगखाँ और अलाउद्दीन के दुर्ग को हस्तगत करने के प्रयत्नां का भी इसमें विशद वर्णन है। जौहर का और हम्मीर की वीर मृत्यु का भी इसामी ने समुचित रूप में उल्लेख किया है। फरिश्ता के वर्णन में भी कुछ ऐसी बातें हैं जो अन्य मुसल्मानी तवारीखों में नहीं हैं। शिलालख हम्मीर के दो तिथियुक्त शिलालेख मिले हैं, एक सम्वत् १३४५ का और दूसरा संवत् १३४९ का। पहले में रणथम्भोर शाखा के तीन राजाओं के नाम हैं, वाग्भट, जैत्रसिंह और हम्मीर। जैत्रसिंह ने मण्डप के राजा जयसिंह को तप्त किया, कूर्मराज और कर्करालगिरि के राजा को मारा। झम्फाइथाघाटे में उसने मालवे के राजा के सैकड़ों वीर योद्धाओं को Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' ( १०४ ) पराजित किया। और रणथम्भोर में कैद में डाला। उसका पुत्र हम्मीर था। हम्मीर ने अर्जुन को हराकर मालवे से उसली यशः श्री छीन ली। उसका मन्त्रिमुख्य कटारिया जातीय कायस्थ नरपति था। प्रशस्ति लेखक हम्मीर का पौराणिक बीजादित्य था। दूसरे की तिथि माघ शुक्ला षष्ठी है। बलवन का शिलालेख सन् १२८८ (सं• १३४५) की राजनीतिक और धामिक स्थिति को समझने के लिए विशेषरूप से उपयोगी है। उसके मूल पाठ का ऐतिहासिक माग निम्नलिखित है : ॐ “शंवो लम्बोदरो देयादेककालं कलत्रयोः । बुद्धिः सिद्धयोः स्तन-स्पर्श-हेतीरिव चतुर्भुजः ॥ १॥ दद्रु-श्लीपद-कुष्ठ दुष्टवपुषामाधिं विनिघ्नन्नृणां कारुण्येन समीहितं वितनुतां देवः कपालीश्वरः । वामे यस्य चकास्ति चक्रतटिनी पृष्ठे च मन्दाकिनी निर्यत्-केतुमुखापगां-जलवहं कुंडं प्रसिद्धं पुरः ॥ २ ॥ यदंतिके श्राद्धकृता कुलकोटि विमुक्तिदः । अनादिपादपोद्यापि दृश्यते किल शाल्मलिः ॥ ३ ॥ चाहमान-नरेन्द्राणां वंशो विजयतामयं । उपायुज्यत यहडः कलौ गोवृष रक्षणे ॥ ४ ॥ कलिकाल केसरि-कुल-त्रस्यद्-गोचक्र-रक्षणेदक्षाः। .. अभवन्-विजित-विपक्षाः पृथिवीराजादयो भूपाः ॥ ५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण Tracinnar.ETINorwWINIREDITIOTSTAR PER हातगंदादिमकालंकाल जटोवलिमिटा सनसशहितारिवचन शाट मापद कुपवश्व REGRAHA Himaniraryीरासमेटाधारकादिवानीश्वमदाकिबायकवगरवापमाऊलवह कईपासायनिकवास MPEDमदादिगोहावितकिलशालालाबाट माननाडापावशावकटानामधाउपायुज्यतयादवली गेवर EMAaramraram Raralalsinian Laराकादयावयागपत समझानालामवावधवावनी RATANI HandsArममनकामदावादEनताफददामामामिदा नबनमाणमात्माटामहमलातपतिशकमठी हिनोसकरवा ठोजिकमेरअठापरायक केरालमिरपानकालगानिवलकरालकरवासनविरजातिवनमाया मालवेशनटाशतोवतारAIYAमानीताचदासतliuभिवादननावानदानमथपादरपतिलकानामानामामामा ताधिनयवादोहगौरवपतिर्विवत तमायाकोटिदोसहितदक्कारखागीमकानापुननिनादानात्ययेनानिमामिला भीमोलवयोडाटहनामा प्रस्ट्यावमशकसहकानिटानामासस्य कायक्षमाकरतापरमपराविनियतका बसकटारिटायवाटावी काता युनतमेवीधरमंकाः कमेषमणमापामारलकायमदनलाणाधिकालालका विचकागानायश्चतता. कोमलेकाणेतवत्सलतवनकालपेपालसवालापाचातनदानवाटापाण्यगजपालमवालवारतालयाला मिवरिष्टोविष्टायपिद उसोमागमा वराडादहिनापतितायवंशीवनिविजामलिदेवगतस्य सतीसाला लक्समसमायोजनितकीमियामाहमिदाक्षिमततमातिनामीशानमानसलामवदश्यक मोमबापतिजीनिमाजमनाया वामोदरता नायादोमवामधमियामृतांशुः यी मरिनामागोजानानदीपमानटानासतावखानालार्यालयातेरसता मानिनेपा(पान मानावामुक्षयातायकाधादिषपनांदेरी मदशकातलावाचस्पाती निमतमातमी सानदायमारवामगा जोविनीमाधिनत शताशिवनाकारलाश्वाउने वाचतिविपिताकतनावमरमरवोपमापरिश्तपचन पदामिन दोटोपनाह मियाका विदया पवार्थमीक्छणावाजिपातडामाकरितानाबमुक्त यादतिललितपशी मारकास्तप्रयागमर मितधामका कायापाशमलदकातरमवीहत शवस्तिपिता सवालसकलगादावाही नतानिपतचा २४ रिका मोव मरकामारोदनवेदिताटावी पदारमादिौमाजमिवियातली मक्षत्पातहमात्र गामवचनापलालबतायात गोपादामाजाधिरतिघरादानीबड़वातोदातर यासंगिहमधिलाषचंदसंघमावतारहस्तोतनाथमुताबविवटचारकर विषवापरावीच समहतिमलजीवर नियमाजमविरायगपदववद्यादि सहितकादीमा माता दतक समनिममिव तरराजवाचनबाई वसावाल तसत मायावदान TREमामहमपंचमालादादप्राम सारतदेवीमाadlife समलमलमालकालावयाहव्यममातिनामसकतवावाउनहानियतनमानदार "सदापियतिमात मिटाकार्षदोघमायरवावटामा ३१धीजनामोमिमानदावितीदी कवितातक के शवानमा दया मामा यादेवा गमावालबालालाममा डाटा सिंह सुमोम सायनातापदानावश्काईगालचालानवापादनाममा नायवसापान नरबतिधारास्यवन धीहमीपस्चामानशासनिलीतीयालमतिमाशापमुतवक्षर सामिया मताश्च कुलदेवता सकालनादिपुनषादात्यायाधिकरणमतपुरदयादवालावल्याकारयान पानामप्पिलवारा सिंहकिकत गोदावय कमावसभावासहमकिकविषय पीपाटामा छ रथयारापिकवलासोपामारावारिमानादिमावावापास्तामतानवियत हम्मीर कालीन शिलालेख (सं०१३४५) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) तद्वंशे राजानो मानव इव वैधवा बभूवांसः । वाग्भट देव-प्रमुखाः जन-कुमुदोल्लासनैक-सद्मावाः ॥ ६ ॥ ततोभ्युदयमासाद्य जैत्रसिंह-रवि-नवः । अपि मंडप-मध्यस्थं जयसिंहमतीतपत् ॥ ७ ॥ कूर्म-क्षितीश-कमठी कठिनोरुकंठपीठी-विलंठन-कठोर-कुठारधारः ॥ यः कर्करालगिरि पालक पाल पालिखेलत-कराल-करवाल-करी विरेजे ॥८॥ येन झपाइथा-घट्ट मालवेश-मटा शतं। बद्ध्वा रणस्तंमपुरे क्षिप्ता नीताश्च दासताम् ॥ ९ ॥ तस्मिन् सुवर्ण-धन-दान-निदान-पुण्यपश्यैः पुरंदर-पुरी-तिलकायमाने । साम्राज्यमाज्य-परितोषितहव्यवाहो हमीर-भूपतिरविन्दत भूतधात्र्याः ॥ यः कोटिहोम-द्वितयं चकार श्रेणी गजानां पुनरानिनाय। निजित्य येनार्जुनमाजि मूर्ध्नि श्रीमालवस्योज्जगृहे हठेन ॥ ११ ॥ रणस्तंभपुरे दुग्गै वेश्म पुष्पक संज्ञकं । तिभिर्भूमिमियुक्त यः कांचनमचीकरत् ॥ १२ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) इसके बाद में मथुरा-पुरी-विनिर्गत कटारिया कायस्थों के एक वंश का वर्णन है । उसकी वंशावली निम्नलिखित है : अनन्त सेढ श्रीधर लक्षण पूर्णपाल (भूपाल प्रिय ) -सोमण = सोमल . - नरपति = नयश्री श्रीपति पद्मसिंह थीरू लोल लक्ष्मीधर सोम मोक्षसिंह । गांगदेव जयसिंह केशव सोढ नरपति जैत्रसिंह और हम्मीर का मंत्रि-मुख्य था। उसका कुल धीर स्वामिनी और सप्ताश्व ( सूर्य ) का पूजक था। उसने रणथंभोर में चार मन्दिर और पिप्पलवाट में वापी बनाई। सिंहपुरी, कुरुक्षेत्र और गोदावरी पर एक-एक सहस्र गाय ब्राह्मणों को दी। नरपति की पत्नी ने एक ही दिन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) स्नान करके ताम्र, कांस्य आदि वस्तुओं की दश तुला दीं। गुरु के सिंहराशिस्थ होने पर उसने सुवर्णशृङ्ग वाली सौ गौ ब्राह्मणों को दीं । उनका पुत्र सूर्यमन्त्र के सार का ज्ञाता था । लोल त्रिपुरा का पूजक था । लक्ष्मीधर विविधदेशीय लिपियों और अनेक विद्याओं को जानता था और राजा के यहाँ उसका मान था । सोम धनी था और विद्वान् भी । श्रीहम्मीर के पौराणिक नृपामात्य वैजादित्य ने इस प्रशस्ति की रचना की । अग्रिम पंक्तियों में इन्हीं सब इतिहास के साधनों के आधार पर हम हम्मीर के जीवन की इतिहासानुमत जीवनी प्रस्तुत कर रहे हैं । 'सत्य ही आनन्द है”, – ऐसा पूर्ण विश्वास रखते हुए हम हम्मीर - विषयक साहित्य के प्रेमी इस इतिवृत्त से प्राप्ति करेंगे। आशा रखते हैं कि भी कुछ आनन्द की हम्मीर भारतीय संस्कृति और स्वतन्त्रता के लिए युद्ध करना सदा से चौहान जाति का कर्तव्य रहा है। पृथ्वीराज और हम्मीर के वंशजों में अब भी आदर्श विशेष की प्रतिष्ठा के लिए अपने प्राणों को उत्सर्ग करने वाले पूर्वजों के प्रति सम्मान है; अब भी अनेक चौहान हृदयों में यह प्रबल उत्कण्ठा है कि अपने महान् पूर्वजों की तरह वे भी अपनी मातृभूमि की सेवा करें। कहा जाता है कि म्लेच्छों से देश की रक्षा करने के लिए आदि चाहमान का जन्म हुआ था । यह पुरानी कथा है। किन्तु ऐतिहासिक काल में उनकी म्लेच्छ विरोधी सेवाओं के अनेक प्रमाण है । आठवीं शताब्दी में जब अरब लोग सिन्ध को जीतकर चारों ओर अग्रसर होने लगे तो अनेक राजपूत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) जातियों ने जिनमें प्रतिहार, चौहान और राष्ट्रकूट प्रमुख हैं भारत की स्वतन्त्रता और संस्कृति की रक्षा के लिए सफल संग्राम किया चौहानों को इस बात का गर्व था कि वे कार्यानुरूप 'आदिवराह' विरूद को धारण करनेवाले महाराजाधिराज भोज के दाहिने हाथ थे । और जब प्रतिहार साम्राज्य का सूर्य अस्त हो गया और मुसलमानी सेनाएँ भारतीय संस्कृति और स्वातन्त्र्य को पददलित करती हुई चारों ओर धावे मारने लगी, चौहानों ने इन विधर्मियों से मोर्चा लेने का बीड़ा उठाया । दुर्लभराज तृतीय ने यवनराज इब्राहीम को रोकने में प्राण दिए, ' अजयराज को प्रसिद्ध : मुस्लिम सेनापति बलिम का सामना करना पड़ा, और अजयराज के पुत्र अर्णोराज ने उस मैदान में, जहाँ वर्तमान आनासागर है, बुरी तरह से मुसल्मानों को परास्त कर अजयमेरु को वास्तव में अजय सिद्ध कर दिया ' । बीसलदेव चतुर्थ को तो गर्व ही इस बात का था कि म्लेच्छों का विच्छेदन कर आर्यावर्त को सच्चे अर्थ में आर्यावर्त बना दिया था । पृथ्वीराज तृतीय के वीरकृत्यों से सभी परिचित हैं । भारत की फूट और राजपूतों की राजनैतिक बालिशता का एक ज्वलंत उदाहरण तराईन का दूसरा संग्राम है" । २ १. देखें 'अल चौहान डिनेस्टीज' ( प्राचीन चौहान राजवंश ) पृ०३५ , २. देखें वही पृ० ३८-४२ ३. देखें वही पृ० ४३-४५ जिस मैदान में मुसलमान हारे थे, उसे पवित्र करने के लिए ही आनासागर झील का निर्माण हुआ था ( पृथ्वीराज विजय, ६, १-२७ ) ४. देखें 'अर्ली चौहान डिनेस्टीज़, पृ० ६०-२ ५. विशेष विवरण के लिए देखें वही, पृ० ८८- ९० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) अजमेर और दिल्ली छोड़कर चौहानों ने रणथंभोर में एक नया राज्य की स्थापना की। किन्तु सन् १२२६ में इल्तुत्मिश ने रणथम्भोर पर अधिकार कर लिया। लगभग दस साल बाद पृथ्वीराज तृतीय के प्रपौत्र वाग्मट ने रणथम्भोर पर घेरा डाला। थोड़े ही दिनों में दुर्गस्थ मुस्लिम सिपाही भूख और प्यास से तड़पने लगे। यह अज्ञान है कि उनमें से कितने बचे ; किन्तु यह निश्चित है कि चौहानों ने रणथम्भोर पर वापस अधिकार जमा लिया। मुसल्मानों ने सन् १२४८ और १२५३ में दुर्ग को फिर जीतने की कोशिश की' । किन्तु दोनों बार काफी हानि उठाकर उन्हें वापस होना पड़ा और वाग्भट की शक्ति लगातार बढ़ती ही गई। सन् १२५४ के लगभग वाग्भट का पुत्र जैत्रसिंह सिंहानारूढ़ हुआ। हम्मीर के शिलालेख के अनुसार, "जैत्रसिंह एक नवीन प्रकार का सूर्य था, क्योंकि उसने मण्डप में भी स्थित जयसिंह को तप्त किया। उसके कठोर कुठार की धारा ने कूर्मराज ( कछवाहे राजा ) के कंठ का छेदन किया था। उसकी तलवार ककरालगिरि के पालक के सिर पर खेल चुकी थी, उसने झपाइथा-घट्ट में मालवे के राजा के सौ सैनिकों को पकड़ लिया और उन्हें अपना दास बनाया२" इस उल्लेख से स्पष्ट है कि जैत्रसिंह भी प्रवर्धमान राज्य का स्वामी था। शायद आमेर के कछवाहे राजा को मारकर उसने आमेर का कुछ भू-भाग अपने राज्य में मिला लिया हो। कर्करालगिरि शायद यादव राजपूतों के हाथ में रहा हो । विशेष संघर्ष मालवे से था। झफाइथा घट्ट झवाइत-घाट) के स्थान पर (जो चंबल १. देखें वही पृ० १०३-१०५ २. शिलालेख ऊपर देखें । यह श्लोकों का भावार्थ मात्र है । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (. ११० ) नदी पर लाखेरी के स्टेशन से ठीक दस मील दक्षिण की ओर है) जैत्रसिंह ने मालवे के अनेक सैनिकों को पकड़ा। सम्भव है कि मालवा वालों ने जैत्रसिंह के अनेक छोटे-मोटे आक्रमणों के उत्तर में कुछ सेना भेजी हो, या उस घाटी द्वारा रणथम्भोर के राज्य पर आक्रमण करने का प्रयत्न किया हो। उस समय जयसिंह तृतीय धारा का शासक था ; किन्तु सम्भव है कि मण्डप को हो इसने अपना मुख्य आवास स्थान बनाया हो। डा०डी०सी० सरकार के मतानुसार इसका दूसरा नाम जयवर्मा भी था' । इसका एक दान पत्र वि० सं० १३१७, ज्ये० सुदी ११ का मंडपदुर्ग ( मांडू ) से दिया हुआ मिला है (एपिग्राफिया इण्डिका, ९, १२०-३) , ___ सन् १२५९ में दिल्ली के सुल्तान नासिरुद्दीन ने रणथम्भोर को हस्तगत करने का प्रयत्न किया। किन्तु उसके सिर पर भी असफलता का ही सेहरा बंधार । जैत्रसिंह के तीन पुत्र थे, सुरतान, वीरम और हम्मीर। सुरतान इनमें ज्येष्ठ था, किन्तु हम्मीर सबसे योग्य । अतः जैत्रसिंह ने अपने जीवनकाल में ही वि० सं० १३३९ ( सन् १२८३ ) माघ शु० पूर्णिमा, रविवार के दिन हम्मीर का राज्याभिषेक किया। इसके बाद भी जैत्रसिंह सम्भवतः तीन वर्ष और जीवित रहा। हम्मीर के राज्य के आरम्भिक काल में राजनैतिक स्थिति बहुत कुछ उसके अनुकूल थी। सन् १२८६ में बल्बन की मृत्यु के बाद लगभग चार १. परमारवंश दर्पण, पृ. ९ टिप्पण १४ २. अर्ली चौहान डिनेस्टीज, पृ० १०५-१०६ ३. हम्मीर महाकाव्य ७, ५३-५६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १११ ) साल तक दिल्ली में कोई ऐसा शासक न था जो हम्मीर की बढ़ती शक्ति को रोकता। मालवे का पड़ोसी राज्य भी अवनति की ओर अग्रसर हो रहा था। शायद वह दो भागों में भी विभक्त हो चुका हो, जिसमें एक की राजधानी शायद मंडप में और दूसरे की अन्यत्र हो । . वास्तव में देवपाल की मृत्यु के बाद ही स्थिति खराब हो चली थी। मालवे का अमात्य गोगदेव आधे मालवे का स्वामी बन बैठा था; अवशिष्ट भाग में भी कुछ शान्ति न थी। गुजरात में सारङ्गदेव का राज्य था। किन्तु गुजरात के भी समृद्धि के दिन बीत चुके थे। चित्तौड़ में महाराजकुल समरसिंह राज्य कर रहा था जो शक्तिहीन तो नहीं, किन्तु जिगीषु राजा न था। ____ अमीरखुसरो अपने ग्रन्थ मिताहुलफुतूह में, जिसकी रचना सन् १२९१ में हुई थी, हम्मीर के एक साहनी का जिक्र किया है जिसने मालवा और गुजरात तक धावे किए थे। इससे स्पष्ट है कि हम्मीर की दिग्विजय सन् १२९१ से पूर्व हो चुकी थी, और ऐसा हो अनुमान हम हम्मीर के वि० सं० १३४५ ( सन् १२८८) से शिलालेख से भी कर सकते हैं। हम्मीर विजय महाकाव्य में इस दिग्विजय का वर्णन निम्नलिखित है : "कोई कहते थे कि इसकी सेना में हाथी अधिक हैं, कोई घोड़े, कोई इसके पैदलों के और कोई उसके रथों के प्राचुर्य की बातें करता था। क्रम से पृथ्वी को पार करता हुआ वह भीमरसपुर पहुंचा। वहाँ शत्रुत्व धारण करने वाले अर्जुनराजा को अपनी तलवार से कूटकर उसने अपना आज्ञाकारी १, ऊपर उद्वरण देखें। २. हम्मीर महाकाव्य, ९, १४-४८, प्रशंसात्मक विशेषण और इतिहास की दृष्टि से असार्थक वर्णनों का अनुवाद हमने नहीं किया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) बनाया। फिर मण्डलकृत दुर्ग से कर लेकर वह शीघ्र ही धारा पहुँचा । वहाँ परमार वंश में प्रौढ़ राजा भोज को, जो दूसरे मोज की तरह था, उसने म्लान किया । तदनन्तर उसने अवंति ( उज्जयिनी ) पर आक्रमण किया और शिप्रा में स्नान कर महाकाल का अर्चन किया। वहां से लौटकर उसने चित्रकूट को कूटा और आबू पहुँचकर वहाँ अपने तम्बू लगाए। पहाड़ पर चढ़कर विमलवसही में उसने श्रीऋषभदेव को प्रणाम किया। वस्तुपाल के मन्दिर को देखकर वह विस्मित हुआ। अर्बुदा को उसने भक्ति समेत प्रणाम किया और वशिष्ठाश्रम में आराम कर और मन्दाकिनी में स्नानकर उसने भगवान् अचलेश्वर का पूजन किया। यहाँ अर्बुदेश्वर ने उसे सर्वस्व अर्पण किया। वहाँ से उतर कर वर्धनपुर को निर्धन और चङ्गा को रङ्गरहित कर वह अजमेर होता हुआ पुष्कर पहुंचा और स्नान किया। उसके बाद शाकम्भरी, महाराष्ट्र और खंडिल्ल को उसने निष्प्रभ किया। ककराला में त्रिभुवनाद्रि के स्वामी ने उसे मान दिया। इस प्रकार सर्वत्र विजय करता हुआ वह रणथंभोर लौटा' ।" - इन सब विजित स्थानों की पहचान कुछ कठिन है। पहला स्थान भीमरस है जिसका स्वामी अर्जुन था। यह अर्जुन सम्भवतः मालवे का राजा अर्जुन होगा, जिसे हराकर हम्मीर ने बलात् उसके हाथी छीन लिए थे । इस विजय के फलस्वरूप चम्बल से लगता हुआ मालव राज्य का कुछ भाग भी हम्मीर के हाथ लगा होगा। दूसरा विजित स्थान मण्डलकृत् है। यह सम्भवतः माण्डू है । हम्मीर के पिता ने उसके राजा जयसिंह को तप्त किया था। हम्मीर ने उस नगर से कर वसूल किया। हम्मीर महाकाव्य में इससे १. सर्ग ९ श्लोक १३-५१ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) आगे बढ़कर हम्मीर द्वारा धाराधीश भोज द्वितीय की पराजय का वर्णन है। किन्तु सं० १३४५ के हम्मीर के शिलालेख में इस विजय का उल्लेख नहीं है। इसलिये या तो यह विजय वि० सं० १३४५ के बाद हुई होगी। या नयचन्द्र के वर्णन में कुछ अत्युक्ति है। धारा के बाद हम्मीर का प्रयाण उत्तर की ओर है । उसने उजयिनी पर आक्रमण किया । वहाँ से मुड़कर उसने चित्रकूट पर छापा मारा। नयचन्द्र का यह कथन सत्य माना जाय तो महारावल समरसिंह को भी हम्मीर के हाथ पराजित होना पड़ा था। चित्तोड़ से हम्मीर आबू पहुंचा। उस समय अर्बुदेश्वर सम्भवतः प्रतापसिंह परमार रहा हो । वर्धनपुर बदनौर है और चङ्गा इसी नाम का मेरों का दुर्ग। उसके बाद पुष्कर में स्नान कर सांभर पहुँचना कठिन न था। महाराष्ट्र सम्भवतः मरोठ है, जो सांभर से कुछ अधिक दूरी पर नहीं है और खंडिल्ल खंडेला है। नयचन्द्र ने इस सब विजयों को एक साथ रख दिया है । किन्तु अधिक सम्भव यह प्रतीत होता है कि संवत् १३४५ (सन् १२८८) से पूर्व दो दिग्विजय हो चुकी थी। इस संवत् के ऊपर उद्धृत शिलालेख के ग्यारहवे श्लोक में हमीर के दो कोटि होमों का और बारहवें श्लोक में काश्चन विनिर्मित तीन भूमि से समायुक्त पुष्पक संज्ञक नाम के प्रासाद का वर्णन है । इनमें सेएक एक कोटि होम एक एक दिग्जय के बाद हुआ होगा। शिलालेख से यह भी निश्चित है कि उस समय तक यह प्रयाण मुख्यतः मालवे के विरुद्ध ही हुए थे। मरोठ, खण्डिल्ल आदि पर प्रयाण सम्भवतः सन् १२८८ ई० के बाद की घटनाएँ हैं। किन्तु इन दिग्जयों के होने की सम्भावना अवश्य है क्योंकि सन् १२९१ में निर्मित अपने ग्रंथ 'मिफताहुलफुतूह' मैं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) अमीर खुसरो ने हम्मीर के गुजरात तक के आक्रमणों का उल्लेख किया है । I इन प्रयाणों से हम्मीर को प्रचुर धन की प्राप्ति हुई । उसकी कीर्ति भी. दिग्दिगन्त में फैली । ब्राह्मणों और गरीबों को भी धन की प्राप्ति हुई । किन्तु अन्ततः उसे इस नीति से विशेष लाभ हुआ या नहीं - यह संदिग्ध है । ये प्रयाण यदि किसी मुसल्मानी प्रान्त या राज्य पर होते तो देश को अधिक लाभ होता । विशेष युद्ध प्रिय किन्तु हम्मीर मुसलमानों पर आक्रमण करता या न करता उनसे उनका संघर्ष अवश्यम्भावी था। सन् १२९० ई० में गुलाम वंश का अन्त हुआ और जलालुद्दीन खल्जी दिल्ली का सुल्तान बना न होने पर भी उसने रणथम्भोर पर आक्रमण करना आवश्यक समझा । पृथ्वीराज के किसी वंशज की बढ़ती हुई शक्ति दिल्ली के मुसल्मानी साम्राज्य के लिए असह्य थी । हम ऊपर इस आक्रमण के तत्सामयिक वर्णन को उद्धृत कर चुके हैं । उस आक्रमण की मुख्य घटनाएँ ये थीं :--- (१) रणथम्भोर की पहाड़ियों के निकट पहुँच कर तुर्की ने गांवों को नष्ट करना शुरू कर दिया । हिन्दुओं के ५०० सवारों से उनकी मुठभेड़ हो गई। इसमें इनकी विजय हुई | ( मिफताहुल फुतूह ) (२) दूसरे दिन मुसल्मानी सेना झायन की कठिन घाटी में प्रविष्ट हो गई। हम्मीर के साइनी ने, जिसने मालवे और गुजरात तक धावे मारे थे, इन पर आक्रमण किया किन्तु वह पराजित हुआ । फायन मुसलमान के हाथ आया ( वही ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) । (३) तीसरे दिन जलालुद्दीन झायन के राजमहल में उतरा और चौथे दिन उसने झायन के मन्दिरों को नष्ट भ्रष्ट किया। मन्दिर, महल, किला सब उसने तुड़वा डाले (वही) .