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परिशिष्ट (२)
[३] मांगै आलम साह कुवरि वीमाह दिरीज धारू वारू पात सु पण महिमांन करीजै तेरै कोडि दरब दियो असी तोखारह आठ हसत अप्पिहो, पांण रखो अणपारह सगि काय केल पकी अछ, रिणथंभरि गढ़ राज करि कवि मल्ल हमीर सरिसो कहै, तू काय मरै पतंग परि
[४] मझ देह गंजणो साह हुसेन न आऊ दे बंधव अलीखांन करै वसि घास कटाऊ बोलण सहित सनेह एह वेनती कीजै मांगै रांण हमीर नार मरहठी दीजै पतिसाह पंच अवरा मिलौ, सेव देव मनहुं सवै सुरतांन हुवै सैंभर घणी, तौ हूँ दिल्ली चकव्व
[५] . दस लख अस पखरेत, तूझ घर लख स सूझै पंच लाख पायक साह सू किण पर जूझ चवदैसै मैमंत तूझ घर आठ स गैमर हो हमीर चकव्वै किसा औ आडा डंबर 'कवि माल' पयंपै बांह बल सायर...त घत डुब्बही सुरताण सीचाणां तुम चिडा, कहि हमीर किथ उड्डही
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