(४) यहां से बढ़ कर रणथम्भोर को घेर लिया गया और अनेक यंत्र लगाए गए । अन्दर से निकल कर हम्मीर ने सेना पर ऐसा आक्रमण किया कि लोगों के हाथ पैर फूल गए । केवल तुग़लक खान ने कुछ स्थिति संभाली। किन्तु जलालुद्दीन ने रणथम्भोर लेने का विचार सर्वथा छोड़ दिया और झायन से "दूसरे दिन कूच करता हुआ तथा बिना किसी हानि के अपनी राजधानी पहुँच गया” ( तुगलकनामा और तारीखे फिरोजशाही ) हम्मीर महाकाव्य में जलालुद्दीन के समय के इस संघर्ष का वर्णन नहीं है। उसके अनुसार दिग्विजय के बाद पुरोहित विश्वरूप के कहने पर हम्मीर ने काशीवासी एवं अन्य विद्वान् ब्राह्मणों की सहायता से कोटियज्ञ आरम्म किया। उसने मारि का निवारण और सातों व्यसनों का वर्जन किया । कारागारों से उसने कैदी छोड़े और अनेक प्रकार के दान दिए । फिर पुरोहित के कहने पर उसने एक महीने का व्रत ग्रहण किया। इसी बीच में अलाउद्दीन ने इसे अच्छा अवसर समझ कर उल्लूखान ( उलुगखां ) को रणथम्भोर के विरुद्ध भेजा। (घाटी के ) अन्दर प्रवेश करने में असमर्थ होकर वह वर्णाशा ( बनास ) नदी के किनारे ठहरा। उसने गांव जलाए, फसल नष्ट की। हम्मीर उस समय मौनव्रत में था, इसलिए धर्मसिंह के कहने से सेनानी भीमसिंह ने मुस्लिम फौज पर आक्रमण किया, और उसे हराकर वापस लौटने लगा। उसके बाकी साथी विजय की खुशी में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) आगे बढ़ गये । भीमसिंह ने जब छीने हुए वाद्य उसने बजा डाले। चारों ओर से मुसल्मानी सैनिक आ घाटी में प्रवेश किया तो मुसल्मानों से इसे अपनी जय का संकेत समझ कर जुटे, और अपने परिमित साथियों के साथ मुसलमानों के विरुद्ध युद्ध करता हुआ भीमसिंह मारा गया । उसके बाद ‘“शकेन्द्र” भी शीघ्रता से अपने शिविर में पहुँचा और क्षत्रियों से डरता हुआ अपने नगर को लौट गया । धर्मसिंह को अंधेपन और कायरता के लिए निन्दित करते हुए, हम्मीर ने मौनव्रत के अन्त में धर्मसिंह को वास्तव में शरीर से अन्धा और पुंस्त्वहीन कर दिया और उसके स्थान पर खड्गग्राही ( खांडाधर ) भोज को नियुक्त किया ।" हम्मीर महाकाव्य की इस कथा का मुसल्मानी तवारीखों में जलालुद्दीन के रणथम्भोर पर आक्रमणों के वर्णन से तुलना करने पर प्रतीत होता है कि सिंह की मृत्यु वास्तव में अलाउद्दीन के विरुद्ध नहीं, अपितु जलालुद्दीन के विरुद्ध लड़कर हुई थी । यही 'सेनानी भीमसिंह' मिफताहुल फुतूह का 'साइणी' था, जो 'हिन्दू नहीं अपितु लोहे का पहाड़ था और जिसके अधीन ४०,००० सैनिकों ने मालवे और गुजरात तक धावे मारे थे कायन की कठिन घाटी में इसी का मुसल्मानों से युद्ध हुआ था । तुगलकनामे और फिरोजशाही के वर्णनों से यह भी सिद्ध है कि अन्ततः इस आक्रमण में जलालुद्दीन को कुछ सफलता ही न मिली ; उसे वहां से सुरक्षित बचकर निकलने में भी आशङ्का होने लगी । और जिस प्रयाण के बारे में बरनी कह सका कि कायन से दूसरे दिन कूच करता हुआ तथा बिना किसी eft के सुल्तान अपनी राजधानी पहुँच गया, उसीके बारे में नयचन्द्र ने १ सर्ग ९, श्लोक ७६-१८८. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) यह कहने में कुछ अत्युक्ति न की है कि 'शकेन्द्र शीघ्रता से अपने शिविर में पहुँचा और क्षत्रियों से डरता हुआ अपनी पुरी को लौट गया ।" अलाउद्दीन के बादशाह होने पर स्थिति फिर बदली । दक्षिण की लूट का अपार धन उसके पास था; उसके पास न सेनाकी कमी थी और न सेनापतियों की । उसकी इच्छा भी यही थी कि समस्त भारत को जीत लिया जाय । इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने सन् १२९८ में गुजरात पर आक्रमण कर सोमनाथ के मन्दिर को नष्ट कर दिया । समस्त हिन्दू संसार क्षुब्ध हुआ, किन्तु कोई इसका प्रतीकार न कर सका । सेना अपनी लूट लेकर दिल्ली लौटती समय सिराणा गांव के निकट पहुँची, तो उसमें कुछ हलचल मची। मुसल्मानी नियम के अनुसार लूट का कुछ भाग लूटनेवाले को मिलता है और कुछ राज्य को ; किन्तु इस अभियान में बहुत सा लूट का सामान, विशेष कर मोती जवाहरात आदि वस्तुएं सैनिकों ने छिपा ली थीं। सुल्तानी सेना के सेनापति उलुगुखां ने सब को लूट का माल वापस करने करने के लिए जब विवश किया तो कमीज़ी मुहम्मद शाह, कामरू, यलचक तथा बर्क, जो पहले मुगुल थे, उलुग्रखां को मारने के लिए तैयार हो गए। रात को वे उलुगखों के तम्बू में जा घुसे, किन्तु भाग्यवशात् लुगखां अपने सोने के स्थान पर न था । वह चुपके से नुसरतखां के पास पहुँचा । नुसरतखां से पराजित होके विद्रोही वहां से भागे । एसामी के कथनानुसार यलचक और बर्क गुजरात के राय कर्ण बघेला के पास भागे और मुहम्मदशाह तथा कामरू ने रणथम्भोर में शरण ग्रहण की । 9 देखें | १. ऊपर दिए फुतू हुस्सलातीन और तारीखे फिरोजशाही के अवतरण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) किन्तु नयचन्द्र के कथनानुसार ये चारों ही रणथम्भोर में थे, और उसने इनके नाम महिमासाहि, गर्भरूक, तिचर और वैचर के रूप में दिए। बहुत सम्भव है कि राय कर्ण की शरण में अपने को सुरक्षित न पाकर ये कुछ समय बाद रणथम्भोर आ गए हों। मुहम्मदशाह की रणथम्भोर पहुँच कर शरणदान की प्रार्थना सभी हम्मीर विषयक काव्यों में वर्तमान है। हम्मीर ने उसे शरण ही नहीं दी, उसे अपने भाई की तरह रखा। चाहे कार्य नीति-सम्मत रहा हो या असम्मत हिन्दू संसार ने हम्मीर के इस आदर्श त्याग को नहीं भुलाया है। वह उसी के कारण अमर हैं। राजनैतिक दृष्टि से भी कार्य कुछ बुरा न था। अलाउद्दीन से युद्ध तो अवश्यम्भावी था। आज एक राज्य की तो कल दूसरे की बारी थी। ऐसी अवस्था में शत्रु के शत्रुओं से मैत्री नीतिपूर्ण थीं। अनीतिपूर्ण तो शायद इससे पूर्व के हम्मीर के कार्य थे जिनकी वजह से सभी आसपास के राजा उससे सशङ्कित हो उठे होंगे। अपने लगभग अठारह वर्ष के राज्य में उसने राज्य की सीमा बढ़ाई, अनेक कोटि यज्ञ किए। और ब्राह्मणों को बहुत दान दिया। किन्तु उसकी सामान्य प्रजा को उसकी नीति से शायद ही कुछ विशेष लाम हुआ हो। उसकी सैन्य-संख्या बहुत बड़ी थी, और राज्य के निजी साधन बहुत कम। जबतक धन दूसरे राज्यों की लूट से आता रहा, सैन्यमार कुछ विशेष दुःखदायी न था। किन्तु जब लुटेरों की संख्या बढ़ गई, मुसल्मानी आक्रमणों की शङ्का से हम्मीर के लिए अपने ही राज्य में रहना आवश्यक हो गया और कोटि मखादि के व्यय से कोश बहुत कुछ रिक्त हो गया, इसके सिवाय उपाय ही क्या था कि वह प्रजा पर नित्य नवीन कर लगाए। दिल्ली में अलाउद्दीन को भी आर्थिक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ा था, किन्तु उसमें स्वयं वह बौद्धिक शक्ति थी जो सैनिक ही नहीं, आर्थिक समस्याओं को सुलझा सके । इम्मीर को आर्थिक समस्याएं सुलझाने के लिए मंत्रियों का सहारा लेना पड़ा। ___ उसके मन्त्रियों में धर्मसिंह अर्थ चिन्तन में कुशल था। किन्तु उसे हटाकर हम्मीर ने यह कार्य खाँडाधर भोज को दिया था, और भोज तो कोरा खांडाधर ही निकला। न वह पर्याप्त धन ही एकत्रित कर सका, और न वह कुछ व्ययादि ही का हिसाब किताब रख सका। अतः विवश होकर हम्मीर ने अर्थचिन्तन का कार्य धर्मसिंह को सौंपा। खांडाधर मोजदेव से भी उसने इतना दुर्व्यवहार किया कि वह अपने भाई पृथ्वीसिंह समेत अलाउद्दीन की सेवा में पहुँच गया ।' हम्मीर ने उसके स्थान पर रतिपाल को दण्डनायक का पद दिया। नयचन्द्र के कथनानुसार धर्मसिंह ने प्रतिशोध की इच्छा से प्रजा को पीडित किया था, नए नए उपाय निकाले थे जिनसे कोश में धन आ सके। किन्तु इस नीतिके लिए स्वयं हम्मीर भी उत्तरदायी था ही ; उसे धनकी अत्यधिक आवश्यकता न होती तो धर्मसिंह को प्रजा को करोत्पीडित करने का अवसर ही कहाँ से मिलता ? । भोजदेव को भी रणथम्भोर से निकालना भूल थी। भीमसिंह की मृत्यु के बाद रणथं भोर के विशिष्ट सेनापतियों में से भोज भी एक था; और जिस व्यक्ति . १-खांडाधर भोजदेव के लिए मरु मारती, ८, १, पृ० ११३ पर हमारा लेख पढ़ें। कविमल्ल के कवित्त ९ और १० ('हम्मीरायण, पृष्ठ ४७ ), और खेम का कवित्त १५ भी भोज और पृथ्वीराज के लिए दृष्टव्य हैं। हम्मीरहाकाव्य में सब प्रसङ्ग देखें, सर्ग ८, श्लोक १५७-१८८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) को हम्मीर ने यह पद दिया, वह तो अन्ततः कृतघ्न सिद्ध हुआ। हम इसे हम्मीर की भूल कहें ; या दैव ही उसके प्रतिकूल था ? सन् १२९८ में हम्मीर ने मुहम्मदशाह को शरण दी थी। उसके बाद लगभग दो वर्ष तक अलाउद्दीन ने कुछ न कहा। उत्तर-पश्चिम से मुगलों के भयंकर आक्रमणों के कारण उसीकी जानको आ बनी थी। जब इन से कुछ छुट्टी मिली तो उसने अपनी भारतीय नीति के सूत्रों को फिर सम्भाला। जिन राज्यों के रहते दिल्ली का सार्वभौमत्व स्थापित नहीं हो सकता था उनमें से रणथंभोर एक था। मुहम्मदशाह आदि को शरण देकर हम्मीर ने अब एक और अक्षम्य अपराध किया था। उसका राज्य दिल्ली के बहुत निकट भी था। ___ सुल्तान की पहली चढ़ाई मानों हम्मीर के सत्त्व को जाँचने के लिए हुई । एक बड़ी सेना हिन्दूवाट जा पहुंची। किन्तु इससे पूर्व कि वह आगे बढ़े हम्मीर के सेनापतियों ने उसे आ घेरा। पूर्व से वीरम, पश्चिम से मुहम्मदशाह, आग्नेय से रतिपाल, वायव्य से तिचर ( यलचक ), ईशान से रणमल्ल, नैऋत से वैचर ( बर्क), जाजदेव ने दक्षिण और उत्तर से गर्भरूक ( कामरू) ने मुसलमानी फौज पर आक्रमण किया। मुसल्मान बुरी तरह से हारे । अनेक मुसल्मान स्त्रियाँ रतिपाल के हाथ भाई । रतिपाल ने राजा की ख्याति के लिए उनसे गांव-गांव में छाछ बिकवाई हम्मीर रतिपाल से इतना प्रसन्न हुआ कि उसने 'यह मेरा मस्त हाथी है कहकर उसके पैरों में सोना की संकली डाली और दूसरों को भी वस्त्रादि देकर सम्मानित किया। उस समय किसे ध्यान था. कि रणमल्ल, रतिपाल आदि स्वामीद्रोही सिद्ध होंगे? १-हम्मीरमहाकाव्य, १०, ३१-६३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) इसी विजय के बाद मुहम्मदशाह आदि ने जगरापर आक्रमण किया जो उस समय भोज की जागीर में थी । भोज वहाँ न था । किन्तु उन्होने जगरा को लूटा, और भोज के भाई पीथसिंह को सकुटुम्ब पकड़ गये । भोज रोता-धोता दिल्ली के दरबार में कर रणथंभोर ले "पहुंचा । १ अब अलाउद्दीन के लिए स्थिति असह्य हो चली थी। उसने बयाना के अक्ता के स्वामी उलुगखाँ को रणथम्भोर जीतने की आज्ञा दी और कड़े के मुक्ता नुसरतखाँ को भी आज्ञा हुई कि वह कड़े की समस्त सेना तथा हिन्दुस्तान की सब फ़ौजों को लेकर उलुगखाँ की सहायता करे। जितनी बड़ी सेना का प्रयोग अलाउद्दीन कर रहा था उससे हम्मीर की शक्ति का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है । कोई अन्य राजा होता तो अधीनता स्वीकार कर लेता किन्तु हम्मीर तो मानों किस भिन्न सामग्री से ही बना था । इस बार छल से या बल से मुसल्मानी सेना ने फाइन की घाटी पार कर ली और फाइन पर भी अधिकार जमा लिया। नयचन्द्र के कथनानुसार सन्धि की बातचीत के बहाने उलूगखाँ और नुसरत ऐसा हो कि मुसल्मानी सेना की संख्या २ कर सके ; किन्तु तथ्य शायद यह - इस बार इतनी अधिक थी कि राजपूतों ने उसका सामना करना उचित न समझा । ऐसी स्थिति में अपने सब साधनों को समूहित कर गढरोध सहना सम्भवतः अधिक हितकर था। साथ ही यह भी तथ्य है कि उलग १ - वही, पृ० १०, ६४-८८ २ - वही, ११, १९-२४, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२ ) खाँ और नसरतखाँ ने बिना युद्ध के भी हम्मीर से अपनी बातें मनवाने का प्रयत्न किया था । एसामी के कथनानुसार उलुगखाँ ने एक दूत राय के पास भेजा ओर उसे लिखा कि कमीजी मुहम्मदशाह तथा कामरू दो तू हमारे दुश्मनों की हत्या कर दे, / हम्मीर महाकाव्य में उलुगंखाँ विद्रोही तेरी शरण में आ गए हैं। अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जा ।" और नुसरतखाँ के दूत का नाम मोल्हण है । " इसने (३०० घोड़ों की, स्वर्णलक्ष, चार हाथी, राजसुता और विशेष रूप से चार मुगल विद्रोहियों की माँग की ।" इससे मिलती-जुलती मांगका अन्य हम्मीर सम्बन्धी काव्यों में भी वर्णन है । किन्तु माँग चाहे मुगल भाइयों के समर्पण की रही हो या उससे अधिक ; हम्मीर ने उसे ठुकरा दी। एसामी के शब्दों में 'हम्मीर ने उतर दिया कि जो मेरी शरण में आ चुका है मैं उसे किसी प्रकार हानि नहीं पहुँचा सकता, चाहे प्रत्येक दिशा से इस किले पर अधिकार जमाने के लिए तुर्क एकत्रित क्यों न हो जाय" और लिख भेजा कि 'यदि तू युद्ध करना चाहता है तो मैं तैयार 193 अन्य काव्यों में कथित माँगों के अनुरूप उत्तर है । C खल्जी सेनापतियों ने उत्तर मिलते ही गढ़ को जा घेरा । किन्तु दुर्ग जीतना कोई खेल तो न था । हम्मीर राजनीतिज्ञ रहा हो या न रहा हो, उसमें शौर्य और युद्धकौशल की कमी न थी । उसने दुर्ग की रक्षा का कार्य समुचित रूप से बांट दिया। पहरा लग गया। ढें कुलियां दिखाई १ - वही, ११, २२ | २ ऊपर देखें । ३ - फुतू हुस्सलातीन का अवतरण देखें। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) देने लगीं।' कड़ाहों में रालसे मिला तप्त तैल प्रतिमटों के जलाने के लिये तैयार था। दोनों ओरसे बाण छूटने लगे । आग्नेयबाणों की भी वर्षा हुई। दोनों ओर भैरव-यन्त्रों से गोले छूटने लगे। ढिंकुलियाँ भी मानों अपने हाथआगे बढ़ाकर गोले फेंकती हुई आनन्द लेने लगी। राल से युक्त तेलमें भिंगोकर : जलते हुए कुन्त यवनों ने दुर्ग में फेंके। कई ने दुर्ग पर चढ़ने का और कई ने सुरंग लगाने का प्रयत्न किया। उनके नालियों से छूटे बाणों ने भी पर्याप्त हानि की। किन्तु हम्मीर के सैनिकों ने इन सब का तीन महीनों तक प्रतिकार किया।२ बरनीने लिखा है कि एक दिन नुसरतखाँ किले के निकट पाशेब बंधवाने में तथा गरगच लगवाने में तल्लीन था। किले के अन्दरसे मगरबी पत्थर फेके जा रहे थे। अचानक एक पत्थर नुसरतखाँके लगा जिससे वह घायल हो गया। दो तीन दिन उपरान्त उसकी मृत्यु हो गई।३ अन्य हम्मीर विषयक ग्रन्थों में भी इस घटनाका उल्लेख है। हम्मीर महाकाव्य के अनुसार दुर्ग का एक गोला मुसल्मानों के एक गोला से भिड़ गया और उससे उचट कर उछलते हुए एक टुकड़े से निसुरतखान मर गया (११-१००)। हम्मीरायण के अनुसार 'निसरखान' नवलखि दरवाजा के पास मारा गया ।४ इनमें हम्मीर महाकाव्य और बरनी के कथनों में कुछ विशेष विरोध नहीं है। १-राजस्थानी काव्यों में यह शब्द ढेकुली और हम्मीर महाकाव्य में टिंकुली के रूप में वर्तमान हैं। इसका रूप वर्तमान ढेकी का सा था ( ११-७१,८९ )। २-११, ७५, ९९ ३-ऊपर तारीखे फिरोजशाही का अवतरण देखें। . ४-'नवलखि मार्या निसरखान' (१७२) । इसका यह अर्थ करना कि निसरखान ने नौलाख राजपूतों को मारा सर्वथा अशुद्ध है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) नुसरतखान की मृत्यु से अलाउद्दीन को निश्चय हो गया कि उसका स्वयं रणथम्भोर पहुँचना अत्यन्त आवश्यक था। एसामी ने नुसरतखाँ की मृत्यु का बिना वर्णन किए ही लिखा है कि उलुगखाँ ने सुल्तान से सहायता की प्रार्थना की।' बरनीके कथनानुसार ज्योंही अलाउद्दीन को नुसरतखाँ की मृत्यु का समाचार मिला, वह दिल्ली से रणथम्भोर के लिए रवाना हो गया। यही बात हमें हम्मीर महाकाव्य से भी ज्ञात है। __अलाउद्दीन की यात्रा निरापद सिद्ध न हुई। तिलपत के निकट उसके भतीजे अकतखाँ ने उसे कत्ल कर राज्य प्राप्त' करने का प्रयत्न किया, किन्तु अलाउद्दीन के सौभाग्य और अकतखाँ की मूर्खता से यह प्रयत्न सफल न हुआ। जब सुल्तान घेरा डाले पड़ा था अवध और बदायूं में उसके मानजों ने विंद्रोह किये और दिल्ली में मौला हाजी ने। किन्तु अलाउद्दीन रणथम्भोर के सामने से न हटा। यह दो हठीलों का युद्ध था। अन्तर केवल इतना ही था कि एक सीधा वीरव्रती राजपूत था, और दूसरा भारत का सब से कुटिल शासक जिसने अपने चचा तक को राज्य के लिए मार डाला, और जो राज्यवृद्धि के लिए कुटिल से कुटिल उपायों का अवलम्बन करने के लिए उद्यत था। ___हम्मीर महाकाव्य में लिखा है कि जब अलाउद्दीन रणथम्भोर पहुँचा तो हम्मीर ने उसका अच्छा स्वागत किया ? दुर्ग के ऊपर प्रतिपद पर शूर्प बंधवा कर उसने यह घोतित किया कि सुल्तान के आने से १-देखें फुतू हुस्सलातोन का अवतरण । २-तारीखे फिरोजशाही का अवतरण देखें । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ ) उसके कार्यभार में उतनी ही वृद्धि हुई थी जितनी अनेक वस्तुओं से भरे शकट में कुछ शूर्प रखने से। किन्तु और कुछ हुआ या न हुआ युद्ध में एक नवीन तीव्रता आ गई। रात दिन युद्ध होने लगा। प्रत्येक दिशा में चलते फिरते ऊँचे-ऊँचे मचान ( गरगच ) तैयार किए गए। शाही सेना जो कोई युक्ति करती राय उसकी काट कर देता ।' पहाड के निकट सुरंग लगाई, और खाई को पूलियां और लकड़ी के टुकड़ों से भर दिया। जब ये दोनों साधन तैयार हो गए तो अलाउद्दीन ने हमले की आज्ञा दी। किन्तु चौहानों ने खाई की लकड़ियां अग्नि गोलों - जला डाली और लाक्षायुक्त तेल सुरंग में फेंका जिससे सुरंग में घुसे सैनिक भुन गए और वह सुरंग उन्हीं के शरीरों से मर गई ।' इस प्रकार एक वर्ष बीत गया और दुर्ग को कोई हानि न पहुँची ।४ अमीर खुसरो ने यही बात अपनी काव्यमयी शैली में कही है, 'हिन्दुओं ने किले की दसो अट्टारियों में आग लगा दी, किन्तु अभी तक मुसल्मानों १-सर्ग १२, १-४ । २- देखें फुतूहस्सलातीन का अवतरण और हम्मीरमहाकाव्यः सर्ग १३. श्लोक ४८ ३-हम्मीरमहाकाव्य, १३, ४७ । ४-देखें फुतू हुस्सलातीन का अवतरण । - इसी के आस पास हम्मीर काव्यों में नर्तिका धारादेवी के मरण की कथा है। इसके लिए पाठक वर्ग हम्मीर काव्य और हम्मीरायण का तुलनात्मक विवेचन देखें । इतिहास की दृष्टि से इस घटना का-चाहे यह सत्य हो या असत्य-विशेष महत्व नहीं है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) ' पास इस अग्नि को बुझाने के लिए कोई सामग्री एकत्रित न हुई थी ( खजाइनुलफूतुह ) ” । अ अलाउद्दीन को एक नई युक्ति सूझी। उसने समस्त सैनिकों को आदेश दिया कि वे चमड़े और कपड़े के थेले बनाकर उनमें मिट्टी भर दें और उन थेलों द्वारा खाई को पाट दें। हर एक ने अपना थेला भरा और खाई में फेंका जिसका नाम रिण था । इस तरह खाई को पाट कर अलाउद्दीन ने उस पर पाशेब और गरगच तैयार करवाए । किले पर आक्रमण के साधन अन्ततः तैयार हो गए। इसी बात को हम्मीरायण ने मनोरञ्जक रूप में कहा है: - “पहिलउ रिण पूरउ लाकड़े, देई आग बाल्यउ तिय मडे । कटक सहून हुयउ फुरमाण, बेलू नखाउ तिणि ठाणि ॥ १९८ ॥ सुण तणी बांध पोटली, मीर मलिक वेलू आणइ भरी । न कर कोई झूम गढ़वाल, वेलू आणइ सहि पोटली ॥ १९९ ॥ छठ मासि संपूरण भस्यउ, ते देखि लोक मनि डराउ । कोसीसइ जाइ पहुता हाथ, तुरका तणी समीछइ वाच्छ ॥ २०० ॥ राय हम्मीर चिंतातुर हूउ, रिण पूर चउ दुर्ग हिव गयउ ॥ २०१ ॥ पहले रिण को उन्होंने लकड़ियों से भरा, किन्तु भटों ने उन्हें आग से जला डाला । तब सब सेना को आज्ञा हुई कि वे उस स्थान पर बालू डालें। अपनी सूथनों की पोटलियां बनाकर मीर और मलिक उन्हें भरभर कर लाने लगे । गढ़वालों से सबने युद्ध करना छोड़ दिया । सब सिर्फ १. फुतू हुस्सलातीन का अवतरण देखें । २. तारीखेफरिश्ता का अवतरण देखें। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७ ) पोटलियों में बालू लाये । छठे महीने वह सब भर गया । तब यह देखकर सब लोग मन में डरे । कंगूरों तक अब तुओं के हाथ पहुँचने लगे । तुर्की की इच्छा अब पूरी होगी। राय हम्मीर को अब यह चिन्ता हुई । रिणभर गई है । अब दुर्ग हाथ से गया। ___हम्मीरायण ने इस विपद् से बचने का एक अधिदैविक कारण दिया है । “गढ़के देवता ने परमार्थ जानकर चाबी लाकर हम्मीर को दी जब राय ने छोटा फाटक खोला तो देव-माया से उसी समय पानी बहा । पानी से बालू बह गया, और वह झोल फिर खाली हो गया (२०२)। किन्तु वास्तविक प्रतिकार तो दुर्गस्थ वीरों का साहस था । बरनी ने लिखा है कि जब खाई को भरकर पाशेब और गरगच लगाए गए तो किले वालों ने मगरबी पत्थरों से पाशेबों को हानि पहुँचानी प्रारम्भ कर दी। वे किले के ऊपर से आग फेंकते थे और लोग दोनों ओर से मारे जाते थे।' खजाइनुल फुतूह ने भी लिखा है कि रजब से जीकाद ( मार्च से जुलाई ) तक मुसलमानी सेना किले को घेरे रही । “किले से बाणों की वर्षा होने के कारण पक्षी भी न उड़ सकते थे । इस कारण शाही बाज भी वहाँ तक न पहुँच सकते थे।" इसके बाद दुर्ग के जाने की कथा हमें विभिन्न रूपों में प्राप्त है । एसामी के कथनानुसार किले पर आक्रमण का मार्ग तैयार होने पर भी दो तीन सप्ताह तक घोर युद्ध होता रहा । उसके बाद हम्मीर ने जौहर किया और किले से मुहम्मदशाह एवं कामरू के साथ निकल कर युद्ध करता हुआ १. तारीखेफिरोजसाही का अवतरण देखें। २. खजाइनुलफुतूह का अवतरण देखें। .. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) मारा गया ।' खजाइनुल फुतूह ने किले में दुर्भिक्ष को इसका कारण बताया है । “किले में अकाल पड़ गया । एक दाना चावल दो दाना सोना देकर भी नहीं प्राप्त हो सकता था,” और चापलूसी की तरंग में लिख मारा है कि जब जौहर कर हम्मीर अपने दो एक साथियों के साथ पाशेब तक पहुँचा तो उसे भगा दिया गया" । २ दुर्ग का पतन ३ जीकाद ७०० हिजी ( १० जुलाई, १३०१ ) के दिन हुआ । बरनी के अनुसार 'सुल्तान अलाउद्दीन ने हाजी मौला के विद्रोह के उपरान्त बड़े परिश्रम तथा रक्तपात के पश्चात रणथंभोर के किले पर अपना अधिकार जमा लिया। राय हमीरदेव तथा उन मुसल्मानों को जो कि गुजर त के विद्रोह के उपरान्त भाग कर उसकी शरण में पहुंच गए थे हत्या करा दी ।"3 फरिश्ता के कथनानुसार जब रिण में फेंकी हुई बोरियों की ऊंचाई जब गढ़ को उँचाई तक पहुँच गई तो घिरे हुए आदमियों को हराकर मुसलमानों ने दुर्ग ले लिया। हम्मीरदेव अपने जातिभाइयों के साथ मारा गया ।४ __हिन्दू ऐतिह्य साधनों में से हम्मीरमहाकाव्य के अनुसार वास्तव में दुर्ग में दुर्भिक्ष न था, किन्तु कोठारी जाहड ने इस इच्छा से कि सन्धि हो जाय, झूठ मूठ यह सूचना दी कि अन्न नहीं है। उधर रतिपाल अलाउद्दीन से जा मिला । शत्रु-शिविर से लौटने पर हम्मीर को और भड़काने के लिए उसने कहा "सुल्तान आपकी पुत्री को मांगता है और कहता है कि यदि १. फुतूहस्सलातीन का अवतरण देखें । २. खजाइनुल फुतूह का अवतरण देखें। ३. तारीखेफिरोजसाही का अवतरण देखें । ४. तारीखेफरिश्ता का अवतरण देखें। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) उस मूर्ख ने पुत्री न दी तो मैं उसकी पत्नियों तक को छीन लूँगा ।" रानियों के कहने से देवलदेवी आत्मसमर्पण के लिए तैयार भी हुई, किन्तु हम्मीर के लिए यह अपमान असह्य और अस्वीकरणीय था । दुर्ग का शासक बनने का इच्छुक रतिपाल तो चाहता ही यह था । उसने रणमल्ल को भी राजा के विरुद्ध कर दिया। दोनों गढ़ से उतरकर शत्रु से जा मिले। इस सार्वत्रिक कृतघ्नता को देखकर हम्मीर ने मुहम्मदशाह को कहीं सुरक्षित स्थान पर जाने के लिए कहा। मुहम्मदशाह ने किस प्रकार अपने कुटुम्ब का अन्त कर यह वीभत्स दृश्य हम्मीर को दिखाया इसका उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं (देखें हम्मीर महाकाव्य का सार ) । हम्मीर ने अब जौहर किया। उसकी पुत्री और रानियां जहर की चिता में जल मरीं । उसने तमाम धन पद्मसर में फिंकवा दिया। जाजा ने हाथी मार डाले। उसके बाद जाजा को अभिषिक्त कर हम्मीर अपने साथियों सहित बाहर निकला । मयंकर युद्ध करने के बाद उसने स्वयं अपना ' गला काट डाला । सुर्जन चरित में जौहर और हम्मीर के अन्तिम युद्ध का वर्णन है ! साथ ही उसमें यह स्पष्ट संकेत है कि जनता दीर्घकालीन गढ़रोध से ऊब चली थी और बहुत से लोग शत्रु से जा मिले थे । " पुरुष परीक्षा में मी रायमल्ल और रामपाल (रतिपाल और रणमल ) का विद्रोह वर्णित है । साथ ही यह भी उसने लिखा है कि वे अदीनराज ( अलाउद्दीन ) से मिले और उससे कहा “दीनराज, आपको कहीं न जाना चाहिये । दुर्ग में अकाल पड़ गया है। हम दोनों दुर्ग के मर्मज्ञ हैं। कल या परसों आपको १. देखें हम्मीर महाकाव्य, सर्ग १३, ९९-२२५ २. ऊपर दिया सुर्जन चरित का सार देखें । Jain Educationa International + For Personal and Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) दुर्ग दिलवा देंगे।” इस पर इम्मीर ने. जाजा और मुहम्मदशाह आदि को अन्यत्र किसी सुरक्षित स्थान में पहुँचाने का वचन दिया । किन्तु वे इसके लिए राजी न हुए। "मटैरंगीकृतं युद्धं, स्त्रीभिरिष्टो हुताशनः । । राज्ञो हम्मीरदेवस्य परार्थ जीवमुज्झतः ॥ . “जब राजा हम्मीरदेव दूसरों के लिए प्राण देने के लिए उद्यत हुआ तो- योद्धाओं ने युद्ध अङ्गीकृत किया, स्त्रियों ने अग्नि ।" राजा युद्ध में लड़ता हुआ मारा गया। : हम्मीरायण में रणमल्ल और रतिपाल के अलाउद्दीन से मिलने, झूठमूठ अन्नाभाव की कथा फैलाने, जौहर और हम्मीर के अन्तिम युद्ध आदि का वर्णन है । २ . मल्ल के चौदहवें पद्य में सम्भवतः अलाउद्दीन के सुरंग लगा कर दुर्ग का एक भाग तोड़ने का उल्लेख है। साथ ही इन कवित्तों में रणमल्ल के द्रोह, जाजा के अद्वितीय युद्ध और जौहर का भी निर्देश है । ३ इन सब अवतरणों के तुलन से कुछ बातें स्पष्ट हैं। . ... .. १.. घेरे से दुर्ग की स्थिति विषम हो चली थी, तो भी हम्मीर ने लगातार युद्ध किया और मुसल्मानों को गरगचों तथा पाशेबों के प्रयोग से मढ़ न लेने दिया। .. . .. २, दुर्ग में दुमिक्ष की स्थिति वास्तव में उत्पन्न हो गई थी। उधर बरनी आदि के कथनानुसार मुस्लिम फौज घेरे से तंग हो चुकी थी। अला... १. देखे हम्मीरायण, परिशिष्ट ३।। .. २. हम्मीरायण की कथा का सार देखें।... ...... ३. पद्यों का सार या हम्पीरायण के परिशिष्ट २ में ये कवित्त देखें। - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१ ) उद्दीन को आन्तरिक स्थिति का पता न चलता तो दुर्गस्थ लोगों को आशा थी कि सुल्तान घेरा उठा लेगा। . . ३, इस स्थिति में सुल्तान ने कूटनीति का प्रयोग किया। उसने रतिपाल, रणमल्ल आदि को फोड़ लिया। इसके फलस्वरूप उसे दुर्ग का आन्तरिक हाल ही ज्ञात न हुआ, बहुत से दुर्गस्थ सैनिक मी उससे आ मिले । ... ४. हम्मीर ने जौहर की अग्नि में अपने कुटुम्ब को भस्मसात् कर दुर्ग के द्वार खोल दिए और युद्ध के बाद अपने हाथों ही अपने प्राण दिए। __५. दुर्ग का पतन १० जुलाई, १३०१ के दिन हुआ। .. हम्मीर के अन्तिम युद्ध का पूरा वर्णन हिन्दू काव्यों में ही है। हम्मीर महाकाव्य के अनुसार उसके साथ में नौ वीर थे। वीरम, सिंह, टाक गङ्गाधर, राजद, चारों मुगल भाई, और क्षेत्रसिंह परमार। वीरम के दिवंगत और मुहम्मदशाह के मूर्च्छित होने पर हम्मीर आगे बढ़ा। अन्ततः बहुत घायल हो जाने पर उसने, इस इच्छा से कि वह बन्दी न हो, स्वयं अपना कण्ठच्छेद किया।' हम्मीरायण की कथा हम ऊपर दे चुके हैं । उसके अनुसार मी हम्मीर ने स्वयं अपना गला काटा था। हम्मीर महाकाव्य के अनुसार हम्मीर की मृत्यु के बाद भी जाजा ने दो दिन तक दुर्ग के लिए युद्ध किया।२ मुहम्मदशाह के व्यवहार की नयचन्द और फरिश्ता दोनों ने प्रशंसा की है। सुल्तान के यह पूछने पर कि यदि वह १. सर्ग १३, १९९-२०५ ___२. सर्ग १४. १६. जाजा के लिए इसी प्रस्तावना में तद्विषयक विमर्श और इण्डियन हिस्टारिकल क्वार्टरली' १९४९, पृष्ठ २९२.२९५ पर हमारा जाजा पर लेख पढ़े। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) उसकी मरहम पट्टी करवाए तो भविष्य में वह उससे किस तरह का व्यवहार करेगा, इस निर्भीक योद्धा ने उत्तर दिया था कि 'वैसा ही जैसा सुल्तान ने इम्मीर के प्रति किया है ।' अलाउद्दीन ने उसे हाथी के पैरों से कुचलवा डाला, किन्तु उसे अच्छी तरह दफनाने की आज्ञा दी । रतिपाल और रणमल्ल को बड़ी बड़ी आशाएं थीं । बादशाह ने उनकी खाल निकलवा कर स्वामिद्रोह का फल चखाया। स्वामिद्रोह को पनपने देना उसकी नीति के विरुद्ध था । उसमें कुछ हम्मीर को हम सर्वगुणसम्पन्न तो नहीं मान सकते । जल्दबाजी थी। अमात्यों के चुनाव में भी उसने समय समय पर गल्तियां कीं उसके शासन प्रबन्ध में भी हम कुछ दोष देख सकते हैं । किन्तु जिस लगन से हिन्दू समाज ने उसके नाम को अमर रखा है उसी से सिद्ध है कि वह अनेक भारतीय आदर्शों का प्रतीक रहा है । विद्यापतिने उसे दयावीर के रूप में देखा | 'षड् भाषा-कविचक्र-शक' और 'प्रामाणिकाग्रेसर' राघवदेव जैसे विद्वानों के उसकी सभा में उपस्थित होने से यह भी सिद्ध है कि वह वैदुष्य- प्रिय था। कावलजी प्रशस्तिका रचयिता विद्यादित्य हम्मीर पुरोहित था। उसके कोटिमखों में हुआ होगा । हम्मीर उस चाहमान 3 का पौराणिक और विश्वरूप उसका सहस्रों विद्वान् ब्राह्मणों का पूजन भी कुल का सुयोग्य प्रतिनिधि भी था जिसका दण्ड गो और वृष ( धर्म ) की १. हम्मीर महाकाव्य, १४. २०. २. बही, १४. २१. ३. वही, १४, २३. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३ ) रक्षा में प्रयुक्त था।' और उसका यह धर्म संकीणार्थक न था। भर्बुद पर उसने ऋषभदेव का पूजन किया। छः दर्शनों की वह प्रतिपद पूजा करता ( हम्मीर महाकाव्य, १४, २)। “कर्ण ने कवच, शिवि ने मांस, बलि ने पृथ्वी, जीमूतवाहन ने आधा शरीर दिया। किन्तु उस हम्मीरदेव की, जिसने एक क्षण में शरणागत महिमासाहि ( मुहम्मद शाह ) के निमित्त अपना शरीर, पुत्र, कलत्रादि को कथाशेष कर दिया, कौन तुलना कर सकता है ?२ हठ के लिए हम्मीर प्रसिद्ध हो चुका है : सिंह सवन सत्पुरुष वचन कदली फलत इकवार । त्रिया तेल हमीर हठ, चढ़े न दूजी वार ॥ किन्तु इससे भी अधिक प्रसिद्धि किसी ममय उसके शरणदान की रही होगी। इतिहासकार एसामी ने हम्मीर की इसी बात पर विशेष ध्यान दिया है नयचन्द्र और विद्यापति ने उसके शौर्य के साथ उसकी दयावीरता की प्रशंसा की है। हम्मीरायण में उसकी शरणागत रक्षा और स्वाभिमान को लक्षित कर ‘माण्डउ' व्यास नाल्ह माट से कहलाता है : इय चहुवाण हमीर दे, सरणाई रखपाल । अलावदीन तुझ आगलउ, मोटउ मूउ भूपाल ॥ ३०॥ मान न मेल्यउ आपणउ, नमी न दीध्यउ केम नाम हुवउ अविचल मही, चंद सूर दुय जा (जे) म॥३०८ ॥ १. देखें १३४५ के शिलालेखका श्लोक ४, हम्मीर महाकाव्य १४.२ रणथम्भोर हाथ आते हो मुसल्मानों ने वहां के बाहडेश्वरादि मन्दिरों को नष्ट कर दिया। २. हम्मीर महाकाव्य, १४, १७ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) 'भाण्डउ' व्यास का कथन ठीक ही है कि इन्हीं आदशी का प्रतीक होने के कारण हम्मीर का नाम सूर्य, और चन्द्र की तरह अविचल है । अब तक भारतीय जनता के हृदय में इन आदर्शों का मान है वह हम्मीर के चरित का गान करती रहेगी। और हम्मीर का यशः शरीर अमर रहेगा । पढ़िये नयचन्द की यह उक्ति : लोको मूढतया प्रजल्पतुतमां यच्चाहमानः प्रभुः .. " श्री हम्मीर-नरेश्वरः स्वरमगाद् विश्वैक साधारणः । तत्त्वज्ञत्वमुपेत्य किञ्चन वयं ब्रू मस्तमां स क्षितौ। जीवन्नेव विलोक्यते प्रतिपदं तैस्तैर्निजैविक्रमै : ॥ १४-१५ ॥ हम्मीरायण की भूमिका विस्तृत हो गई है, इसमें इतिहास सम्बन्धी उद्धरणादि वह सामग्री देने का प्रयत्न किया है जिससे पाठक स्वयं हम्मीर के चरित्र को ग्रथित कर उसके सत्यासत्य पक्ष की जांच कर सके। इसमें कई अर्थों के विवेचन और स्पष्टीकरण में श्री भंवरलालजी के सुझावों के लिये मैं अत्यन्त अनुगृहीत हूं। नवीन वसन्त... ई.४।१ कृष्णनगर दिल्ली-३१ २ दशरथ शर्मा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यास भांडा कृत हम्मीरायण Jain Educationa International -:: ॥ चउपई ॥ पहिलउ पणमउं सारद पाई, कर जोड़ी हुं विनवउं माई; ' कथा करतां मो मति देहि, अलिय अक्खर अधिक टालेहि; १ सिधि बुधिनायक गणपति नमउ, करिसु चरित महियलि अभिनवड; तेतीस कोड़ि तणउ पड़िहार, पय प्रणमी हुं करडं जुहार; २ बावन वीर तणा लीजइ नाम, तास प्रसादि सीझइ सवि काम; समरउं चउसठि चंडी सदा, तिणी तूठी तूइ विघन नही एकदा ३ कासिपराय तणउ पुत्र भाण, श्री सूरिज प्रणमउं सुविहाण; हम्मीरायण अति सुरसाल, 'भाड' गायो चरिय सुविसाल; ४ राय हमीर तणी चउपई, सांभलिज्यो एक मनह थई; रणथंभवरि जे विग्रह हुवा, राय चहुयाण तहां भूझीया; ५ रणथंभवर गढ मेर समाण, राज करइ हमीरदे चिहुयाण; पुहवी इंद्र कहीजइ सोइ, इंद्र सभा हम्मीरां होइ; ६ तिणि नयरी ना विसमा घाट, वावि सरोवर नय वलि हाट; गिरि गरुय ब्रिक्ष्य आराम, रूअड़ा तिणि नयरी अभिराम; ७ १ देउ, अख्यर, २ नमु ४ हमीरायण, गयो धरिव सुवासाल ५ चउपही ६ हमीरां For Personal and Private Use Only + Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण कामणा, अंब जंबीरज केतकि तणा; वाड़ी वृख्य नहीं जाई वेउल चंपक महमहइ, देखी नगर लोक गहगहइ; ८ कोटि जिसो हुवइ इंद्र विमाण, च्यारि पोलि तिणि कोटि प्रधान; पोलि चंडि नवलखीज होइ, चउरासी चहुटा नितु जोई; वाण्या बंभण निवसइ घणा, लाख एक छइ हाटा तणा; वर्णावर्ण लोक तिहं बहू, जाति प्रजा निवसइ छइ सहू; १० सिखरबद्ध दस सहस प्रसाद, ऊंचा सुरगिरि स्युं लइ वाद; सोवन कलस दंड झलहलइ, ऊपरि थकी धजा लहलह ; ११ दानसाल तिणि नगरी घणी, कोटीध्वज विवहारया तणी; बंभण वेद भणइ सुविचार, बंदीजण नितु करें कई वार १२ तिणि नयरी ऊछब अपार, मंगल च्यारि दीयइ वर नारि; जती व्रती तिह निवसइ घणा, तपी तपोधन नहि कामणा; १३ गढ मढ मंदिर पोलि पगार, वास नयर नव जोयण वार; चंपक वरण सरसा गात्र, धारू वारू बे छइ पात्र ; १४ घण वखाण किसु हिव करउ, अलकावती नी ऊपम धरउ; तिणि नयरी विलास अपार, वेस वसइ सहस दस वा १६ त्रैलोक्यमंदिर राय आवास, सीला ऊन्हा धवलहर पासि; भूखी पोलि अछइ तिणि कोटे, रिण नइथंभ विचइ छइ त्रोटि; १७ चहुयाण जयतिगदे पुत्र, राज करें सहु आणी सूत्र; बालउ राजा बइठउ राजु, बंधव वीरमदे जुवराजुः १८ १८ राजि ३४ वन, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण सवा लाख साहण दलधणी, ऊलग करइ मोडोधा धणी; गयवर घरि गुडइ सइ पंच, घोड़ा सहस एक सइ पंच; १६ सवा लाख साहण दल मिलइ, त्रिणि लाख पायल दल भिलइ; सात छत्र धरावइ सीस, सवालाख संभरि नउ ईस; २० जे कुलवंत भला छइ सूर, तिहनइ द्यइ ग्रास तणा सवि पूर: वेला आई सारइ काम, तिहनइ कदे नहीं अपमान; २१ ते नवि कीणही करइ जुहार, घरि बइठा खाई भंडार; झूझ माहि ते न गिणई ‘आढ, करतारा स्यु मांडइ वाढ; २२ रिण खाखर पाखर घरि घणी, सवि सामहणी सुहड़ा तणी; अंगा टोप रिगावलि तणा, पार न लाभइ घरि छइ घणा; २३ संग्रहणी कीधा कोठार, धान तणा मोटा अंबार; घीव तेल री वावडि जिसी, जीमतां नहीं कदे खूटिसी; २४ मोटा राय तणी कूयरी, परणी पांचसइ अंतेउरी; रूपि करी नइ अति अभिराम, पटराणी हांसलदे नाम; २५ वरांगणा सहस इक जाणि, कंदर्प तणी जिसी हुइ खाणि; दासी सहस पंचसै घरई, सवि छारूप तिहां संचरइ; २६ द्रव्य तणी नहीं कामणा, सहस पंच मण सोना तणा; बहत्तर कोड़ि गरथ घरि होइ, पाखर पार न जाणा कोइ; २७ सूर्य वंसि माहि चंद्र समान, रणमल रायपाल बेऊ प्रधान; अरधी बुदी त्यांनइ ग्रास, घणउ परिवार अछइ तिहि पासि; २८ २१ द्य, आइ २८ त्यनइ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - हम्मीरायण अति दाता सरणाई सोई, रिणि अभंग सो राजा होई; न करइ कोई अन्याई रीति, राज करइ पूरबली रीतिः २६ सूर वीर बहुत गुण धीर, वहय वीरमदे राय हमीर; खत्रीवट खड़ग तणइ परमाणि, राज करइ रणथंभि चहुवाण; ३० मोटउ राइ राजि विधि बहु, तिणि थानकि निवसइ छइ सहु; करइ लील लोकातिहा सदा, तिणि नगरी दुख नहीं एकदा; ३१ चतुरंग लिखिमी निवसइ तिहां, दुख नही तिहि नयरी किहां; डंड डोर नवि लीजइ माल, तिणि नयरी दुख नहीं एक रसाल; ३२ तिणि अवसरि उलगाणा बेउ, रिणथंभोरि तिह पहुता बेउ; . महिमासाहि गाभरू मीरि, ते आव्या संभल्या हमीरि; ३३ तिहि मीरा नउ वडो प्रमाण, चूकइ नही ते मेल्हइ बाण; तिहरा प्राक्रम पार को लहइ, खडग छत्रीसी नी उपम वहइ ; ३४ सवा लाखरी सिंगणि धरइ, जोड मोल कुणही नवि करइ; तीर लहइ सहस दीनार, मेल्हंइ तीर जाइ घर बारि ; ३५ सरि लागाइ मरइ जइ कोई, सर ना मोल परोजन होई; घाइल हुइ लहै सर सोई, पछि पीडा तिणि पाटउ होई; ३६ बेऊ सूर नइ बेऊ रणधीर, अति दाता महिमासाह मीर; वाडी मांहि उतारा कीया, खाण खाय ते ससुता हुआ; ३७ गढ ऊपरि मोकली अरदासि, बेऊ मीर आव्या तुम्ह पासि; .. मोटो राव सुणी रणथंभि, म्हे आव्या थारइ उठभिः ३८ ३० खोत्रीवट ३२ कदा ( किहां ) ३३ बेउ मीर गाभरू ३६ घोईल ३७ हमीर, ऊतारा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण मनमांहि चमक्यउ राउ चहुवाण, भला सूर बेऊ पठाण ते लेवा मोकल्या प्रधान, राय हमीर दीयइ बहु मान; ३६ चरणे लागि रह्या सिरनामि, देइ बाह ऊठाड्या ताम; तुम्ह प्राक्रम अम्हे संभल्या, भलु हुवउ ते दरसण मिल्या ४० ॥ दूहा ॥ राय कहइ कारणि कवणि, आव्या एणइ ठामि; कइ सुरताणि जि मोकल्या, कइ तुम्हि घर कइ कामि; न सुरताणि जि मोकल्या, न म्हे घर कइ कामि; कटकविणास घणउ करी, सरणइ आव्या सामि; घणा देस अम्हे फिर्या, राखण कोइ न समत्थ; सवालाख संभरि धणी, भंजि अम्हारी अवस्थ अलुखान जि मंगीयउ, अम्ह तीरइ पंचाध; Jain Educationa International ४१ For Personal and Private Use Only ४२ घणा दिवस म्हे ऊलग्या, जेऊ न दीघउ आध ; ४४ ॥ चउपई ॥ अम्हनइ मान हुतउ एतलउ, घरि बइठा लहता कणहलउ; पातिसाह नइ करता सलाम, कटकि उलगता अलुखान ; ४५ इणि वचन दूहविया स्वामि, कालु मलिक मास्यउ तिणि ठामि; कटक मांहि कुलांहल कीया, जग देखंत इहां आवीया; ४६ अम्ह अपराध सहु इम कहीया, राखि राखि इम बोलइ मीया; सरणाई तु कहियइ लोक, राखि अम्हां कि विरद करि फोक ४७ अम्हे ऊलगिस्यां थारा पाय, किसी विमासणि म करिसि राय; मन मांहि कूड़ कपट म म जाणि, अम्ह तुम्ह साखि दिउ रहमाण; ४८ ४५ कणहत उ ४७ काा ४३ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण ए वृतांत राय संभली, मनि हरख्यउ संभरिनउ धणी; 'त्यांह नइ बाह दीयइ हम्मीर, महिमासाह तु म्हारउ वीर; ४६ अंतर किसी वात मत करउ, कुणही थकी रखे तुम्ह डरउ; तिहनइ राय दियइ घर ठाम, ग्रास घणउ वलि अधिकउ मान; ५०० ॥ वस्तु ॥ राय पभणइ राय पभणइ सुणउ तुम्हि मीर महिमासाह गाभरू तुम्हे सरणइ आव्या अम्हारइ, बांह बोल तिहनइ दियइ ग्रास घणु नित को दिवाइ कवि 'भांडउ' कहइ इसिउं हरख धरी मन मांहि, रिणथंभुर बसिया जि ते मीर नइ महिमासाहि; ५१ ॥ चउपई ॥ बिहु लाख सदा ते लहइ, बीजा ग्रास पार को लहइ; सूरा नइ छइ सगलइ ठाम, विण साहस नवि सीझइ काम; ५२ जेह वात लोके संभली, गयउ महाजन राउल गुनि मिली; पातल पाल्हण जाल्ह(ण) मिल्या, कोल्ह वील्हण देल्हणभिल्या; ५३ तोल्हण मोल्हण लियाहसी, आसड़ पासड़ नइ पदमसी; धांधउ धूधउ नइ धरमसी, वीसल वीरम नइ तेजसी;, ५४ वस्तु वीरम भणइ इम जोडि, प्रथमउ पूनउ पीथल तेड़ि; वीरू धीरू खेतल खीम, भांडउ सादउ डाहउ भीम ; ५५ ४६ हमीर ५० कीसी, ५१ वस्या ५२ जे ५५ पुनउ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - हम्मीरायण केलउ मेलउ वेलउ साह, नयणउ नरबद नरसी साह, सरणाई अनरथ नउ मूल, राख्यां होसी माथा सूल ; ५६ महाजन समझाई राई, कइ जि मिलिवा करउ उपाई; आसण बयसण दीधा मान, तिहां दिवाड़इ फूल फल पान; ५७ नगर लोक महाजन सहू, किणि कारणि मिलि आयउ बहू; इणि नगरी दुख नहीं कुणइ, लील करइ चहुआणा तणइ ; ५८ तई कीधउ अपरीछ यउ काम, मीरां नइ वलि दीधा गाम; ढीली थका जे आव्या मीर, राखण जुगतउ नहीं हमीरः ५६ । दूहा ॥ अलावदीन तणइ घरइ, कीधउ एऊ विणास; तिणि राखण जुगतउ नहीं, इम बोलइ 'भांडउ' व्यासः . ६० विष वेली ऊगंतड़ी, नहे न खूटी जे (होइ); इणिवेली जे फल लागिस्यइ, देखइलउ सहूवइ कोइ ; ६१ ॥ चउपई ॥ इणि वेली जे फल लागिसई, थोड़ा दिन मांहि ते दीसिसई; तिहरा किसा हुस्यइ परिपाक, स्वादि जिस्या हुस्यइ ते राख ६२ तिय कथनइ राई कानि नविदीयउ, सीख देई महाजन घरिगयउ; तेय पूठइ जे बाहर हुती, अलूखांन करइ वीनति; ६३ रिणथंभोरि हमीरदे राउ, सरणे राख्या महिमासाह; तेह न मानइ कुणही आण, तेहना गढ नउ घणउ पराण; ६४ ६२ लागिसी ६३ तय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण अलुखानि कोप मनि धस्यउ, मीर मलिक सहु साथइ कस्यउ; भला अपार नइ तेजी तुरी, त्रिहु लाखइ पडीवाधरी ; ६५ चडउ चडउ भला जे मीर, ऊठउ घोड़े बाहु जीण; पहिस्या जरद टोप जिण साल, घोड़े चड्या लेइ करवाल; ६६ अलुखान चडिउ जिणवार, देस माहि को न लहइ सार, ' कटक तणी नहीं का बात, करमदी बीटी आधी राति; ६७ हेड़ाऊ जाजउ देवड़उ, घोडा ले आयु वीकणउ; सोबति तियरी उतरी जिहां, तिसइ करमदी बीटी तिहां; ६८ जाजउ बाहर चड्यउ जिणवार, पंच सहस लीधा तोषार; कटक विणास कीयउ अति घणउ, जोउ प्राक्रम प्राहुणा तणउ; ६६ सोबति लेइ जाजउ गढि गयउ, राय हम्मीर तणइ भेटियउ, राति तणउ कहीयउ विरतंत, जाजइ लीधउ बहु वइ वित; ७० अलुखान पासरणउ कस्यउ, हीरापुर घाटउ उतस्यउः । सुधि न लाधी कुणही गामि, छाइणि सूती बीटी खानि; ७१ अलुखानि बंदि अति कीया, सहस चउरासी माणस लीया, बाली नगर ढाही अहिठाण, तिणि नयरी खान दिया मिलाण; ७२ देस मांहि भगाणउ पड्यउ, रणथंभवरि सह कोई डस्यउ। हाटे बइठा हसइ वाणिया, वेलि तणा फल योवउ सया [णिया] ७३ देखी दल चमक्यउ चउहाण, हम्मीरदे इम बोलइ राण; तउ हूंउ जयतिगदे पूत, मारी असुर दल आणुं सूत; ७४ ६५ अलुखानी, धरइ ७० हमीर, भेटियइ ७१ कीयउ ७३ तण ७४ हमीरदे, पुत्र, आणी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण सुहड़ भला जे तेजी सूर, ते तेडाव्या राय हमीर, लहता ग्रास अम्हारइ घणा, हिव अंतर दाखउ आपणा; ७५ सहु मिल्यउ पालउ परिवार, सवा लाख मिलिया झूझार; वाजिन तणी नहीं कामणा, वाजइ ढोल सीरहली तणा; ७६ सुभटे लीया सबल सन्नाह, त्यां सुभटां मनि अति उच्छाह; घणा दीह लगु रामति रम्या, तुरक देस हेलां निगम्या; ७७ गुड्या गयवर हयवर पाखस्या, घणा दीह लगु बांध्या चस्या; जातीवंत हुता तोषार, त्यांरी पुंठि हुवा असवार; ७८ महिमासाह गाभरू मीर, साथइ ले ऊतस्यउ हमीर; रातीवाह कटक माहि दीयउ, अलुखान तब भाजी गयउ ७६ कटक घणउ कीयो खराब, मास्वा मीर मलिक मूलाजाद; देस के घणा मास्यारि पठाण, सहस बत्रीस लीया केकाण; ८० अलुखान जइ भागो जाय, कोटी सूयार ति लूटी राय रणथंभवरि बधावउ करइ, ते मूरिख मनि हरख जि धरइ; ८१ अलुखान देस माहि गयउ, कटक सहू एकट्ठउ कियउ; पातसाह नइ गइ पुकार, घणउ कटक मास्वउ खुदकार; ८२ बीजा सहु मानइ थारी आण, एक न मानइ हमीरदे चहुआणः । जउरि न मानइ थारी आण, पातसाही थारी अप्रमाण; ८३ एउ पुकार सुणी सुरताणि, आलमसाह जपय रहमाण; खुदाइ खुदाइ करी मन माहि, दाढी हाथ घालइ पतिसाह; ८४ ७५ तेजि सुर ८२ गयो, कीयौ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण पुरहमाण तु खूद कार, आपि अलह आपि करतार आलमसाह तणइ अवतारि, कलिजुगि अवतरीयो मोरारि ८५ ॥ दहा ॥ खुन घणउ सुरताण नउ, कीधउ महिमासाहि तइ सरणाई हमीरदे, राख्या महिमासाह; ८६ रणथंभवर तणउ धणी, जेऊ न मानइ आण; सांभरि इयरइ वयसणइ, थारउ किसउ प्रमाण; ८७ ॥ वस्तु ॥ ताम असपति ताम असपति धरइ बहु कोप; अलावदीन कहइ इस्यु सहू मीर वेगा हकारउ; पातसाह फुरमाण दइ वेगि वेगि कोठी भराऊ; खान खोजा मलिकज अछइ तेइ म लाउ वार, आलमसाह रणथंभ नइ वेगि हुवउ असवार; ८८ ॥ दहा ॥ मोडि मूछ बोलइं इसउ, लिखउ लिखउ फुरमाण; सहू कटक मिलि आवियो, जे मानइ म्हारी आण; ८९ तिणि अवसरि अलावदीन, कीध प्रतगन्या ईस; रणथंभवर लेइ करी, तउ हूं घरि आवीसुः १० ६० कोध न प्रतन्या Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण ॥ चउपई ॥ करता; आलमसाह हुवउ असवार, जाणे गढ लेंसी तियरा दल नवि लाभै पार, छायो सूर हुव घोरंधार ; ६१ नीसाणे घाव घण वल्या, वाजइ ढोल ति पितलि गल्या; चक डाक बुक अति घणा, रिण काहल लागइ वाजणा; ६२ ढीली थकउ चाल्यु सुरताण, सेषनाग टलटलीया ताम डुंगर गुड़इ समुद्र झलहलइ, त्रिभुवन कोलाहल उछलइ ६४: इंद्रासणि जाइ लागी खेह, इंद्र जोवइ तिहां न्यान धरेवि अलादीन आपड़ सुरताण, रणथंभवरि जाई दीयउ पवाण; ६५ लोक कहइ कुण करसी काम, इन्द्र तणउ सहु लेसी ठाम; असी गढ अलखान ज लीया, डीलइ साहिब कणि कोटन बिगया;. ६६ इय आगलि नवि मांडइ कोई, माणस किसुं देव जइ होई; रणथंभवर तणी कुण बात, आगलि मेर न हुइ कांइसातः ६७ चउदह सहस माता उम्मत्ता, ते गुड़िया गयवर संजुत्ता, पाणीपंथा भला तोषार, बार लाख मिलिया असवार ६८ मुहिमद मीर मोटा पठाण, बे ऊमटी मुगल काफर ते अतिघणा, मलिक मीर मीया नह मणा; ६६ सतर खान मिलिया तिणीवार, बहत्तरि अंबरा भला भूभा पातसाह रा डीलज जिसा, तीयरा नाम कहुं हिव किसा; १०० काफर माफर जाफरखान, खोजी मोजी रोजी नाम; निसरतखान निकुंज निरोज, ताजखान री जमली फोज; १०१ आव्या खुरसाण, १८ ऊमता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ११ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण जिहर मलिक बीजुलीखान, सेख सरीसा मोटा नाम: अल्ल मल्ल चल्लू एऊ, घणा कटक स्यउं आव्या तेऊ; १०२ मांजी गालिम महिला खान, खूनी मुनी ज्ञानी नाम: सिहदल मलिक हसबा हसेब, मालद नगदल अलख असेवः १०३ हाजी कालू ऊंबरा बड़ा, पाहड़ प्रेम तिहारा धड़ा; स्रवलिक रुकबदीन बेऊ, ततारखान फोज मांहि तेऊ १०४ अहमद महमद महवी कीया, आलफखान पछवाण ज हूवा; कौरउपरि कीधउ मुगीस, दाफर फिरइ फेर निसदीस; १०५ राणो राणि हिंदु मिल्या घणा, दल आव्या देस देसह तणा; • 'भाडउ' कहइ वर्णवउ किसउ, पातिसाह दल चक्रवर्ति जिसउ; १०६ काली पाखर काला टोप, लोह तणा ते दीसइ टोप; घोडे चड्या ते आइध लेउ, जाणे जम ना सेवक तेउ; १०७ कटक तणी गाढी संजती, पांच लाख चालइ पालखी; राजवाहण वहिल चकडोल, धूजी धरा पडिउ हलोल; १०८ भोथी भोई भील अति घणा, सूई सूनार तणी नहिं मणा; । तंबोलीय मालीय कलाल, नाचणि मोची नइ लोहार; १०६ मोची घांची नइ तेरमा, धोई ढेढ साबणगर घणा; सइ सेलार सेख खाटही, कादी पुराण पढइ ले वही; ११० बाण्या बांभण बहुला मिल्या, बणकर सूत्रधार दलि भिल्या; कनड़ा कुर्कट हबसी किसा, खूटी देई झूझइ तिसा; १११ २०२ अलु मलु चलु २०७ जिम २०८ लेई ११० खाटकी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ हम्मीरायण कोठी अनइ घणा बाजारि, त्रिणि लाख गाडा कटक मझारि ; पोठी ऊंट गादह वेसरा, तिहरी पूठि भरया अति भस्या ११२ पाखर जरद अनइ जीण साल, जल जंत्र नालि ढीकुली झमाल, वर्णा वर्ण कटक मांहि सहु, जं जोईय तं लाभइ बहु; ११३. 'भांडउ' कहइ कटक अनमानि, सवाकोड़ि मिलिउ माणस ताम; खुर रवि खेह छायउ आभ, भूला न लहइ बेटउ बाप; ११४ जोयण च्यार पड़इ मिलाण, रूख वृख न रहइ तिणि ठाणि; समुद्र तणी वेलू हुइ जिसी, पातिसाह फोज हुइ तिसी; ११५. मनि चितवइ इसु सुरताण, जात समउ भांजिसु गढ ठाम; संभरिवाल जीवतउ ग्रहउं, सहर बंदि ले ढीली करउं; ११६ सवालाख माहि दीधीवाह, लूभइ बंधइ माणस आह; ढाहइ पोलि नगर प्राकार, देश माहि वलि फिर्या अपार; ११७. ॥ दूहा ॥ पातिसाह आदेश द्यइ; संभलि अलखान; देस विणास किसउ करउ, गढि जाइ द्यउ रि मिलाण; ११८ द्वाही छइ रि खुदाइ की, जइरि विणासउ देस; सीचाणा ज्यंउ झड़फ ल्यउ, रणथंभवर नरेस; ११६ ॥चौपई॥ आलम साह नइ अलुखान, वेगि करि गढि आव्या ताम; पातिसाह गढ दीठउ जिसइ, जोई द्रिष्ट विकासी तिसइ, १२०० सावंदलि आव्यउ सुरताण, फोज कीया मीर मलिक ने खान; हाल हाल करइ अपार, गढ पाखलि फिरीया असवार; १२१ ११२ उट Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “१४ हम्मीरायण नदी तणा जिसा हुइ पूरि, कटक तणा दीसइ झलूरि रूद्र घणा वाजइ नीसाण, गढरा लोक पडइ पराण; १२२ ढलकी ढाल फरहरी चांध, गढ पाखलि फिरीया वेढ; धूजी धरा गढ कांपीयउ, शेषनाग तिहि साही राखीयो; १२३ गढ चांपी आपि सुरताण, मिलाणीरा हुवा फुरमाण; घणा कटक अर मोटा खान, चहु पोलि हुआ मिलाण; पंच वर्ण तिहि देरा दीया, झलकइ कलस सोना रा तिहां; सहु कटक ऊतारा लीया, पाखलि सातपुडा गढ कीया; पातिसाह दल दीठउ जिसइ, गढना लोक चिंतवइ तिसइ गढ ऊपाड़ी पाडिसी, कोसीसा उतारसी; गढ मांहे हूयउ बाकार, सूरज तणी न लाधीसार काला कोट हाथिया तणा, गढ ऊपहरा दीसइ घणा; लोक सहू तिहि करइ विलाप, घणा देवला मांडइ जाप; राय हमीर चिंत नवि धरइ, लोक सहु नइ सुसता करइ १२८ कटक सहु मेल्हाणे. दुवउ, खेहाडंबर भाजी गयउ; दिस निर्मला भागउ अन्धार, ऊग्यउ सूर न लागी वार, १२६ लोका नउ भउ भाजी गयउ, कटक नहीं ए अचरिज भयउ; लोकानइ उपनउ उच्छाह, पुनिहि उपरि हुवउ भाव; १३० घणइ हरखि ऊग्यउ श्री सूर, तउ गढ मांहि वाज्या रिणतूर, राय हमीर वधावउ करइ, पातसाह देखी गोइरइ; १३१ आज अम्हारउ जिव्यउ प्रमाण, हु भलइ ऊपनउ चहुयाण; रिणथंभवरि हउ होवउ राय, मुझ घरि ढीली आव्यउ पतिसाह; १३२ १३१ हरख करउ १३२ जीव्यउ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण ॥ वस्तु ॥ ताम राजा ताम राजा धरियउ उछाह; गढ गाढउ सिणगारीउ भला सुभट नइ ग्रास अप्पइ; हरख धरी हम्मीरदे घणउ मान मीरां समप्पइ मुझ गढ भलइज प्राहुणउ आव्यउ अलावदीन; सफल दिवस हुउ मुझ तणउ जन्म आज धन धन्न; १३३ ॥चउपई ॥ रणथंभोरि गुडी उछली कोसीसइ कोसीसइ भली; तोरण ऊभवीया घर-बारि, मंगला (दियइ) चारि दियइ वर-नारि,१३४ च्यारि पोलि सिणगारी तिहां, आरीसारा तोरण जिहां; ऊभ्या धइवड़ चौंध पताक, गुहिरा बाजइ त्रंबक ढाक, १३५ बुरिज बुरिज धरइ नीसाण, ढोल ( तणइ ) घाइ पड़इ अरि प्राण; वाजई वरगू नइ काहली, देव सहु जोवा आव्या मिली; १३६ सात छत्र धरावइ सीस, चमर ढलइ (उचइ) रणथंभोरा ईस, पटहस्ती बयठउ चहुआण, नगर मांहि फिरि कीयो मंडाण; १३७ ॥दोहा ।। आलम साह आव्या भणी, कीधा बहुत उछाह; गढ गाढउ सिणगारीयउ, रिणथंभोरइ नाह; १३८ हमीरदे मनि हरखीया, दल देखी सुरताण; आपणपउ धन मानतउ, बंदिण द्यइ अति दान, १३६ १३३ हमारदे ३५ ऊसाध पंध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ हम्मीरायण बंदीजण आसीस घई, जइति हुवउ चहुआण; न्हांतां वाल रखे खिसइ, तं हम्मीरदे राणः १४० नगर लोक सहु मिल्या वध्वावर चहुआण; गढ वधावइ अति घण, भरि भरि अंखियाण; १४१ ॥ एक वार मोकलउ प्रधान; कहइ अंबरा मोटा खान, साची वात मानी सुरताणि, प्रधानां रउ जुगतउ जाणि; १४२ मोल्हउ भाट तेडाव्यउ सुरताणि, तेहनइ साहिब दे फुरमाण, सम्भरिवाल तीरइ तुम्ह जाउ, पूछइ किसउ कहइ ते राउ; १४३ राय हमीर तणइ भेटियउ; भाट नइ कीयउ प्राहुणउ; १४४ मोल्हउ भाट गढ माहि गयउ, राय हमीर ति मान्यउ घणउ, भाटइ आसीस ज दीध : चउपई ॥ तु ब्रह्मा जयउ सदा, जयति दीयउ श्री सूरि इतु ईसर रिक्षा करड, राम दीयउ रिधि पूरि १४६ ॥ दोहा ॥ भाट कहइ राजा निसुणि, इकु कीरति अरु लाछि; ते रिवा आवी निसुणि, किसी वरिसि, कहि साच; १४६ तूं वरि बेऊ वर तरणि, सयंवर मांड्यउ सुरितांणि; भाट कहइ हम्मीरदे, भली गिणइ ते माणि; १४७ १४१ वधावइ १४० हमीरदे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण ॥ चौपई ।। राज कहइ बारहटा बली, कीरति-लाछि मांहि कुण भली ; लाछइ गरथ घणउ आविसइ, कीरति देसि विदेसइ हुस्यइ ; १४८ 'मोल्हउ' कहइ मोकल्यउ सुरताणि, कहइ सु सुणइ हमीरदे राण; 'देवलदे' कुंवरी परणावि, धारू' 'वारू' साथि अलावि ; १४६ हाथी घण बे मागइ मीर, तुम्हनइ निहाल करइ हमीर ; अधिका दे 'मांडव' 'ऊजेणि', सवालाख संभरि तउ केड़ि ; १५० ॥दोहा॥ च्यारि बोल आपी करी, भोगवि लाछि अणंत ; 'मोल्ह' कहइ राजा निसुणि, कीरति दुहेली हुंति ; १५१ 'मोल्हउ' कहइबिसहर करिसि, जइ इन नामिसि नाक ; सरणाई आपिसि नहीं, कीरति होसी नाक ; १५२ कीरति मोल्हा ! वरिजि मई, लाछी तुं ले जाह ; डाभ अनि जे ऊपड़इ, ते न आप पतिसाह ; १५३ जइ हारउ तउ हरि सरणि, जइ जीपउं तउ डाउ; राउ कहइ बारहट ! निसुणि, बिहुं परि मोनई लाह ; १५४ ॥ चउपई। घणइ महति भाट वउलावियउ, घरनउ भाट साथिई मोकल्यउ ; मोल्हि जइ तिहि दीधी द्वाहि, घणउ मान दीधउ पतिसाहि ; १५५ २४३. तइ १४६ बोजी, - अरु, वरसि, १४७ मंड्यउ सुरताण, हमीरदे, तीमानि स, जयरिन । जइइन नाकि १५५ वउलाविवउ, साथि, नाल्हि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण (गाथा) रचिता सप्त समुद्रा निर्मिता जेन रवि शशि तारा । अविगत अलख अनंतो रहमाणउ हरउ दुरियाई॥ ॥अथ छपद ॥ रे देवगिरि म म जाणि, जुरे जादव किं नरवइ रे गुजरात म म जाणि, कर्ण चालुक न हुयउ रे मंडोवर म म जाणि, जुतई गाढम करि पहियउ रे जलालदीन म म जाणि, जुरे वेसासि जि ग्रहीयउ रे अलावदीन ! हम्मीर यहु, दिढ किमाड आडउ खरउ ; रिणथंभि दुर्ग लगंतड़ा, हिव जाणीयइ पटन्तरउ ; १५६ ॥दोहा ।। भाट कहइ भोलउ किसउ, तूं भूलउ सुरिताण ; गढ रणथंभ हमीरदे, जीपिसि किणिहि विनाणि ; १५७ नवि परणाव डीकरी, नवि आपउ बेऊ मीर ; हाथी गढ आपउ नहीं, इसउ कहइ हम्मीर ; १५८ तुं सरिखा सुरताणसु, करइ विग्रह निसदीस ; हमीरदे कहीयउ इसउ, तउइ न नामउ सीस ; १५६ सउ वरसां नु संचीयउ, धान चोपड़ गढ मांहि ; चहुयाण कहइ इसउ, रामति करि पतिसाह ; १६० २५६ हमीरयउ , १५८ नमवि, न > नवि अडवि, नुहइ - हुय उ गादिम, करि > जि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण - ॥ चौपई॥ भाट नइ तूठउ सुरिताण, घोड़ा अरथ दिवाड़इ ताम ; भाट कहइ आगइ घरि घणा, उचित भंडार अछइ तुम्ह तणा ; १६१ देवां नइ नरवर तणा, उचित न होइ भंडार ; नाल्ह' न लइ कारणि कवणि, हुं तूठउ करतार ; १६२ ॥चौपई॥ नाल्ह कहइ कारण सुरताण, तउ विग्रहि मरसी चहुयाण ; भाट मरइ आगलि तिणिवार, इणि कारणि न लीयउ भंडार; १६३ ॥ दृहा ।। नाल्ह कहइ साहिब सुणउ, ज दी मरइ चहुआण ; भाट उचित मांगइ तदि, कहि गयउ निज ठाण ; १६४ राजकुली छत्तीस नइ, चीरी दइ चहुआण ; या वेला छइ तुम्ह तणी, आवउ घणइ पराणि ; १६५ ॥ अथ पद्धड़ी छन्द ॥ संदा वंदा दाहिमा जाणि; कछवाहा मेरा मुकिआणं ; बारहड बोडाणा अतिझूझार, वाघेला मिलिया तिह अपार ; १६६ भाटिय गवड तुवर असंख, सुभट सेल चाल्या हसंत ; डाभिय डाडीय अति घणा हूण, डोडीयआण पयाणरूण ; १६७ १६४ ठाम, न्हाल, जदि, १६६ बरहा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० हम्मीरायण गुहिलत्र गहिल गोहिल राव, परमार पधार्या अति उछाह ; सोलंकी सिंधल घणइ मंडाणि, चंदेल खाइड़ा नइ चहुआण ; १६८ जाडा जादव महुउडा एव, सूरमा रणमल जाई तेउ; . राठवड़ मेवाड़ा निकुंद, छत्रीस कुली मीली आरम्भ ; १६६ हम्मीर राय हरखीय अपार, दीठा मिल्या अति झूझार; मंडलीक मउडउधाराणो राणि, सहुवमिलि आव्या तेणि ठामि ; १७०० रजपूतां नइ दीधा (अति) भला सनाह, अंगा रंगाउलि तणा ठाह; छत्रीस डंडाऊध लीय जाम, 'महिमासाह' उतऱ्या ताम ; १७१ मास्या मीर मलिक जाम, सगला दल मांहि पड्यउ भंगाण ; नवलखि मास्या निसरखान, बंबारव पड्यउ तेणि ठाणि ; १७२ 'महिमासाहि' मार्या घणा मीर, गढ जाय जुहास्या हमीर ; जस जयति हुउ चहुआण राय, कवि कहइ 'व्यास भंडउ' उछाह ; १७३ ॥दोहा॥ कटक मांहि हल हल हुई, हुउ दमामे घाउ ; सुभट सनाह लेई भला, चडिउ आलम साह ; १५४ ॥चौपई॥ आलमसाह चड्यउ सुरताण, कटक सहु नइ हुवा फुरमाण ; मोटा खान भारी ऊंबरा, तिणि गढि लागा पालाफीरा ; १७५५ २७० हमीर, मोडोधा, ठाणि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण कनड़ा कुर्कट हवसी जेउ, कोसीसइ जइ वाज्या तेउ ; मीर मलिक पठाण जि हुता, तिणि गढि चड्या घणा सुजुता ; १७६ चउद सहस गयवर तिह गुड्या, मदि माता भाखरि जाइ अड्या ; घंटा तणा हुवइ निनाद, गढना देव धरइ विषवाद ; १७७ सवालाख वाजा वाजीया, कायर तणा तिणि फाटइ हीया ; लबे लबे करइ इआर, जाणे गढ लेसी तिणिवार १७८ ॥ दोहा ॥ तिथि अवसर हम्मीरदे, तेड्या सगला राइ ; आज भलउ कील करउ, देखइ जिउ पातिसाह ; १७६ राजकुली छत्रीस नइ मोटा राणो राणि ; ते गढ़ हूता ऊतर्या, जझ करइ मंडाणि ; १८० २१ सूरा मनि उछाहड़उ, कायर पड़इ पराण ; बांका बोलजि बोलता, भाजि गया तिसि ठाण; १८५ पछेवड़ी घुटी समी, हाटो माहि घसंति ; लोह क्या देखि करि, गया ति कायर न्हासि ; १८२ ॥ चौपाई ॥ सात छत्र धरावय राइ, गयवर गुड्या आण्या तिणि ठाइ ; आलम ऊभो देखइ पातिसाह, बेऊ सुभट भिड़इ तिणइ ठाई ; १८३ बिहु दल बाजइ जांगी ढोल, नीसाणे पड़इ हिलोल ; बिहु दलि वाजइरिणि काहली, कटक दउड़ि झालरि रसि भरी; १८४ २७६ हवसि जेव, सुजुतु १७६ हमीरदे, राव आज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ हम्मीरायण अति मीठी बाजइ मूहरी, तियरइ नादि वीर रसि चडी; बिहु दलभाट करइ जयकार, सुभट भिड़इ न लाभइ पार ; १८५ ses ( तिह ) करवाल, वाहइ सेल घणा अणियाल ; सींगणि तणा विछइ तीर, इम मेल्हइ भिड़इ तिम वीर; १८६ यंत्र नालि वह ढींकुली, सुभट राय मनि पूजई रली; मरइ मयंगल आवटइ अपार, आहुति लइ जोगिण तिणि वार; १८७ गवर पड़इ विरहिणहिणइ, सुभट घणा रिणांगणि पड़इ ; लहता ग्रास घणा जे जिहां, तेऊ उसकल मांगइ तिहां ; १८८ . ॥ दूहा ॥ उलगाणा खायइ सदा, ऊरण हुइ इकवार ; चार्ड घणी ठाकुर तणी, सारइ दोहिली वार ; १८६ डील बड़इ लहता सदा, न्यामति घोड़ा ग्रास; गढि गो ग्रहि उरण करइ; त्यां सुरगापुरि वास; १६० ॥ चउपई ॥ पातिसाहि दल भागौ नाम, मार्या मीर मलिक बहु खान; गढ (नई) पूजा कीधी अति घणी, जयति हुइ रिणथंभोरह धणी; १६१ सहु कटक री कीधी सार, सवालाख खूटउ एकवार; सहु मलिक खान करइ सलाम, कटक मरावइ साहिब कुण काम; १६२ १८५ लियराइ, १८६ खाइ, १६० तिहां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण प्राणइ गढ लीजइ नवि किमइ, कोई उपाय चितवउ तिमइ; जर रिणि पुरावइ खुदकार, हेलां गढ लीजइ इक सार; १६३ रणथंभ ऊपरि चड्यइ सुरताण, देखइ गढनउ सहु मंडाण ; सिंघासणि सउ बेठउ राउ, रिण हुंतउ जोवै पतिसाह; १६४ महिमासाह कहइ सुणि राउ, मो घातइ आयउ पतिसाह, कहइति डील मारउ सुरताण, कहइति पाड़उ छत्र मंडाणि; १६५ राउ कहइ थारउ साचउ मीर, छत्र पाड़ि इस कहइ हमीर; कहइ पठाण सुणि गोमरा, इणि जीवति किउ भूजिसि धरा; १६६ खांचि बाण तिण मेल्ह्यउ मीरि, सात छत्र तिणि पाड्या तीरि; चिति चमकिउ आपु सुरताण, महिमासाह तणउ ए पराण; १६७ पहिलउ रिण पूरउ लाकड़े, देई आग बाल्यउ तिय भड़े; कटक सहू नइ हुयउ फुरमाण, वेलू नखाउ तिणि ठाणि; १६८ सुथण तणी बांधइ पोटली, मीर मलिक वेलू आणइ भरी; न करइ कोइ भूझ गढ वाल, वेलू आणइ सहि पोटली; १६६ छठ मासि संपूरण भस्यउ, ते देखी लोक मनि डस्य उ कोसीसइ जाइ पहुता हाथ, तुरका तणी समी छइ बाच्छा २०० राय हमीर चिंतातुर हूयउ, रिण पूरयउ दुर्ग हिव गयउ; गढ देवति लही परमाथ, आणी कुंची दीधी हाथि; २०१ राय बारी उघाड़ी ताम, देव माया पाणी वहिया ताम; वहि वेल पाणी सुं गयउ, तेह कोल वलि ठाउ थयउ, २०२ १६३ आणइ हेली २६४ देखी, सिघसरण, हुता, १६५ मिल १९६ पाठण, १६७ मेलउ १६६ भली २०१ चिंतातुउ, २०२ हमीर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only २३ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ -- - - हम्मीरायण राउ आगलि नितु पालउ पड़इ, देखी पातसह धड़हड़इ; धारू वारू नाचइ बेऊ, पुठि दिखालइ पातिसाह नइ तेउ; २०३ कोई कटक मांहि भलउ मीर, नाचणि मारइ मेल्हइ तीर; जइ हुवइ महिमासाह नउ कोइ, इय विंदां तणि मारइ सोई, २०४ सारी दुनी मांहि को इसउ, इय विदां तणि मारइ जिसउ; महिमासाह नउ काकउ होई, एअ विदां तणि मारइ सोई; २०५ इयणा घरनी विद्या एऊ, भला मीर नवि जाणइ तेऊ; ढीली मांहि वंदि तुम्हि धस्यउ, तउ खिणि आणि ऊभउ कस्यउ; २०६ तुम्हनइ निहाल करउ बड़ा मीर, इय विदां तणि मारइ तीरि; साहिब सिंगणि वाण्या हाटि, सवालाख अडाणी माटि; २०७ सिंगणी घणी भली द्यइ हाथि, सींगणि खांची कुटका सात; आणावी सिंगणी सुरताणि, मीरां नई अति चड्यउ पराण; २०८ राव आगलि तव माँड्यउ नाच, धारू वारू नाचइ पात्र तोडी ताल पुठि फेरी जाम, मलिक मीर मारी ते ताम; २०६ एकई तीरि पात्रि मारी बेउ, गढ बाहरि मारी पाड़ी तेऊ, घणउ उचिति दीधउ सुलताणि, एउ पवाड़उ कीघउ तिणि ठामि २१० गढ गाढउ विंट्यउ सुरताणि, को सलकी न सकइ तिणि ठामिः मांहो मांहि मरइ लखकोड़ि, पातिसाह नवि जाए छोड़िा २११ बार वरिस नउ विग्रह कीयउ, मीर मलिक घणा तिह मुवा; ढीली थी आई अरदासि, किसइ लोभि साहिब रघउ वासि; २१२ २०४ जय, २०७ कसह, २०६ वमभ रो मरी-मारी ताम, २५० बहरि मोरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण संइभरिआल न मानइ आण, दंड नवि घई तुझ नइ सुरताण; गढ नवि लीजइ प्राणइ किसइ, कटक मरावीइ कारण किसइ; २१३ थारइ गढ छई आगइ घणा, घर संभालि साहिब आपणा; पुत्र कलत्र सहुअइ परिवार, तीयारइ मेलउ दइ खुदकार; २१४ साहिब कहइ सुणउ सहु मीर, नाक नमणि जे देइ हमीर; . घरि जातां सोभा हुइ घणी, पति पाणी रहइ आपणी; २१५ पातिसाह कहावइ ईम, बार बरस विग्रह नी सीम; तं मोटउ अगंजित राव, सरणाई तणउ पतिसाह; २१६ बार वरस आपे रामति रमी, मुनइ घरि मुकलाविनइ किमइ; हुँ थारइ आव्यउ पाहुणउ, मुहत देइ मो दे ताजिणउ; २१७ दूहा ॥ पातिसाह इसउं कही, गढि मोकल्या प्रधान रामचंदि रूड़उ कीयउ, लोक कहइ चहुआण, २१८ आलम साह रइ आगलइ, तुं ऊगस्यउ अभंग; खिजमति देइ बउलावि नई, जेम रहइ अतिरंग; २१६ लोक कहइ चहुयाण नइ, ईम विमासी जोई; मोटां सुं नमता कदे, दूषण नावइ कोई; २२० घणउ विसास जिहां तणउ, ते तेड्या राय प्रधान; रणमल रायपाल सूरिमा, मोकलिजइ तिणि ठाम; २२१ २२१४ सहुव, २१५ सुणि २१६ अगीजित, २१८ कहइ, २१६ चलावि तुरंग, २२० इम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . हम्मीरायण कवि कहइ 'भांडउ' इसउ, संभलिज्यो सहु कोई; ते प्रधान जं करइ, अचरिज जोवउ लोई; २२२ ॥ चउपही ॥ राय हमीर मोकल्या प्रधान, रणमल रउपाल गया तिणि ठामि, पातिसाह नइ कीया सलाम; आलमसाह दीयइ बहु मान; २२३ रणमल तीरइ पूछइ पतिसाह, तुम्ह नइ ग्रास किसु दे राउ; . अरधी बंदी अमनइ ग्रास, जिमणइ गोडइ बइसारइ पासि; २२४ सइ हथि बीड़उ अम्हनइ दइ राउ, गढ प्रधानउ करां पतिसाह; तउ तुम्हि आव्या बड़ा प्रधान, घर मुकलावउ अम्ह नइ देइमान; २२५ बार वरस तइ विग्रह कस्वउ, गढ लीया विणु काइ पाछउभयउ; रिणमल राइ (पाल) कहइ सुरताण, बंधव गढ नवि लीजइ प्राणि; २२६. पूरी बूंदी द्य सुरताण, अम्हे गढ द्यउ (तुम्ह) विण प्राणि सुणी बात हरख्यउ सुरिताण, लिखि इहां दीध तिहां फुरमाण; २२७ अम्ह तुम्ह विचइ अलख रहमाण, कोस क्रीया करइ सुरताण; बीजा ग्रास द्यउ अति घणा, बाह बोल तु दीउ आपणा; २२८ मति भूला नही तीय मान, तियां मुरिखानी नाठी सान, हीया सूना जाणइ नही ईम, तुरका नइ वेससिजइ केम, २२६ स्वामी-द्रोह कीयउ तिए तिहां, परिघउ ले आवां छां तिहां, मनि हरख्या रिणमल राउपाल, कूड़ करी गढि ग्या ततकाल; २३० २२४ रइ, २२७ दे, २३० रीउपाल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण - - - राय हमीरपूछ्यउ (छइ) इसउ, पातिसाह मांगइकहि किस; देवलदे मांगइ कुंवरी, द्रोहे बात मनि हुंती कही; २३१ देवलदे ( इ ) कहइ सुणि बाप, मो वड़इ ऊगारि नि आप; जाणे जणी न हुंती घरे, नान्ही थकी गई त्या मरे; २३२ राय हमीर सुधि नवि लहइ; सहु परिघउ फेस्यउ तिणि समइ; गढ नउ लोक न जाणइ भेउ, रणमल रायपाल करइ छइ तेउ; २३३ कोठारी नइ बोल्यउ विरउ, धान नखावि सहु तउ परउ; अम्हनइ बूंदी पूरी हुई , तं परधानउ देस्यां सही; २३४ तिणि नीचि नाख्या सहुधान, रिणमल रउपाल परधान; वीरमदेरी घालइ घात, राय तणइ मनि न वसी बात; २३५. रिणमल रउपाल मांगइ पसाउ; एकवार परघउ द्यउ राउ; कटकि कीलउ करां अति भलउ, जे में तुरक पाडां पातलउ; २३६ राय तणइ मनि नही विशेष , द्रोहे कीधउ काम अलेख सवालाख परिघउ ( द्यइ ) रावु, द्रोहे मिल्या जाई पतिसाहि; २३७. सात वार पहिराव्या तेउ; मूरख हरख्या गाढा बेऊ; कोसीसे थीयउ देखइ राऊ, जोवउ रणमल खेल्यउ डाव; २३८ अणचिंतइवी हुइ कुण बात, दसा देवि दीधी अति घात; पापी परधान पहड्या बेउ; परिघउ सहु लोपउ तेउ; २३६ गढ मांहि नहीं को जूझार, जइरइ हाथि दीजइ हथियार वांकउ देव तणउ विवहार, जीती कोई न जाई संसारि, २४० २३१ पूछइ, इसु मान, २३२ नहीं तु, २३३ भेऊ', २३४ नाखिउ, २३६. करा ति, २३८ खेलइउ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण ॥ दूहा ॥ तइ गढ पुठि ज दीध मूहउ, तुझ पूठि न देसि कीरति नारी वरि जि मइ, आज प्रमाण करेसि; २४१ मउड़उ वेगउ मरण छइ, सहुकिण नइ संसारि; 'भांडउ' कहइ राजा निसुणि, कलि माहि बोल ऊगारि, २४२ गढि गो ग्रहिय मरई जिके, तियां रइ मोख दुवार; अवसरि मरइ हमीरदे, नाम रहइ संसार; २४३ अवसरि जे नवि ओलखइ, नीभागीए नरेह; 'भांडउ' कहइ ते भीखिया, लहिसिइ नही वलेह; २४४ लोक सहु तेड़ी करी, पूछई राउ चहुयाण; हुं ठाकुर थे प्रजा थां, वउलावु किणि ठाणि; २४५ हमीरदे थारा अम्हे, सात प्रियां लगु लोक; ईणि वेला जे पुठि द्या, जणणी जाया फोक; २४६ जाजा तु घरि जाह, तु परदेसी पाहुणउ म्हें रहीया गढ मांहि, गढ गाढउ मेल्हां नही; २४७ जाजउ कहइ ति जाउ, जे जाया तिह जण तणा; अरथ विडाणा खाई, साई मेल्हइ सांकड़इ; २४८ जाजउ कहइ (ति) राजा निसुणि, अवसर जेम लहेसि तई मरतइ गढ भाजसइ, कलि मांहि नाम करेसि; २४६ २४२ मरणउ अछइ, २४३ ग्रहि, कलिमाहि, २४५ प्रजथी, २४६ लोक म्हे, द्यु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण भाई भणी मइ भगतावीउ, तु महिमासाह हमीर: देव सूत्र ईसउ हूवउ, वउलाऊ कहि मीर; २५० ईण वचनि झांखा थई, बोलइ बेऊ मी; अनरथ अणहू तर करी; जउ जाहं कहइ हमीर; २५१ म्हां दीधां जइ ऊगरइ, तउ तूं गढ ऊगारि; मीर कहइ हम्मीर दे, अनरथ हुतउ निबारि; २५२ मनि मच्छर अधिकउ धरी, बोलइ राय हमीर डील वड़इ सुरिताण नइ, आपिसु ? बेड मीर; २५३ महिमासाहि इसिउं कहई, निसुणि राय हमीर धान जोवाड़ि कोठार नां, गढ राखां तर मीर; २५४कोठारी राय पूछियउ; केता धान कोठारि; afros वाणिes देखालीया, ठाला लेई अंबार २५५० ( वस्तु ) राउ चिंतइ राउ चितइ मनह मारि गढ गाढ पहड़ीयउ, घणउ द्रोह रणमलइ कीधउ समउधान तूटउ तिहां, अति दुःख कोठारी दीधउ वेग वेग जमहर करउ, कोई मालावर वार पटराणी राजा वीनवइ कुलनउ नाम उगारि २५६ ॥ चउपई ॥ वीरमदे नइ राजा कहइ, तूं नीकलि, जिम वंसज रहइ; वीरमदे कहइ सुणि वीर, तूं मेल्ही न जाऊं हमीर; २५७ - २५६ वीनवउ Jain Educationa International २६ For Personal and Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - हम्मीरायण साची वात मानी चहुयाण, कुमर तेडाव्या तेणइ ठामिः टीलउ काढि खड़ग दीधउ हाथि, रिणथंभोरि वड़ा हुजउ हाथ, २५८ बांभण नइ तुम्हि देज्यो दान, रखे महेसरी कर प्रधान महेसरी ना वाढिज्यो कान, तुरका ने देज्यो बहुमान; २५६ राय सिखावणि दीधी भली, तीयांरी माइ साथि मोकली; तीह नइ घोड़ा दे रजपूत; दियइ बाप वली दुइ पूतः २६० राय हमीर मीर नइ कहइ, हाथी मारि रखे कोई रहइ; मेल्हइ मीर प्राण अति वाण, नव नव हाथी पाड़इ ठाण; २६१ सालिहोत्र सूधा तूषार, ते मारीजइ तेणइ वार; घरि घरि जमहर लोके कीया, राऊल गुन बलइ छइ तिहा; २६२ जमहर रा माता धूकला, राय अंतेउर लागा बला; करी सनान पहिरीया चीर, ऊगटणे लूहीया सरीर, २६३ सिरि सिंदूर सिंध तेडिया, सवा कोड़ि का टीका किया; नयणे काजल सारी रेह, मुख तंबोल समाण्या तेह; २६४ काने कुंडल झलकइ तिया, सूरिज चंदरी ऊपम जीया; "बांहइ बांध्या बहरखा भला, सोवन चूडी खलकइ निला; २६५ आंगुलीयां सोहइ मूदड़ी, सवा लाख री हीरे जड़ी; कंठनि गोदर उरिवर हार, पाई नेउरि झण झण कार; २६६ सोलह सिंगार संपूरण कीया, नाचइ गावइ गाढी तीया; -आपण पणा संभालइ प्रिया, बेऊ पक्ष उजालइ त्रिया; २६७ -२५८ ते अाव्या, २६० दइ, २६१न, २६३ उगटणे, २६४ सिंघां ताडीया, “कीयो, २६७ प्रिया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण ३१ देव तणी देवी हुई जिसी, राय तणी अंतेउरि जिसी; ते देखी देव खलभलइ, राय कुंवरी इसी परि बलइ; २६८. (रा) जाणे तिणि गढि पडिउ पुलउ, लोक सहू को लागउ बलउ; अरथ भंडार संजति समुदाय, राछ पीछ बलइ तिणि ठाउ; २६६ सोना जड़ित बलइ पलाण, जीण साल हथियार लगाम; पलंक ढोल कमखानइ पाट, चरु त्रंबालु कचोला त्राट; २७० करणाली सोना रूपा तणी, गरथि भरीय बलइ अति घणी; कुमखा कतीफा जुन पटकूल, सउड़ि तलाइ तणा अति पूरः २७१ एकवीस मूमिया बलइ आवासि, जाइ झाल लागी आकासि हणवंति जेम पजाली लंक, ते बीतक वीता रिणथंभि; २७२ जमहर करी पहूंतउ राउ, न को ऊगरिउ तिणि ठाउ उत्तम मध्यम [को न लहइ पार, सवा लाख नउ हुवऊ संहार, २७३ गढ सगलउ मुकलावइ ताम, चिहु पोलि फिरि कीयउ प्रणाम; पातिसाह नइ पूठि न देसि, चहुयाणाइ गढ वलि आणेसि; २७४ मुकलावइ देहुरा रा देव, कोठारे गयउ तिणि खेवि वावि सरोवर नगर विहार, मुकलावइ भडार कोठार; २७५ ऊभउ रहि जोवइ कोठार, धान भस्या दीसइ अंबार; जाजउ वीरमदे बे मीर, गढ राखिस्या म मरि हमीर; २७६ राय कहइ बंधव सुणि वात, या कीसी बोली तइ घात; अनरथ हुवउ घणउ तिणि ठामि, हिव रहि नइ करिस्यां कुण काम २७७ २६६ लागइ बलइ, ति ठाई, २७० लगाश, १७२ वलइ अवासि २७३ उगरउ, ठामि, २७६ ऊभउ, २७७ तू, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण ॥ दहा ॥ वीरमदे हम्मीरदे, मीर नइ महिमासाहि भाट नइ जाजउ पाहुणो, ए रहिया गढ माहि; २७८ः जमहर करी छड़उ हुयउ, हमीरदे , चहुयाण, सवालाख संभरि धणी, घोड़इ दियइ पलाण; २७६ छत्रीसइ राजाकुली, ऊलगता निसि-दीस तिणि वेला एको नहीं, उवाढउ लेवहु ईस; २८०. हाथी घोड़ा घरि हुंता, उलगाणा रा लाख; सात छत्र धरता तिहां; कोइ न साहइ वाग; २८१ नगर (लोक) मोह मेल्ही करी, घोडइ चढ्यउ हमीर; कदि ही जुहार न आवतउ, पालउ पुलिइ ति वीर; २८२. बांधव पालउ देखि करि, गहबरीयो हम्मीर; इणि घोड़इ कुण काम छइ, तिणि पालउ मुझ वीर; २८३ सइहथि घोड़उ मारि करि, पालउ चाल्यउ राउ; पगि पाहण लागइ घणा, लोही वहइ प्रवाह; २८४ महिमासाह कांधइ करइ, अम्हारा साहिब हमीर; वीरमदे वलतउ कहइ, बंधव वेलां (ह) मीर ! २८५ देव सहु मनि काल मुह, सूरिज प्रमुखज केविः तीनइ त्रिभुवन डोलिया; राय हमीर देखेवि; . २८६ (ए) खाज्यो पिज्यो विलसज्यो; ज्यां रइ संपइ होई; मोह म करिज्यो लख्मी तणउ, अजरामर नहिं कोइ; २८७ २७६ हमीर २८० उलगता नसदीस, इस, २८३ हमीर, १८४ हमीर २८६, काल मुहा हुवा, २८७ नाही मास Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण (ए) खाज्यो पीज्यो विलसज्यो; धनरउ लेज्यो लाह; कवि 'भांडउ' असउ कहइ, देवा लांबी बाह; ॥ चउपई ॥ भाट नइ राय दीघउ काम, दाध दिवाड़ेइ रूड़इ ठामि; घोर घलावे बेऊ मीर, इसउ आदेश दियइ हमीर; || ZIET || संवत तेरह इकहत्तरइ, जेठ आठमि सनिवार; राउ मूवउ गढ पालट्यउ, जाणइ इणि संसारि; २६१ थे + यह पंक्ति उदयपुर वाली प्रति में नहीं है । ३ 'जाउ' 'वीरमदे' हसमस्या, पिहिली किलर अम्हे झालिस्या; हाथ जोड़ि बे बोल मीर, अवसर हमारउ आज हमीर; म्हांथी दुख सही अति घण, नाक न नाम्यड पणि अपणड; पहिला जे तुम्ह आगलि मरां, थारा मुरंग उसांकल करां; ऊ मीर भिड़इ अति भला, मारइ कटक घणा एकला; [+ चोटी साहइ भला अइयार, छरी स्यउं खंड करइ दसवार ] भिड़इ 'देवड़उ जाजड' भलउ, वीरमंदे अति कीधउ किलड; भाट कहइ सुण महाराज, कुण नइ प्राण दिखालउ आज; राय पवाड़उ कीयउ भलऊ, आपण ही सास्थउ जे गलऊ; २६२ Jain Educationa International ३३ For Personal and Private Use Only २८८ २८६ २६० २६१ २६३ २६४ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण ॥ चउपई ॥ धरा पीठ पड़ियउ 'हमीर', ऊभउ भाट बोलइ जई मीरः 'जाजउ' सिर सिर ऊपरि कीयउ, जाणे ईश्वर तिणि पूजीयउ; २६५ 'वीरमदे' रउ माथउ देठि, बेउ मीर पड्या पग हेठि; देवलोकि जइ बइठउ राउ, कुडि रखवालइ भाटज तेऊ; २६६ राति विहाणी हुवउ परभात, पातिसाह तिह मेल्इइ खाट; हमीरदे पड्यउ छइ जिहां, पालउ ऊपरि आव्यउ तिहां; २६७ सींगणिगुण तोड़इ सुरताण, आलम साह न खाई (न) खाण; 'रिणमल' तीरइ पूछइ पतिसाह, तुम्हारा साहिब कुण इह माहि; २६८ घणउ द्रोह आगइ तिणि कियउ, खाते पीते आकज लीयउ; मदि माता हूया जाचंध, पगस्यउ राऊ दिखालइ अंध; २६६ ए मोटउ पृथवीपति राव, भली परि झूझ्यउ तिणि ठाई; संभरिवाल सरीसउ बली, कोई न हींदू ईणइ कली; ३०० पतिसाह कुमख्यउ अति घणउ, सइ हाथि आप दियइ खापणउ; 'बिरद' नाल्ह भाट] बोलइ तिणिठाइ, पतिसाह नइ दीधी द्वाहि; ३०१ बोलइ भाट करइ कइवार, बोलइ विरद अतिहि अपारः धन जननी हमीर दे, सरणाइ वि जइ पंजरो सूरो; ३०२ तु आलम अल्लाह तु, तू अलख्ख करतार; वाच संभालि न आपणी, उचित आपि खंदकार; ३०३ २६६ बोऊ, २६६ मनि, ३०० पति, इणइ कलि, ३०१ ठामि ३०३ अलाह,अलख Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण सिरि सिरि ऊपरि देखिकरि, पूछिउ आलम साहि; भाट कहइ जि कुण आदमी, ए हुआ कलि मांहि; रिणथंभवर जे जलहरी, राई हमीर बइठउ ईस; वइजलदे 'जाजउ देवड़उ', पूज्यउ साहिब सीस; . ३०५ (य)उ वर वीरमदे वली; बंधव राय हमीरः जु 'महिमासाह' 'गाभरू,' थारा घर का मीरः । इय चहुयाण 'हमीरदे', सरणाई रखपाल; 'अलावदीन' तुझ आगलइ, मोटउ मूउ भूपाल; ३०७ मान न मेल्यउ आपणउ, नमी न दीधउ केम; नाम हुवउ अविचल मही, चंद सूर दुय जाम; इन्द्रासणि 'हम्मीरदे', जोवइ 'नाल्ह' की वाट; । उचित देई वुलावि नई, करी समाध्यउ भाट; ३०६ 'नाल्ह' कहइ सुरताण नई', थापणि दइ मुझ आज; भाट नइ मुकलावि परहउ, हमीरदे कइ राजि; ३१० ३ ॥ चउपई॥ पातिसाह 'नाल्ह' नइ कहइ , मांगि जि काई थारइ मनि गमइ; गढ अरथ देस भंडार, मांगि मांगि म म लाइसि वार; ३११ अरथ गरथ देस भंडार न काम, साथि किंपि न आवइ सामि; जइ तूंठउ आपइ खंदकार, द्रोहांति नइ परहा मारि; ३१२ ३० ५इस, ३०८ थई, ३०६ हमीरदे, ३११ म - म म, ३५२ साथी न, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण स्वामीद्रोह करइ मित्रद्रोह, विश्वासघात करइ नर सोई; थापणि राखइ प्रकासइ गुझ, सो नर मारीजइ अबूझ, ३१३ जे हुता मोटा परधान, बूंदी सरिखा भोगवता ग्राम; सई हथि बीड़उ लहता बेउ, पगस्यउं राव दिखाल्यउ तेउ; ३१४ बाण्या हाथि हुंता कोठार, राय हमीर न लहतउ सार; . दास किराड़ कूड कीयउ घणउ, धान नाखिउ कोठारा तणउ; ३१५ रणमल, रायपाल, वाण्या तणी, खाल कढाइ अंगुठा थकी; भाट समाध्यउ गाढउ होई, कलि मांहे पाप करइ नवि कोई; ३१६ जइ तूठउ (तउ) आपइ तउ आपि, भाट नइ वलि धइ निरबाप; पातिसाह विमासइ आप, रिणमल रिउपाल मास्या नहीं को पाप; ३१७. जयइर लहता एता ग्रास, तीया मांहि कुण कीधा काम; पातिसाह दीधउ फुरमाण, खाल कढावउ बिहु नी तिणि ठाम; ३१८ पापी नइ आपडीयउ पाप, कीधउ समाध्यो गाढउ भाट; पातिसाह उसंकल हूवउ, हणी भाट सुरगापुरि गयउ; ३१६ रजपूता ने दीधा दाध, घोर घलाव्या (बेऊ) मीर अदाध गंगामांहि प्रवाहउ राइ, घणउ भलउ कीधउ पतिसाहि; धनुपीता चहुयाण तणउ, मात्र पख्य उजाल्यउ घणउ; धनु धनु जीवी राय हमीर, जिणि सरणाई राख्या बे मीर, ३२१ मोटउ मीर महिम्मासाह, जीह पूठि आव्यउ पतिसाह; जाजा वीरमदे रा नाम, जग ऊपरि हुवा तिहरा नाम; ३२२ ३१३ स्वामिद्रोह, विश्वासी ३१४ स = सई ३१६ गयो, ३२२ महिमासाह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण भाट घणउ सनमान्यउ ताम, स्वामि काज कीधउ अभिराम ; वयर वाल्यो हमीरदे तण, कलि माहि नाम राख्यउ आपण; ३२३ रामायण महाभारथ जिसउ, हम्मीरायण तीजउ तिसउ; पढइ गुणइ संभलइ पुराण, तियां पुरषां हुइ गंग सनान; संवत् - १६३६, वरषे भादवा वदि १० रविवारे लिखितं विजकीरति मलधार गच्छे । ॥ राय हमीरदे चौपई पूरी छै ॥ दूहा गाहा वस्त चऊपई, तिनिसइ इकवीसा हुई; पनरह सइ अठतीसइ सही, काती सुद्दि सातम सोम दिनि कही; ३२५ सकल लोक राजा रंजनी, कलिजुगि कथा नवी नीपनी; तां दुख दालिद सहु टलइ, 'भांडउ' कहइ मो अफलां फलइ ३२६ ३२४ हमीरायण वीतउ, गंगा, ३२५ चउपही । Jain Educationa International ३७ For Personal and Private Use Only ३२४ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (१) प्राकृत-पंगलम् में हम्मीर सम्बन्धी पद्य [१] गाहिणी:मुचहि सुन्दरि पाअं अप्पहि हसिऊण सुमुहि खग्गं मे। कप्पिअ मेच्छशरीरं पच्छइ वअणाई तुम्ह धुअ हम्मीरो ॥ ७१ ॥ रण यात्रा के लिए उद्यत हम्मीर अपनी पत्नी से कह रहा है - हे सुन्दरि, पांव छोड़ दो, हे सुमुखि हंसकर मेरे लिए ( मुझे) खङ्ग दो। म्लेच्छों के शरीर को काटकर हम्मीर निःसन्देह तुम्हारे मुख के दर्शन करेगा। [२] रोला: पअभरू दरमरू धरणि तरणिरह धुल्लिअ झपिअ, कमठ पिट्ठ टरपरिअ मेरू मंदर सिर कंपिअ । कोह' चलिअ हम्मीर वीर गअजूंह संजुत्ते, किअउ कठ्ठ हाकंद मुच्छि मेच्छह के पुत्ते ।। ८२ ॥ पृथ्वी ( सेना के ) पैर के बोझ से दबा ( दल ) दी गई; सूर्य का रथ धूल से ढंक (झप) गया; कमठ की पीठ तड़क गई, सुमेरू तथा मंदराचल की चोटियां कांप उठी। वीर हम्मीर हाथियों की Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ - परिशिष्ट (१) सेना से सुसज्जित (संयुक्त) होकर क्रोध से [रणयात्रा के लिए] चल पड़ा। म्लेच्छों के पुत्रों ने बड़े कष्ट के साथ हाहाकार किया तथा वे मूर्छित हो गये। [३] छप्पय : पिंधउ दिढ सण्णाह वाह उप्पर पक्खर दइ । बंधु समदि रण धसउ सामि हम्मीर वअण लइ॥ उड्डउ णहपह भमउ खग्ग रिउ सीसहि मल्लउ । पक्खर पक्खर ढल्लि पल्लि पव्वअ अप्फालउ । हम्मीर कज्जु जजल भणह कोहाणल मह मइ जलउ । सुलताण सीस करवाल दइ तजि कलेवर दिअ चलउ ॥१०६॥ वाहनों के ऊपर पक्खर देकर ( डालकर ) मैं दृढ़ सन्नाह पहनू, स्वामी हम्मीर के वचनों को लेकर बांधवों से भेंटकर युद्ध में धसू; आकाश में उड़कर घूमू, शत्रु के सिर पर तलवार जड़ दू हम्मीर के लिये मैं क्रोधाग्नि में जल रहा हूं। सुलतान के सिरपर तलवार मारकर अपने शरीर को छोड़कर मैं स्वर्ग जाऊँ। . १ :-यह पद्य प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मतानुसार शाङ्गधर के 'हम्मोर रासो' का है, जो अनुपलब्ध है। राहुलजी इसे किसी जज्जल कवि की कविला मानते हैं । पर वास्तव में स्वामीभक्त जाजा और जज्जल एक ही मालूम देता है, जिसकी उक्ति का कवि ने वर्णन किया है। देखिये :-हिन्दी साहित्य का इतिहास पृष्ठ र५, हिन्दी काव्य धारा पृष्ठ ४५२ । । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० हम्मीरायण (४) कुंडलिया : ढाल्ला मारिअ ढिल्लि महं मुच्छिअ मेच्छ सरीर । पुर जजल्ला मंतिवर चलिअ वीर हम्मीर ।। चालिअ वीर हम्मीर पाअभर मेइणि कंपइ। . दिग मग णह अंधार धूलि सूरह रह झंपइ । दिग मग णह अंधार आण खुरसाणक आल्ला । दरमरि दमसि विपक्ख मारु, ढिल्ली महं ढाल्ला ॥ १४७ ॥ दिल्ली में (जाकर) वीर हमीर ने रणदुदुभि ( युद्ध का ढोल) बजाया, जिसे सुनकर म्लेच्छों के शरीर मूच्छित हो गये। जज्जल मन्त्रिवर को आगे (कर) वीर हम्मीर विजय के लिये चला । उसके चलने पर ( सेना के ) पैर के बोझ से पृथ्वी काँपने लगी। (काँपती है ), दिशाओं के मार्ग में, आकाश में अंधेरा हो गया धूल ने सूर्य के रथ को ढंक दिया। दिशाओं में, आकाश में अंधेरा हो गया तथा खुरासान देश के ओल्ला लोग ( पकड़ कर ) ले आये गये। हे हम्मीर, तुम विपक्ष का दल मल कर दमन करते हो; तुम्हारा ढोल दिल्ली में बजाया गया। [५] भांजिअ मलअ चोलवइ णिपलिअ गंजिअ गुज्जरा , मालवराअ मलअगिरि लुक्किा परिहरि कुंजरा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (१) ४१ खुरासाण खुहिअ रण महं लंघिअ मुहिअ साअरा; हम्मीर चलिअ हारव पलिअ रिउगणह काअरा ॥ १५१ ॥ मलय का राजा भग गया, चोलपति (युद्धस्थल से ) लौट गया, गुर्जरों का मान मर्दन हो गया , मालवराज हाथियों को छोड़कर मलयगिरि में जा छिपा। खुरासाण (यवन राजा) क्षुब्ध होकर युद्ध में मूच्छित हो गया तथा समुद्र को लांघ गया ( समुद्र के पार भाग गया)। हम्मीर के ( युद्ध यात्रा के लिये ) चलने पर कातर शत्रुओं में हाहाकार होने लगा। [६] लीलावती :-- घर लग्गइ अग्गि जलइ धह धह कह दिग मग णह पह अणल भरे, सव दीस पसरि पाइक्क लुलइ धणि थणहर जहण दिआव करे। भअ लुक्किअ थकिस वइरि तरुणि जण भइरव भेरिअ सद्द पले, महिलाट्टइ पट्टइ रिउसिर टुट्टइ जक्खण वीर हमीर चले ।। १६० ॥ जिस समय वीर हमीर युद्ध यात्रा के लिये रवाना हुआ है (चला है)उस समय (शत्रु राजाओं के घरों में आग लग गई है, वह धू-धू करके जलती है तथा दिशाओं का मार्ग और आकाशपथ आग से भर गया है ; उसकी पदाति सेना सब ओर फैल गई है तथा उसके डर से भगती (लोटती ) धनियों (रिपु रमणियों - धन्याओं) का स्तनभार जघन को टुकड़े-टुकड़े कर रहे हैं; वैरियों की तरुणियाँ भय से [वन में घूमती] थक कर छिप गई हैं; भेरी का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ हम्मीरायण भैरव शब्द ( सुनाई पड़ रहा है, (शत्रु राजा भी) पृथ्वी पर गिरते हैं, सिर को पीटते हैं तथा उनके सिर टूट रहे हैं । [ ७ ] जलहरण : खुर खुर खुद खुद महि घघर रव कलइ णणगिदि करि तुरअ चले, गिदि पलइ टपु धसई धरणि । धर चकमक कर बहु दिसि चमले || चलु दमकि - दमकि दलु चल पइकबलु, घुलकि - घुलकि करिवर ललिआ ; में वद मणुसअल करइ विपख हिअअ । सल हमिर वीर जब रण चलिआ || २०४ || जब वीर हमीर रण की ओर चला, तो खुरों से पृथ्वी को खोद-खोद कर ण ण ण इस प्रकार शब्द करते, घर्घररव करके घोड़े चल पड़े ट ट ट इस प्रकार शब्द करती घोड़ों की टापें पृथ्वी पर गिरती हैं, उसके आघात से पृथ्वी धंसती है, तथा घोड़ों के चँवर बहुतसी दिशाओं में चकमक करते हैं । [ जाज्वल्यमान हो रहे हैं ]; सेना दमक-दमक कर चल रही है, पैदल [चल रहे हैं], घुलक- घुलक करते, (झूमते ) हाथी हिल रहे हैं, ( चल रहे हैं), वीर हमीर जो श्रेष्ठ मनुष्यों में हैं, विपक्षों के हृदय शल्य चुभो रहा है ( पीड़ा उत्पन्न कर रहा है ) | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णवृतम् : परिशिष्ट ( १ ) [८] जहा भूत वेताल णच्चंत गावांत खाए कबंधा," सिआ फारफक्कारहका रवंता फुले कण्णरंधा ; कआ टुट्ट फूट्टई मंथा कबंधा णचंता हसंता । तहा वीर हमीर संगाम मज्झे तुलंता जुता ॥ १८३ ॥ जहां भूत वेताल नाचते हैं, गाते हैं, कबंधों को खाते हैं, शृगालियाँ अत्यधिक शब्द करती चिल्लाती है, तथा उनके चिल्लाने से कानों के छिद्र फटने लगते हैं, काया टूटती है, मस्तक फूटते हैं नाचते हैं और हंसते हैं, वहां वीर हम्मीर संग्राम में तेजी से युद्ध करते हैं । १ क्रीड़ाचक (कीडाचंड छन्द उदाहरण Jain Educationa International ४३ For Personal and Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (२) - कवित्त :रिणथंभोर रै राणै हमीर हठालै रा . [१] कीधा गुनह अपार, छोड दिल्ली से आए मे छीना नवलाख, साह मारण फरमाए तुरक वसैं तै पोल, दंड तहां हिंदू दखै ओथ न करो समरत्थ, मूझ सरणागत रखै ऊगवण सूर विच आथवण, सुणो राव सांसो भयो महिमा मुगल इम उच्चरै, हूं तो सरणे आवीयो। . [२] जां लग गढ रिणथंभ, जांम जाको वड गूजर जांम बंधव वीरम्म, तांम वलि रखां असमर मोमूसाह मुगल्ल, आव मो सरण पयट्ठो दल मेलै पतिसाह दुगम रिणथंभरि दिट्ठो बह दाम दियां सिर ऊचरां, मांगै साह स दियां मुझ हमीर कहै मूगल सुणो, तांम न अप्पां काढ तुझ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (२) [३] मांगै आलम साह कुवरि वीमाह दिरीज धारू वारू पात सु पण महिमांन करीजै तेरै कोडि दरब दियो असी तोखारह आठ हसत अप्पिहो, पांण रखो अणपारह सगि काय केल पकी अछ, रिणथंभरि गढ़ राज करि कवि मल्ल हमीर सरिसो कहै, तू काय मरै पतंग परि [४] मझ देह गंजणो साह हुसेन न आऊ दे बंधव अलीखांन करै वसि घास कटाऊ बोलण सहित सनेह एह वेनती कीजै मांगै रांण हमीर नार मरहठी दीजै पतिसाह पंच अवरा मिलौ, सेव देव मनहुं सवै सुरतांन हुवै सैंभर घणी, तौ हूँ दिल्ली चकव्व [५] . दस लख अस पखरेत, तूझ घर लख स सूझै पंच लाख पायक साह सू किण पर जूझ चवदैसै मैमंत तूझ घर आठ स गैमर हो हमीर चकव्वै किसा औ आडा डंबर 'कवि माल' पयंपै बांह बल सायर...त घत डुब्बही सुरताण सीचाणां तुम चिडा, कहि हमीर किथ उड्डही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '४६ हम्मीरायण [६] अरक गयण नह उगै, साह जो सीस नवाऊं हरिहर बब बीसर सुकर जो डंड सहाऊ दीयण धीह जब दखू, तबह जाय जीह तड़क्के चंद सू ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... साह मोमू पणि मू सरणि न मिलू आय पतिसाह नू मो मिलियां डूंब धरणि . [७] दोय राह दरगाह रहै पतिसाह हुकम्मै सात दीप देसोत डंड झाले सिर नम्मै चूको सरै अपार वार अहकारे वग्गो नरवै कुणनरपति जिको तिण पाय न लग्गै अलावदीन जग दम्मणो, किसा हमीर डंबर करै ‘कमण काट डूंगर कमण उठ जाय घट ऊबरै [८] देवागिर म म जांण, नहीं ओ जादव नरवै चत्रकोट म म जांण, करन चालक न होवे गुजरात हि म म जांण, कोडि कूडै करिग्रहियो मंडोवरि म म जांण, हेलि मातहि वीग्रहियो अलावदीन हमीर हुं खित किमाड़ आडो खरो "रिणथंभगढ रोहीजतै, पाईस अब पटतरो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ - परिशिष्ट (२) [ ] मिल रिणमल कागले सुतो पतिसाह सरसू वल मिले वीरम्म भेद आपवै घरसू छाहडदे छतिपति हुवो तोसू अमेलो पीथीराज परवाण कियो, पतिसाहां भेलो की रंढ कर कवि 'मल्ल कहै जुध्ध भरोसो जाहसू हमीर भीच थारा हमै सो मिलिया पतिसाह सू [१०] मिलो पीथल थिर चित्तो परतापसी पण मिलो ... ... ... ... ... ... लोप कुलवटची लजा चंद सुर पण मिलो मिलो के ठाकुर दूजा; करतार मिलो बेध्या मिलो इंद मिल वलि को बियो अलावदीन हूँ न मिलू कदि कदि मर हैमर हियो [११] खड़ि तिलंग खडि बंग खडै खखो खखरांणह खडै ढोरसामंद खड़े थट्टो मुलतांणह खड गोड़ गज्जणौ देस पूरव ते आवै चोहवाण चक्कवे मेछ दिस सीस न नांव सुरताण खड़े ढिल्ली सहित अलावदीन अंबर अड़े हमीर रांण विकसै हसै तिकर जाण तंडव पड़े Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ हम्मीरायण [१२] रंग पेखै हमीर पात नाचै राय अंगण ज्यू ज्यु पै. रणझणै, साह अतराज हुवै सुण की माफ तकसीर दीध ले बीड़ो सूकर हैवगां पखरेत ताम कोतक जोवै नर भुज है बांण अगरोस भरि उभ्ौकोसा अंबरि अड़े आणी उडाण संघ सू ताल देत खड़हड़ पड़ हड़ [१३] - जब धारू धर पड़ीय राव पेखणो स भग्गो छभा सोह ओदकी राव चमम को स लग्गो. तब थूको तंबोल राव भोजन न किध्धो मोमूंसाह मुगल्ल कोप करि बीड़ो लिधो कोमंड ग्रहे सर पांण करि गढ़ ओ द्रायण गड़ड़ियो सांकियो साह अलावदीन छत्र छेद धरती पड़ो [ १४ ] एक are at लै माणस रै मेली आठ लाख ओखदी भेले करि चूरण भेली भैंसा पांच हजार दिढ कर आहुत दिघ्धी सांमेरी कथ नालि कोप कर पूजा किधी अलादीन एम उच्चरै जो यह मीर जिन हत्थियो छूटत नाल देवंगमे अरघ थंभ छेदह कियो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . परिशिष्ट (२) [१५] जेसा कुञ्जर रवद मोड मां मांणकह मंडै , जेसो कुल कुंजर रवद एक एको नह छडै ; जेसो सीस सिर नमो सीस ते छत्र परग्गे , अवर राव राईयां मांहि तां मोटो दिग्गे ; हमीर रांण गाढो क्रिपण दिये न दी जिम देवगिरि । पाथर वढति घासंति किरि पडै टाल सुरताण सिरि । ॥ अथ दूहा ॥ रजह पलट्ट दिन वल, दिनह पल जांहि; वड्डां मिनखां बोलियाँ, वचन पलट्ट नाहि ॥१॥ तू परदेसी पाहणो, जाजा सुणिरि जाह; गढि गरवातन ऊतर,(ते)गढ करसां गजगाह।।२।। जो जायो तंस जणै, जाजो कहै सु जाहि, रिणथंभ नू रूड़ौ कर, म्रित देसां गढिसांहि ॥३॥ ॥कवित्त ॥ [१६] ऊंचो गाऊ एक ताह हमीर झरहरियो, कणे थंभ ओपियो चंद तारां परवरियो ; सांमध्रम निज ध्रम ध्रम हिंदुवो संभारे, करण नाम मनि करै जीह श्रीराम संभारैः हमीर छभा प्रणाम करि अवर जायरे खग अडै, अलावदीन दल ऊपरी पतंग जांण जामो पड़े। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० हम्मीरायण [ १७ ] स सेन सूरमां छणै रज अंबर छायो, धोरी धर धसमस सेस पयाल न मायो; गोरी दल हमह मिल अमंगल मेछां दल, सुर रथ संबाहि रहे अचरज्ज अणंकल; हमीर चाडि रिणथंभ छलि सुत वैजल असमर जाको जडाग तोडै तुरक हड़हड़ तिम संकर हसै ॥ 1 [ १६ ] अस असं असमर असंख संख सीतल न क्यों जल, अनि अनंत भड़ भागवंत जिसा जैसिंघ अणंकल ; रहेसि धेन वन घिसेह विधियां सूरातण, जांमवंत जुहवंत मच्छ कवि ओछ महा घण; ... Jain Educationa International *** *** ....... बह दीह पयंपै लाfa बह सपड़ो........ [१६] करे कोट जुहार सार गहीयां साऊजल, की मुख हलकार व वपधार वीजूजल; मिल लोह सूरमां हुवा भांड़ लत्थो बत्थां वाह हथ वाखाण जिसी भारथ पारत्थां ; जे चंग तणो चंद नांम जड़ि साका बंध सधीर रे । पड खेत मीर लेखै पखा रहे हाथ हमीररे ॥ [२०] atter अगणमै मास सांगण तिथ पांचम, थावरह कार सुर भड़ चढे तुरंगम; For Personal and Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (२) छूट तीर पनाग मारि मन कलह न रखें, चहवांण झूझ गह भरै सोह सूरातन दखै; रिणमल मिलै दलय घटै सुकर थंभ ओरस घटै। चिख चिख लोह जाझो चडै पडै राव गढ पालटै ॥ [२१] वरिस दुवादस समर मंडै हिदुवां मूगलां, वहै रूधिर वाहला ढले नर कुंजर ढला; पूगी आस पलचरां हंस ले चली अपच्छर, हार करण कज होस सीस ले वलियो संकर; हमीर सरग दिस हल्लियो कलि ऊपर नामो करै । इग्यार लाख अलावदीन तैमे एक लाख दल ऊबरै ।। संवत् १७६८, मिती आसाढ वदि १२ लिखतं मुंधड़ा राजरुप देसगोक मध्ये । ॥ इति हमीरा कवित्त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (३) fafa पंडित श्रीविद्यापति ठाकुर रचित " पुरुष परीक्षा " के अन्तर्गत 1 श्री दयावीर कथा -:*; दयालुः पुरुषः श्रेष्ठः सर्वजन्तूपकारकः । तस्य कीर्त्तनमात्रेण कल्याणमुपपद्यते ॥१॥ अस्ति कालिन्दी तीरे योगिनीपुरं नाम नगरम् । तत्र च निजभुजविजित निखिल भूमण्डलः सकला राति प्रलय धूमकेतुरनेक करि तुरग पदाति समेतः संकलित जनपदो निर्जित विपक्ष नरपति सीमन्तिनी सहस्रनयन जल कल्पिता पार पारावरो रक्षित दीनोsदीनो नाम यवन राजो बभूव । स चैकदा केनापि निमेत्त ेन महिमसाहि नाम्ने सेनान्ये चुकोप । स च सेनानीस्तं प्रभु प्रकुपितं प्राण ग्राहकञ्च ज्ञात्वा चिन्तयामास । सामर्षो राजा विश्वसनीयो न भवति । तदिदानीं यावदनिरुद्धोऽस्मि तावत् क्वापिगत्वा . निज प्राणरक्षां करोमीति परामृश्य सपरिवारः पलायितः । पलायमानोऽप्यचिन्तयत् । सपरिवारस्य दूरगमन मशक्यं परिवारं परित्यज्य पलायन मपि नोचितम् । यतः : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (३) - जीवनाथं कुलं त्यक्त्वा, योऽति दूरतरं व्रजेत् । लोकान्तर गतस्येव , किं तस्य जीवितेन वै ॥२॥ तदिहैव दयावीरं हम्मीरदेवं समाश्रित्य तिष्ठामीति परामृश्य स यवनो महिमसाहि हम्मीरदेव मुपागम्याह । महिमसाहिरुवाच । देव, विनाऽपराधं हन्तुमुद्यतस्य स्वामिनस्वासेनाहं त्वां शरणमागतोऽस्मि । यदि मां रक्षितु शक्नौषि तर्हि विश्वासं देहि । न चेदितोऽप्यन्यत्र गच्छामि। राजोवाच। मम शरणागतं त्वां यमोऽप मयि जीवति पराभवितु न शक्नोति । तदभयं तिष्ठ। ततस्तस्य राज्ञो वचनेन स यवनस्तस्मिन् रणस्तम्भनाम्नि दुर्गे निश्शंक मुवास । क्रमेण तमदीनराजस्तत्रावस्थितं विदित्वा परम सामर्षः करि तुरग पदातिपदाघातैर्धरित्री चालयन् कोलाहलैर्दिशो मुखरयन् कियद्भि रपि वासरै लंधित वर्मादुर्गद्वार मागत्य शरासारैः प्रलय धनवर्ष दर्शयामास । हम्मीरदेवोऽपि परिखा गम्भीर चतुर्मेखलं कुन्तदन्तुरित प्राकार शेखरं पताका प्रबोधित द्वारश्रियं दुर्ग कृत्वा ज्याघात कर्णकटुकै बर्बाणैर्गगगन मन्धीकृतवान् । प्रथम युद्धान्तरं अदीनराजेन हम्मीरदेवम्प्रति दूतः प्रहितः। दूत उवाच। राजन् हन्मीरदेव, श्रीमान् अदीनराजस्त्वामादिशति यन्ममापथ्य कारिणं महिमसाहिं परित्यज्य देहि । यद्येनं न ददासि तदा श्वस्तने प्रभाते तव दुर्ग खुराघातैश्चूर्णवशेषं कृत्वामहिमसाहिना सह त्वामन्तक पुरं नेष्यामि। हम्मीरदेव उवाच । रे दूत, त्वमबध्योऽसि ततः किं करवाणि। अस्योत्तरं तव स्वामिने खङ्गधाराभिरेव दास्यामि न वचोभिः । ममशरणागतं यमोऽपि वीक्षितु न शक्नोति किम्पुनरदीन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण राजः। ततोनिर्भित्सते दूते गते सति अदीनरोजो युद्धसम्बद्धरोषो बभूव। एवमुभयोरपि बलयोयुद्धे प्रवर्त्तमाने त्रीणि वर्षाणि यावत् प्रत्यहं सम्मुखाः पराङ्मुखा प्रहारिणः पराभूताः हन्तारो हताश्च परस्परं योधा बभूवुः। पश्चादर्डावशिष्ट सुभटे अदीन सैन्ये दुर्गे ग्रहीतुमशक्ये च अदीनराजः परावृत्य निजनगर गमनाकाङ क्षी बभ व । तंच भग्नोद्यमं दृष्ट्वा रायमल्ल रामपाल नामानौ हम्मीरदेवस्य द्वौ सचिवौ दुष्टावदीन राजमागत्य मिलितौ। तावूचतुः। अदीनराज, भवता क्वापि न गन्तव्यम् । दुर्गे दुर्भिक्ष मापतितम् । आवां दुर्गस्य मर्मज्ञौ श्वः परश्वो वा दुर्ग ग्राहियिष्यावः। ततस्तौ दुष्ट सचिवौ पुरस्कृत्य अदीनराजन दुर्गद्वाराण्यवरुद्धानि । तथा संकट दृष्ट्वा हम्मीरदेवः स्वसैनिकान् प्रत्युवाच। रे रे जाजमदेव प्रभृतयो योधाः, परिमितबलोऽप्यहं शरणागत करुणया प्रवृद्ध बलेनाप्य दीनराजेन समं यात्स्यामि । एतच्च नीतिविदामसम्मतं कर्म। ततो यूयं सर्वे दुर्गाद् बहिभूय स्थानान्तरं गच्छत । ते ऊचुः। देव, भवान्निरपराधो राजा शरणागतस्य करुणया संग्रामे मरण मंगीकुरुते । वयं भवदाजीव्यभुजः कथमिदानी भवन्तं स्वामिनं परित्यज्य कापुरुषत्व मनुसरामः। किंच श्वस्तनप्रभाते देवस्य शत्रु हत्वा प्रभोमनोरथं साधयिष्यामः। यवनस्त्वयं वराकः प्रहीयताम् । तेन रक्षणीय रक्षा संभवति यतस्तद्रक्षानिमित्तकोऽयमारम्भः । यवन उवाच । देव किमर्थं ममैकस्य विदेशिनो रक्षार्थ सपुत्र कलत्रां स्वकीय राज्य विनाशयिष्यसि । ततो मां त्यज देहि । राजोवाच । यवन, मामेवं ब्रूहि । किंच यदि किंचिन्मन्यसे निर्भयस्थानं तदा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (३) त्वां प्रापयामि। यवन उवाच। राजन् , मामैवंब हि । सर्वेभ्यः प्रथमं मयैव विपक्षशिरसि खङगप्रहारः कर्तव्यः। राजोवाच स्त्रियः परं बहिः क्रियन्ताम् । स्त्रियःऊचुः। कथं स्वामी शरणागतरक्षणार्थं संग्राम मंगीकृत्य स्वर्गयात्रा महोत्सवे प्रवृत्तेऽस्मान् बहिः कत्तमिच्छति । कथं प्राणपतेविना भूतले स्थास्यामः । यतः-- मा जीवन्तु स्त्रियोऽनाथा, वृक्षण च विना लताः। साध्वीनां जगतिप्राणाः पतिप्राणानुगामिनः ॥३।। ततो वयमेव वीरस्त्री जनोचितं हुताशन प्रवेश माचरिष्यामः। एवम् ; भटः रंगीकृतं युद्ध, स्त्रीभिरिष्टो हुताशनः । राज्ञो हम्मीरदेवस्य, पराथं जीवमुज्झतः॥४॥ ततः प्रभाते युद्धे वर्तमाने हम्मीरदेव स्तुरगारूढः कृत सन्नाहो नेज सुभट सार्थ सहितः पराक्रम कुर्वाणो दुर्गानिस्सृत्य खङ्गधाराहार विपक्षवाजिनः पातयन् कुञ्जरान घातयन् रथान् निपातयन् बंधान् नर्तयन् रुधिरधारा प्रवाहेणमेदिनीमलंकुर्वन शरशकलेत सर्वाङ्गस्तुरगपृष्ठे त्यक्तप्राणः सन्मुख ; संग्रामभूमौ निपपात पूर्णमण्डल भेदीच बभूव । तथाहि :-- ते प्रसादा निरुपमगुणास्ताः प्रसन्नास्तरुण्यो, राज्यं तच्च द्रविण बहुलं ते गजास्ते तुरङ्गाः । त्यक्तु यन्न प्रभवति नरः किश्चिदेकं परार्थे, सर्व त्यक्त्वा समिति पतितो हन्त हम्मीरदेवः॥५॥ ॥ इति पुरुषपरीक्षायां दयावीर कथा ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण ॥ श्री दयावीर कथा ॥ (हिन्दी) ___ कालिन्दी [यमुना] के किनारे योगिनीपुर नामक नगर है। वह अपने बाहुबल से सारे भूमण्डल को जीतने वाला, शत्रुओं के लिये प्रलय के धूमकेतु के समान, अनेक हाथी, घोड़े तथा पैदल सेना वाला, सभी प्रतिपक्षी राजाओं की रमणियों के नयनों में अश्रू समुद्र लहरा देनेवाला, दीनों का रक्षक अदीन नामक यवनराज हुआ। एक बार किसी कारणवश वह अपने एक सेनानी महिमसाह पर ऋद्ध हो गया । सेनानी ने बादशाह को क्रुद्ध तथा प्राणों का ग्राहक जान विचार किया, कि "क्रोधी राजा का विश्वास न करना चाहिये।" अतः जबतक मैं स्वतंत्र हूं ( गिरफतार न कर लिया जाऊ) तब तक कहीं जाकर अपनी प्राणरक्षा करनी चाहिये। यह विचार वह सपरिवार भाग गयो । भागते भागते उसने सोचा, कि परिवार के साथ मैं बहुत दूर तो नहीं निकल सकूगा और परिवारको छोड़कर भागा भी नहीं जासकता क्योंकिअपने ही जीवन के लिये कुल को छोड़ जो बहुत दूर चला जाता है, उसके जीवन का उपयोग ही क्या ?” सो यहीं दयावीर श्री हम्मीरदेव की शरण में जाना चाहिये। यों विचार वह यवन महिमसाहि हम्मीरदेव के पास जाकर बोला-देव, विना अपराध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (३) ही मेरा स्वामी मुझे मार डालने को उद्यत है। अतः मैं तुम्हारा शरणागत हुआ हूं। यदि आप मेरी रक्षा कर सकें तो विश्वास दान दें। अन्यथा कहीं और जाऊंगा।" राजा बोला-मेरे शरणागत को स्वयं यम भी पराभूत नहीं कर सकता, तुम निर्भय होकर ठहरो। राजा के अभय दान से विश्वस्त वह यवन रणथम्भोर किले में निश्शंक होकर रहने लगा। जब अदीन राज को इसका पता चला तो क्रोधपूर्वक हाथी, घोड़े और पैदलों की एक विशाल सेना लेकर, जिससे धरती हिल उठे और दिशायें कांप उठे, रास्ता तय करता रणथम्भौर आ पहुंचा और भयंकर धावा बोल दिया। हम्मीर ने किले की खाई और गहरी कर, बुों को शस्त्र सज्जित और द्वारों को सुरक्षित कर बाण वर्षा से धावे का उत्तर दिया। एक मुठभेड़ के बाद अदीन राज ने हम्मीर के पास दूत भेजा। दूत ने जाकर कहाराजन , श्रीमान् अदीनराज तुन्हें आदेश देते हैं कि मेरे अनिष्टकारी महिमसाहि को छोड़ मुझे सौंप दो। अन्यथा कल प्रातः ही तुम्हारे किले को मिट्टी में मिलाकर तुम्हें महीमसाह के साथ ही यमपुरी पहुंचा दूंगा” हम्मीर ने उत्तर दिया-दूत, क्या करू , तुम अवध्य हो । इसका उत्तर तो तुम्हारे स्वामी को वाणी से क्या तलवार की धारा से दिया जायगा। मेरे शरणागत को स्वयं यमराज भी देख नहीं सकता, बेचारा अदीनराज है क्या चीज ? दूत के फटकार पाकर आने का कारण अदीनराज क्रोधपूर्वक युद्ध की तैयारी में लगा। इसप्रकार दोनों ओर लगातार तीन वर्ष Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण तक लड़ाई के चलते रहते हजारों योद्धा हताहत हुए। आधी बची सेना को देख और किले को अजेय देखकर, अदीनराज ने लौटाना चाहा। इसके भग्नमन को देख हम्मीर के दो विश्वासघाती मंत्री रायमल और रामपाल बादशाह से आकर मिले और बोले-बादशाह ! कल परसों तक किला हाथ में आजाएगा, क्योंकि किले में अकाल पड़ गया है। 'आप कहीं न जाएं।' अदीनराज ने उन विश्वासघातकों को पुरस्कृत कर किले की नाकेबन्दी कर डाली। इस भीषण संकट को देख हम्मीर अपने सैनिकों को बोला-रे मेरे जाजमदेव आदि योद्धाओं! मेरी शक्ति सीमित है, पर शरणागत की रक्षा के लिए काफी सैन्य शक्ति वाले अदीनराज के साथ लडूंगा। भले ही यह नीति के विरुद्ध है। अतः तुम सब लोग किले से निकल अन्य स्थानों पर चले जाओ। वे बोले-राजन् ! निरपराध होकर भी आप तो करुणापूर्वक शरणागत की रक्षा के हेतु युद्ध स्वीकार करें और आपकी दी हुई आजीविका खाने वाले हमलोग आपका साथ छोड़ कायर कैसे बनें ? हम भी कल आपके शत्रु को मारकर आपकी मनोरथ सिद्धि में सहायक बनेंगे। हां, इस बेचारे यवन को छोड़ दीजिये, ताकि रक्षा के योग्य रक्षा हो सके, क्योंकि उसी की रक्षा के लिये यह सब कुछ किया जा रहा है। यवन महिमसाहि वोला-'देव, मुझ अकेले और विदेशी के लिए आप अपने परिवार और राज्य को नष्ट क्यों कर रहे हैं ? मुझे जाने दें, राजा बोला-'ऐसा न कहो। हां, यदि तुम किसी निरापद स्थान पर जाना चाहो तो हम अयश्य पहुंचा देंगे।' यवन बोला-नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -.. परिशिष्ट (३) देव, यह नहीं हो सकता। सवसे पूर्व शत्र के मस्तक पर मेरा ही खङ्ग प्रहार होगा। राजा ने कहा- किन्तु स्त्रियों को तो बाहर कर . देना चाहिये तो स्त्रियों ने उत्तर दिया-स्वामिन् . हमारे स्वर्गयात्रा महोत्सव में आप बाधा क्यों डालना चाहते हैं ? अपने प्राणपति के बिना हम यहां कैसे रह सकती हैं। क्योंकि इस संसार में वृक्षों के बिना लतायें और नाथ के बिना स्त्रीगण कैसे जियें ? पतिव्रताओं के प्राण तो पति के प्राण के अनुगामी होते हैं।' इसलिये हम भी जौहर करेंगी। यों परोपकार हेतु प्राण विसर्जन करने वाले राजा हम्मीरदेव के सुभट युद्ध में चले गये और स्त्रियों ने जौहर कर डाला। तब प्रातःकाल युद्ध शुरू होने पर अश्वारोही हम्मीर अपने सैन्य सहित वीरतापूर्वक किले से निकल शत्रु ओं पर टूट पड़ा। घोड़ों को गिराता हुआ, हाथियों को मारता हुआ, रथों को तोड़ता तथा कबंधों को नचाता और धरती पर खून की नदी बहाता हुआ हम्मीर युद्ध में घोड़े की पीठ पर ही वीरगति को पा सूर्यलोक गया। ____ हा, सर्वस्व छोड़ हम्मीर युद्ध में काम आया। वे महल अनु-. पम गुणवाले हैं, वे रमणियां प्रसन्न हैं, वह राज्य धनधान्यपूर्ण है, हाथी घोडों से भरा है, जिसे मनुष्य शत्रु के लिये नहीं छोड़ देना चाहता। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशष्ट (४) भाट खेम रचित राजा हम्मीरदे कवित्त [बात ] राजा हमीरदे जैतसीयोत, जैतसी उदैसीयोत रौ। चोहवाण गढरिणथंभोर साको कियो तिणरी साख रा कवित भाट खेम कहे :मैं क्रिता अन्याव साह मारण फुरमाया। मेछै का नवलख, फोरा दिली धर आया ।। तुरक कसबै प्रोल, डंड हिंदुउपकठा । उलुखा अस भए तास बंदै दस वखां ।। जहं लग उगै अथमै कहो राय कोई सरै। मगोल कहै हमीर सुनि हम तुम सरणे उगरै ॥१॥ जांम स गढ रणथंभ, सीस जब लग धर ऊपर । जांम स ह भुज डंड, चलण है चलु बिचत्तर ।। जाम जैत वीरम, जाम जाजा वड गुजर । जाम स हय गय तुरी, संग नहि करूं अचित डर ।। गरथ देह गढ अप्पिहुं, अब किम मंथौ जाहि मोहि । हमीर कहै मंगोल सुमन, ताम न कटु आफि तोहि ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (४) [बात ] पतिसाह मोलण वाणीया ऊपर घनै मेल्हीयो छ । -: कवित्त :मोलण कीयौ सलाम, निमट सै सात तुखारां ॥ चढे पै हिंदु तुरक चड, सब सैभरवारां । इम पूछ रावि हमीर, कहां ते मोल्हण आया । पतिसाह दिली नरेस, तुझ पास पठाया। उलटा समद जग प्रलै हुय, हंकि राय कोप्पा घणा । रखिब राय रखिब सकै, मैं रिणथंभवर बुडाति सुण्या ॥३॥ रे मोलण बसीठ, काय तू अणगल भखै । जै धर मारू तो माहि, त तौ कुण सरणै रखे ॥ जे दिली पतसाहि, त तौ हुं संभर राजा। जाहि फेर चकब, साहि के लुं सब बाजा ॥ असवार समेत विगह अरुं, जु न • समुहौ भिरू । कै होय घोर सुरतान की, के हमीर जूझैव परू ॥४॥ दिली आलम साह, कुमर तिस कारण दीजै। धारू वारु पातुर, अवर महिमा जु भणीजै ॥ लख्ख टका किन देहि, देहि किनि लख तुखारां । अष्ट धारु किनि देहि, जियौ चाहै इंहा वारां ।। जीव विथारै वार है, श्रग कहा पाकी बोर है । मालण कहै हमीर सुनि, मति ह मरै पतंग है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण मोहि देहु गजनौ , साह मो सेवा आवौ । उलखां मो देह , पकर कर घास कटावौ ॥ नुसरतखां मो देहु, पकर कर बेडी मेलु। थटा तिलंग मोहि देह, नार मरहठी खेलं ॥ सुनि मोलण कहियो साहि सू, रामायण भारथ भिरू । कै घोर होय सुरतान की, कै हुं हमीर भूभव परू ॥६।। उस नव लख तुखार, तुझ घर एक न पूजै । उस असी अहस पायक, साहि सू कहि किम झूम ।। उस चवदहस मदगलित, तुझ घर अठै गैवर । सुनि हमीर चकवै, करै क्या मेघाबर ॥ मोलन पूछ बांहि दै, सायर थाह न बुडि है। सुरतान सिचांना तू चिरा, कहि हमीर किम उड है ॥७॥ [ बात] यूं कहिनै मोलण पतिसाह आगै जाय हकीकति कही। - कवित्त :दे न डंड मांनै न सेव, लेनि ढिली नित घावै । ग्रहै मुछा करवर कसै, राव साम गण न्यावै ॥ मांगै उलुअखांन , नार मंग मरहठी । अरू मंग' गजनौ , रहौ चहुवांण जु हठी ।। असवार समेत विग्रह अरै, झुझुन कुसमहौ झसै । गढ़ ऊपर राव हमीरदे, दुलै चंवर हर हर हसै ॥८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (४) खिड्यौ गोड गजनौ, खिड्यौ ढिली समानौ । खिड्यौ उच मुलतांन , खिड्यौ खोखर खुरसानौ ।। खिड्यौ वंग तिलंग , खिड्यौ उवह जंगल देसां । खिड्यौ कछ काबरू, खिड्यौ ईडरउ पदेसां ।। इतरो खिड्यौ अलावदी , रणथंभौर मछड अड्यौ । हमीर राउ बिकस हंस , तिकर एक तंडी पड्यौ ।।६।। देवगिर म म जान , जान म म जादु नरवै । गुजरात म म जान , कर्ण चालुक न यह है ।। मांडोवर म म जान , सु तौ हेला स ग्रहीयौ । चीत्रोड म म जान , सुतौ कूडै कर ग्रहीयौ ।। तू अलावदीन हमीर हूं , द्रिढ कपाट आडौ खरौ। रणथंभ द्रुग लागंत ही, सु अब जानवौ पटतरौ ॥१०॥ ठयौ हमीर पेखनौ, तरण नचै राय अंगण । सीस धुनै अलावदीन , आवटै खिण खिण ।। पग नेपुरै रुण झुणे , कान सोबन तर कवर । हय गय पख्यर पडिग , चड्यौ चाहै नरवै नर । करि ग्रह कमांण गलि ग्रज कर, छत्र वेह समुहौ तरंगि । उडा न सीह पातुर हनिग, तार दत खरहर परिग ॥११॥ छत्रधार नहि भईय, सार वज्यौ सिर ऊपर । कर ग्रह रहियब डंड, जानि गोरख ध्यान धर ॥ राव रान भरि हरिग, अमर सुरतान पणठ्यो । आन तीर वंचयो, लिख्यौ महिमा सोय दिट्यौ । मन धरब रोस धारू वरै, नही हमीर भोजन कीयौ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण ता करण असपति राय हो, तीर महम मुकीयौ ।।१२।। जुद्ध राम रांमनह, जुद्ध बालिह सुग्रीवहि । जुद्ध करन अर्वनह, जुद्ध दुसासन भीमहि ॥ पुहिमराय सुनि जुद्ध, काल वीती चहुवांनहि । धीर एम कटियहि, छत्र ऊपर सुरतानह' । पर हसै एह चित्र धरि अरीयन जिम पंडर रयन । झगडौ पुरानौ उधडौ अडि नरिंद हमीर सुन ।।१३।। जु सिर कनक मणि रयण, मोर माणंकह मुड्यौ । जु सिर वास कुसमह निवास, छिन इक न छड्यौ। जु सिर सिरांनहि नयब, तास सिर छत्र बयठौ । जु सिर पंच भोआल, माहि उदवंतौ दिठौ ।। हमीर राउ गाढौ कृपन, देन राम जिम देउगिर। पाहन वहंत घठब कर, सु परीया चंद सुरतान सिर ॥१४॥ [बात ] जाजौ वड गुजर पाहुणौ थकौ आयौ हुतौ. तिण नू राजा हमीर आपरी बेटी देवलदे परणाई थी। सु परण मोड बाधे हिज काम आयो। देवलदे राणी होद माहे बुड मुई॥ ॥दहा ।। जाजा तू चाल जाहि, तू परदेसी प्रांहुणौ । म्हे रहस्यां गढ मांहि, गढ जीवतां न देवस्यां ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ठ (४) जाजौ कहै सु जाय , जे नर जाया तिहु जांणां । माल परायौ खाय, सांई मेल्है सांकडे ॥२॥ - कवित्त :मिलौ रांणौ रायपाल, मिलौ बाहुड़ बिकसंतौ । भोज देव पिण मिलौ, मिलौ भोज रातू रतौ ।। वीरमदे पिण मिलौ, मिलौ वड राउत जाजौ। चंद सूर पिण मिलौ हीन नहि भखित राजा॥ तेतीस कोट ऊवै पिण मिलौ, अवर मिलौ महिपत दियो। हमीर कहै ए मत मिलौ स, कर करमरहै मरहियौ ॥१५॥ ॥ दूहा ।। सिंघ विसन सापुरस वचन, केल फलति इकवार । त्रिया तेल हमीर हठ, चडै न दूजी वार ॥१॥ :- कवित्त :वायस विकम राव, बुद्धि विन खद्ध वयारह । अजुडं मुज कराड, रुलै दछिन भडारह । मंडल कछ भलै, सीह गुजर रै अंगणे । गंग बुड जैचंद मुओ, भिडीयौ न भयंगम । हमीर सरस हमीर किय, कर कंदल रणथंभ छल ।। अस करै न काहु करहै न कोई सु कोई राव रविचक्रतल ॥१६॥ तेरह से तेपने, माह सुद ग्यार [स] मंगल । अलावदीन छत्रपती, लीय रणथंभ करि कंदल ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હૃદ हम्मीरायण सुणि मध्यान हमीर, चित्त हर चरण लायै । दरवाजे सत प्रोल, ईस कू सीस चडायौ ॥ जैत सुतन जुग जुग अमर, कहै 'खेम' जस निमिल पढ्यौ । खग प्रान भेदव कालकै, सुपातिसाह गढपर चढ्यौ ॥ १७ ॥ संवत् १७०६ रा फागुन सुदि ६ शुक्र गढ़ रणथंभोर री तलहटी भाट सुखानंद ग्यासा लखाउत रा बेटा कांनै लिखायौ । सोलह से पचीस गिन, नवमी वदि गुरवार । जेठ मास रिणथंभ गढ, लियो अकबरसाह जलाल ॥ १ ॥ Jain Educationa International |।*।। समाप्त ॥*॥ For Personal and Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण के :- प गाथा १२८ से उदयपुर की प्रति प्रारंभ होती है । ( एक गाथा का अंतर है ) १२६ मेल्हाणउ दियउ, निसि नी बलि हुउ घोरंधार । १३० भउ सहु , अवरिज , लोक तणइ उछव अपार, पुण्य उपरि तिह कीध अचार । १३१ वधावा, देखइ गोयरइ । १३२ (हउ) घरि ऊपनउ भलइ चहुआग, रिणथंभउर ऊपनउ राउ । १३३ धरइ, आपइ, समापइ, सिणगारियउ, भल्लइ, पाहुणउ, अम्ह तणउ जनम ति आज सुधन्य । १३४ रिणथंभउरि, कोसीसे कोसी ते । १३५ पउलि, त्रिंबक। १३६ धरियह, अरि पड़इ पराण, वाजई वरघू रिण काहली, गढि ऊपरि चालइ ढीकुली। उदयपुर की प्रति में १३६ वां छन्द :मंत्र समदाया झूझण भली, देव सहु आव्या जोवा भणी। गढि गाढउ कीधउ ऊछाह, सिणगारथ रिणथंभउर मांहि ॥१३६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण उदयपुर की प्रति में नं० १३७, १३८, १३६ तीन पद्य नहीं है। १४० आसिस दियइ, जैत्र हुई, खिसउ, तू हमीरदे चहुवाण । १४१ सहुअइ मिली, वधावउ आपणउ, भरी भरी अंखियाण १४२ सुलितान, परधाना नइ जुगती जाण । १४३ तेड़इ सुलिताण, द्यउ, सांभलि राउल तीरइ जाउ, पूछउ, १४४ गयउ गढ माहि, भेटियउ उछाहि, ०कीधउ पाहुणा पणउ। १४५ जायउ, जेत्र, इतु-तू, रक्ष्या । १४६ निसुणि इहां। १४७ जे बेऊ तरणि, सइंवर, ती । १४८ राव, बारहट नइ, आविस्यइ, विदेसि । १४६ मोल्ह, कही सुणी न । १५० घणा, तोनइ, अधिकउ द्यइ, मंडाव्य, सांभरि तू केणि। १५१ मोल्ह, हुंत । १५२ जइ इन, होस्यइ। १५३ मोलह ! वरी, तउं लेइ, अग्नि जो। १५४ तइ। १५५ वोलावियउ, भाट जाइ नइ । इसके बाद की गाथा उदयपुर वाली प्रति में नहीं है : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठान्तर ६६ १५६ चालुंक न नु इ, गाढिम, जि-करि, दृढ, रिणथंभ दुग्ग लग्गतयह, हिव लभ्भइ पट्टतरउ । १५७ रिणिथंभउरि हम्मीरदे, केणि । १५८ बेउ, (इम) कहइ राय हम्मीर | १५६ तो सरिखा म्हारइ घणा, सेव करइ निसदीस | हूं हमीर कहियइ इसउ, तोइ नमामऊ सीस ॥ १५६ ॥ १६० नइ सांचियउ, राय चहुआण, करां । १६१ आगलि, घणउ, तुम्ह = अम्ह, तणउ । १६२ तण, न्हाल | १६३ चौपाई उदयपुर वाली प्रति में नहीं है : १६४ न्हाल, ज दी, तदितिहां १६५ इ. इस दोहेके उत्तरार्द्ध के बदले में उदयपुर की प्रति में इससे ऊपर वाले दोहे का उत्तरार्द्ध दिया है । १६६ से १७३ तक पद्धड़ी छन्द के बदले उदयपुर वाली प्रति में 'चपई' लिखा है, तथा पाठान्तर भी अधिक हैं एवं ५ के बदले ४ छंद यहां दिये जाते हैं, उदयपुर की प्रति में १७२ व पद्यांक नहीं है । सिंदा, विंदा महिमा जाणि, कछवाहा मोरी मंकुआण । वारड़ बोडाणा अति भूझार; वाला वघेला मिल्या अपार १६२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण भाडिया गूडर तुअर असंख, सुभट अनेरा आया असंख । गुहिलउत गुहिलाणा उराह, पंवार पधास्या अति उछाह ।।१६३ सोलंकी सींधल अति मंडाणि, चंदेला चाउड़ चाहुआण । राठउड़ मेवाड़ अनइ कुभ, छत्रिस कुली मिलि तिणि आरंभ १६४ हम्मीर राउ हरखियउ अपार, दीठा भलेरा अति झूझार । मंडलीक मउड़धा राणो राणि, सहु मिली आव्या तिणि ठाणि।। १७१ दिया, ठाह-उछाह, दंडायुध दीया, महिमासाहि उतास्या। १७३ जत्र, राय चहुआण, उछाह-सुजाण । १७४ कोलाहल हूअउ, दियउ दमामउ, लिया, चडियऊ । १७५ नइ हुवा=देवइ, तिणि, फिरणा। १७६ पठाण=पाला, गढि चिड़िया धणी स्यउजुता। १७७ जे, भाखरि-तापरि, हुवा। १७८ लेहु बे लेहुबे करइ अयार । १६ जिम देखउ। १८० नउ, हुंती, राणि, मंडाणि । १८१-१८२, पद्यांक उदयपुरवाली प्रति में नहीं है। १८३ आलम ऊभो-रिणि ऊपरि । १८४ पड्या हलोल, इसका त्रुटक चतुर्थ चरण उदयपुर की . प्रति से पूरा किया गया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठान्तर १८५ महुअरी, त्याइ नादि वरी, कइवार न-तेन । १८६ अणीसार, विछूटइ, इम बेवइ ते भिड़इ सवीर । १८७ सुभटां नइ, मइगल, अयार, लियइ । १८८ धूणी धरा हइवर, घणा-भला, जणा, हिव अंतर दाखउ आपणा। १८६ हुयइ, सार दुहेली धार । १६० ग्रहियउ, वास-ठाम । १६१ जेइत्र हुइ रणथंभउर-धणी। ११२ री नी, खूट उ-त्रुटा, इक, मलिक खान-कटक मिलि । १६३ प्राणइ, पुरावउ लँदिकार, तिणि वार । १६४ रिण ऊपरि जोवइ चढिं, मंडाण -विनाण, सउ =साम्हउ १६५ काउ, आव्या, पाडउ =मारउँ । २६६ इम, किम भांजसि । १६७ तिणि पाड्या-पाड्या एकणि, चमक्यउ आलम, प्राण । १९८ पूरथउ, तिणि वरे, हुउ, नांखउ आवउ १६६ सूथणी। २०० मन माहि। २०१ दुर्ग हिव =सही गढ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ हम्मीरायण २०२ जल वाल्या, स्यउ गई, ठाली थई । २०३ नित पाउल, हड़हड़इ, धारू वारू नाचइ पात्र, पूठि दिखालइ वे वेस्या गात्र। २०४ भल्ला, मारइ=बेऊ, नइ मीर, सोई-तीर । २०५ तिसउ, काकउ= कोई, एज= एरि । २०६ ऊआंरा भलउ, तेऊ= कोइ, तुम्हि =जे। २०७ तो नइ, बेउ, इय = यार, सींगणि । २०८ सींगणि, दइ, खांचइ तिम कुटका हुइ सात, सींगणि । २०६ राउ, तिणि, नावई। २१० ०बेमारी पात्र, पड़िया बे गात्र । २१२ विग्रह नी सीम हुवा, आवी, काइ साहिब तई मांड्यउ वास ( चतुर्थपाद )। २१३ सांभरिवाल, न दइ तो नइ सुरिताण, किमइ पराण, ०मरावइ कारणि कवणि। २१४ त्या नई। २१५ सवि, देइ कहइ। २१६ तउ, राउ, पातिसाह । २१७ मोनइ घरि मुकलावइ सही, आयउ पाहुणउ, महत देइ मोनई ताजणउ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठान्तर - २१८ गढे, रामचंद्र। २१६ तउ रहियउ रि अभंग, चलावि- वउलाइ । २२० कदे = वली। २२१ विमासी ज्यां, तेड्या राय-मोकल्या, रउपाल देव बे मोकलिया, ठामि । २२२ हउणहार इम जोइ, मनि कूड़ा बेऊ तणा, जोवई । २२४ छइ, अम्ह, बेसाड़इ तासु । २२५ अम्ह द्यउ, परधान, घरि मोकलउ देइ बहुमान । २२६ किया, गढ लीधा विणु [ किम ] जाइसि मियां । २२७ तउ गढ द्या तुम्ह विण परमाणि, हसी हसी द्य लिखि फुरमाण । २२८ हम्ह, विचि[ इन दो गाथाओं में २ पद त्रुटक को उदयपुर की प्रति से पूर्ति किया गया है ] । २२६ मनि भूला नइ चूका सान, त्यां मूरिख, वीससियइ कीम। २३० ते, आव्यां छ इहां, हरिख्यउ । २३१ पातिसाहि तुम्ह कहियउ किसउ, मांगी कूयरी, मनां थी २३२ जाणी, थी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण २३३ हमीर-ईह, पिरयउ, रउपाल, करइ - कह । २३४ बोलह, धन नखावि सहुवइ पूरउ हुउ, तो नइ प्रधानउ । २३५ सवि नीचा, रउपाल - नइ मिलिया, निवसी । २३६ परिघाउ, करतां, जिउ तुरकां । २३७ कीयउ, राजा द्रोह मिल्या पतिसाहि । २३८ कोसीसां थी जोवइ । २३६ अणचीतवी हुवइ, दासि देवि कुण कीधी घात, प्रधाने, ले गया। २४० को, जियारइ, दियइ, वंका, जीतइ जाइ न को। २४१ गाढउ, दिद्ध मइ, देसु, जिस्यइ, करेसु । २४२ मरण नीड़उ वेगउ अछइ, किणही, उबारि । २४३ रइनइ। २४४ जे नविजेह, नीभागियउ न रेवि, ति, वले.वि । २४५ राय चहुआण, वउलावउ। २४७ पाहुणउ । २४८ तिहुं, पराया खांहि । २४६ जेम= कई। २५० भगतावीउ =ओलग्यउ, महिमा सह' हम्मीर, हुवउ इसउ, इम बोलइ हम्मीर [ चतुर्थ पाद ] । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठान्तर २५१ यह गाथा उदयपुर की प्रति में नहीं है। २५२ दीधइ, तिमकरि; हुउ ति । २५३ हमीर = चहुआण, मीर = पठाण । २५५ राजा, विणठइ वाण्यई दिखाड़िया, लेवि । २५६ गाढउ=गेझारउ; रिणमलि कियउ समाधान, अधिक ___ दुख कोठार दियउ, जउहर, वारि । २५७ तउ, ज्य वंस ज्यउ। २५८ तीणइ, टीकउ, दियउ, रिणथंभउरि तुम्हि होज्यो नाथ । २५६ देज्यो बहुमान, महेसरीवाणिया, जाति सूरमा वाधउ कान । २६० सिखामणि, त्यांकी मां साथिइ, जोताव्या घोड़ा, मुकलाव्या बापइ बे पूत। २६१ मीरा, सहु तिणि समइ, मारइ ठाणि । २६२ तोखार, तीणइ, लोके जउहर किया, रावल गनि बल बोलइ तिया। २६३ जमहर मांड्या वारू भला, बलण । २६४ का ना, तेउ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्मीरायण २६५ तिहां, उपमा तिहां, चुड़ला झलकइ निला । २६६ सोवन, रै, कंठि, उर, पा, रुण झुणकार । २६७ आपणड़ा उजाइ प्रिया, वे पख उजवालइ ते त्रिया । २६८ अंतेवरि तिसी, राजकुमरि तीसी । २६६ पड़ियउ पलउ, सांजति समुदाउ । २७० सोनई विंत, ढोल कमखा=ढोलिया खाट, तंबालू । २७१ गरथइ भरी बलइ ते भली, कूकू तणी कतीफा जूजा पट्टकूल, सउड़ तुलाई। २७२ इकवीस भूमि, हणुमंत, प्रजाली, इसउ वीतग वीतउ रिणथूभि । २७३ कोइ न उगरियउ तिणि ठाइ, उत्यम, लहउ, नउ हुवउ संघार। २७४ सघलउ मुकलावउ, पउलि, करइ, ०तु गढ पूठि ज देइ. चाहुआण गढि वहिला आणेजि । २७५ रा ना, देउ, कोठारिइ, मोकलावइ । [ उदयपुर की प्रति के पद उलट-पुलट है ] । २७६ रहि जोवइरहियउ जाइ, दीसइ - मोटा, वीरमदे जाजउ मीर, राखस्यां त। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठान्तर - - २७७ या कुण > बंधव सुणि, ठाइ, हिव जीवी नइ करस्यां कांइ २७८ प्राहुणो देवड़। २७६ हुअउ, चहुआण, दियइ - हाथि । २८० ऊभट ल्यइ पहु ईस। २८१ हि था, तिहां > जिके । २८२ मांहि, चड़इ, जोहार । २८३ बंधव, गहगहियउ, तिणि > यउ। २८५ करी, मीर, बांधव । २८६ भवणिज, पेखेवि। २८७ जिहांकइ, लिखमी। २८८ लेजो लखमी-लाभ, इस्यउ, दे वाला बांह । २८६ राजा, मान, घाल्यावे बिन्हइ, इसउ । २६० धसमसइ, म्हारउ। २६१ सहीयउ= हुवउ, नमियउ; पुणि, जउ, धारा मूग उर सांकल करां । २६२ बेवइ, घणा > बेउं । २६३ सुणउ > नइ, प्राक्रम दिखाड़उं, आपहणी जाइस्यारउ गल। २६४ यह दोहा उदयपुर की प्रति में नहीं है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ हम्मीरायण २६५ थारा पीठ खड्यउ हम्मीर, तिहि तीर, सिरि सिरि, = पड्यउ, ईसर । कीयउ = २६६ रा माथा हेठि, जाइ, कुल रखवालउ राख्यउ भाउ २६७ प्रभात तब मेली । २६८ सुरिताण, खायइ, रणमल, पूछयउ पातिसाहि, तुम्हारउ, इणि । २६६ आगेहि, आया ज्यां बंध, दिखाड़इ । ३०० यड, मूअउ, इणि ठाई, सांभरिवाल; कुण हिंदू होस्यइ इणि कली । - ३०१ तब साहिब, खान नइ काउ, बांहि । ३०२ श्लोक-भाट करइ कइवारो, बोलइ विरद अप्पारो धन जणणी हम्मीरो, सरणाई विजइ पंजरो सूरो २६० ३०३ संभारि, उचित्य देइ खुदिकार | हूअउ । ३०४ सिरि ऊपर देखी करी, पूछइ, कहि न, जो ३०५ जिं, बइठउ, जड, वइजल दे = जिणिकुलि । ३०६ इस दोहे के अंतिम ३ चरण और ३०७ वें दोहे का एक चरण मिलाकर एक दोहा उदयपुर वाली प्रति में कम है ३०७ मूड = हुअङ, भुआल । ३०८ म= कांध, महियलि अविचल जां लगइ सूरिज अरु जाम । ३०६ की=नी, करउ समाधउ भाट । ३१० नाल्ह = भाट, दइ मुझ = आपउ, मोकलावि नः कइ = रइ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठान्तर ३११ मनि गमइ छइ हियइ । ३१२ देस भंडार गढि घर गाम, स्वामि, तूठइ, द्रोह कियउ ते । ३१३ वेसासघातकी जे नर होइ, मारी जइ > नारी जाइ। ३१४ जेहनइ ए हुंता; ग्राम > आस, बीड़ा लेता, राउ दिखाड़इ। ३१५ राउ, दास किराड़ - वाणि, नाखिउ > खवाइ । ३१६ रउपाल, थकी > तणी। ३१७ भाट कहइ प्रभु दे निर्वाप, रिणमल रिउपाल - य्यां, नहिं को नवि कोई। ३१८ जयइर - जेइ, ग्रास > मान, त्याह मांहि कीधा ए काम, दीयउ, खाल, कढावईतीणइ ठामि । ३१६ आवड़िया आप, कियउ, सूगापुरि । ३२० राजपूत, प्रवाह्यउ, राय, कीयउ । ३२१ धन पीता; मात्र=पिता पक्ष अजुआल उ आपणउ, धन धन। ३२२ जिह - ज्यांरी; जग ऊपहरा हुआ तिणि ठामि । ३२३ दीधउ भाट नइ घणउ ज मान, सामि, वहर। ३२४ रामाइण, सांभलइ, होइ।। ३२५ त्रिण, हुअइ समइ, सातमि, दिनिकही दिनइ । २२६ रंजिनी, युगि, काया, सुणतां । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - हम्मीरायण सादल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट के प्रकाशन राजस्थान भारती ( उच्चकोटि की शोध-पत्रिका) भाग १ और ३, ८) प्रत्येक भाग ४ से ७, १) प्रति भाग भाग २ (केवल एक अंक) २) रुपये तैस्सितोरी विशेषांक-५) रुपये पृथ्वीराज राठोड़ जयन्ती विशेषांक ५) रुपये प्रकाशित ग्रन्थ १; कलायण (ऋतुकाव्य) ३॥ २ बरसगांठ ( राजस्थानी कहानियां ॥) ३ आभै पटकी (राजस्थानी उपन्यास) २॥) नए प्रकाशन १, राजस्यानी व्याकरण १३, सदयवत्सवीर प्रबन्ध २, राजस्थानी गद्य का विकास १४, जिनराजसूरि कृति कुसुमांजलि ३, अचलदास खीचीरी वचनिका १५, विनयचन्द कृति कुसुमांजलि ४, हम्मीरायण १६, जिनहर्ष ग्रन्थावली ५, पद्मिणी चरित्र चौपाई १७, धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली ६, दलपत विलास २८, राजस्थानी दूहा ७, डिंगल गीत १६, राजस्थानी वीर दूहा ८, परमार वंश दर्पण २०, राजस्थानी नीति दूहा ह, हरि रस २१, राजस्थानी ब्रत कथाएँ १०, पीरदान लालस ग्रन्थावली २२, राजस्थानी प्रेम-कथाएँ ११, महादेव पार्वती वेल २३, चंदायण १२, सीतारामजी चौपाई २४, दम्पति विनोद २५, समयसुन्दर रासपंचक पता :-सटूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट, बीकानीर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष नाम सूची ०५, २९ अंदीनराज ५२, ५३, ५४ कोठारी अलावदीन ७, १०, ११, १५, १८, कोल्ह ३६, ४६, ४७, ४८, ४९, खीम ५१, ६३, ६५ खेतल अलीखान खेम माट अलूखान, उलुखों ५, ७, ८, ९, ११, १२, ६०, ६२ ४७,६२ गजनौ, गज्जणो गवड़ अल्लू १२ १९ अहमद गाभरू ४, ९, ३५ १२ गहिल आलफखान आसड़ ६ गुहिलत्र ६३ गोहिल ईडरउ उच गोड़ .. ऊजेणि उदैसी कछवाहा कर्णचालुक्य कनड़ा करमदी काल मलिक ४७, ६३ गुजरात, गुज्जरा १८, ४०, ४६, चत्रकोट चंदेल चल्लू १२ चहुआणा, १,२, ४, ५,७, ८, ९ चहुयाणा १४, १५, १६, चोहवाण । १८, २०, २५, २८, चहुवाण ३०, ३१, ३२, ३६, ४७, ५१, ६०, ६२ : २१ चीत्रोड ७ चोल काफर कुकेट केलउ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाड़ दे जज्जल ३९, ४० जयतिग दे, जैतसी २, ८, ६०, ६६ जलालदीन १८ जाफरखान जाजा, जाजल देवड़उ जाजमदेव ( बड़गूजर ) ) जाह ( ण ) जिहर मलिक जैसिंघ जैचन्द stfe डाडिय डाइउ sisterाण ढोर सामंद ताजखान तातरखान ( ८२ ) ११ ८, २८, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ४९, ५४, ६१, ६४, ६५ ६, १२ ५० ६५ १९ १९ दिल्ली, ढोली ७, ११, १३, १४, ४७ १९ २४, ४०, ४८, ६२, ६३, Jain Educationa International ४७ ११ १२ तिलग तंबर तेजसी तोल्हण थट्टा दाफर दाहिमा दिल्ली देव्हण देवड़ देवगिरि देवलदे धरमसी धुंधड नयणउ नरबद नरसी नाव्ह निकुंज ६२, ६३ १९ ६. ६ धारू १७, २४, ४५, ४८, ६१, ६३ धांधउ धीरू ४७, ६२ १२ For Personal and Private Use Only १९ ४४, ६१ देखो - जाज देवड़उ १८,४६, ४९, ६३, ६४ १७, २७ १६, ३४. ३५ ११ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) निरोज निसरतखान पदमसी ११ ११. १२ महिमासाहि) महिमसाहि, ४, ६, ९, १०, २३.. २४, २८, २९, ३२॥ ३५, ३६, ४४, ५२, परमार महमद पातल मांडव पाहण मलधार पासड़ मलमगिरि पीथल पुहिमराय महेसरी पूनउ माफर प्रमथउ मालव प्रोथीराज मुलतान बड़गुजर बारह बोडाणा मुंकिआण बीजुलीखान मुगल बुंदी ३, २६, २७, ३६ भाड, मांडउ व्यास १, ६, ७, १२, मेलउ । १३, २०, २६, २८, ३३, ३७ मोमूमाहि भाटिय १६ मोल्हण, मोलन, भीम मोल्हउ (माट) मोजदेव ६५ मुहिमद मीर मंडोवर १८,४६, ६३, मल्लू मल्लकवि, माल ४५, ४७, योगिनीपुर मेरा ४४, ४६, ४८ ६ . ८ १६.. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) इबसी रणथंमवर, रणथंमि, रणथंभोर १, ४, वीरमदे २, ४, २५, २९, ३०, ३२, रिणथंभोरइ, ७, ८, ९, १०, ११, ३३, ३४, ३५, ३६, ६० रिणथंभरि, रणस्तंम १३, १४, १५, संभरि, सेभर ५, ६, १०, १७, ३२, १८, २२, ३०, ३१, ३५, ४४, ४५, ४६, ४९, ५०, ५३, ६०, संदा ६१, ६३, ६६ सादउ रणमल, रिणमल ३, २५, २६, २७, सिंधल २६, ३४, ३६, ४७ । सुखानन्द भाट रउपाल, रायपाल ३, २५, २६, २७, सोलंकी ३६, ५४ सवालाख ५, १७ रायमल्ल खु वलिक १२. रामपाल रुकबदीन हम्मोर,हम्मीरदे। १, ४, ५, ६, ७, रामचंदि हमीरि, हम्मीरां ८,९, १०, १४,१५, लखाउत ' १६, १७, १८, २१,. हम्मीर देव ) २३, २६, २७ २८, वस्तु २९, ३०, ३१, ३२ वाघेला ३४, ३५, ३६, ३७, वारू १७, २४, ४५, ६१ ३८, ३९, ४०, ४१, विकम ४२, ४३, ४४, ४५, विजकीरति ४६, ४७, ४८, ४९, वीरम । ६, ४४, ४७ ५०, ५१, ५३, ५४, वीसल ५५, ६०, ६१, ६२, चील्हण ६३, ६४, ६५ वीरू ६ हाजी कालू हांसल दे ५० हीरापुर बंदा वेलउ वैजल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धा-शुद्धि पत्र ६ दो शब्द :-- पृष्ठ पंक्ति ८ ११ १६ ११ २० भूमिका : अशुद्ध हमर हठ एवं उपर्युक्त शुद्ध हमीर हठ एवं उपर्युक्त ५ १५ ७ १६ 8 ११ हम्मीर पर हम्मीर पर आक्रमण किया। की कि रणझेत्र रणक्षेत्र करन। करने रोशनी डाली है, रोशनी डाली है किन्तु लें।ता लें, तो अस्पस्ट अस्पष्ट इस्लीम इस्लामी राज्य मार्ग राज्य-मांग पटान्तर पटान्तर का दृष्टव्य मारा मारा तो छट्ठा छठा निश्चष्ट निश्चेष्ट ___ १७-१८ १४ १३ द्रष्टव्य w १५ १० - ___ec Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) खाई सामान खाई का सामान २१-२२ उस इस om mm x 8 x w mr an ander om पूछा तो पूछा तो अत्मायों ने चारां चारों रविवार था रविवार थी स्वामि स्वामी प्रयोग उपयोग उसमें उसे सेना विनाश सेना का विनाश हम्मीरायण तो हम्मीरायण में से है, शम्भु शम्भु, एक सा। एक सा है। मूहम्मदशाह मुहम्मद शाह किन्तु हम्मीर हम्मीर भी भी है गणेशवन्दन गणेशवन्दन से अपूर्व युद्ध अपूर्व युद्ध के पश्चात् व्य वहाँ वह वहां अवतार की। अवतार लिया । बुद्धिः बुद्धि हेतीरिव हेतोरिव भटाः शतं भटा शतं मुखापगां मुखापगा. आर्यावर्त उसने आर्यावर्त १०४ १०४ १०४ १०८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ ११७ ११६ १३४ हम्मीरायण १३ २८ २६ ३१ ३२ ३४ ३६ ५५ ५३ ५३ ५५ ५७ ५८ ५६ ५६ ५६ ८० ८० ८० १० १८ २२ ११ Jain Educationa International : १४ १ १७ ६ २२ ६ १८ १४ १५ १६ १० १५ १७ १२ अंतिम अंतिम ( ३ ) अमीर खुसरो पराजित होके दृष्टव्य उद्धरणादि संभलि मूंह, मालावउ मूमिया १८४ मेल्इइ कविला हमीरा वर्गगगन हमीर देव भटैः रंगीकृतं सौंप लौटाना सबसे पूर्व जिये सर्वस्व राजस्थानी सटूल बीकानीर अमीर खुसरो ने पराजित हो कर द्रष्टव्य उद्धरणादि द्वारा हमने संभलि मूं, ह म लावड भूमिया २८४ मेल्हs कविता हमीर रा गंगन हम्मीर देव भटैरंगीकृतं सौंप लौटना सबसे पूर्व जियें सर्वस्व राजस्थानी सादूल बीकानेर For Personal and Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ org