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मांग चार मुगलों की थी जिन्होंने उन भाइयों की आज्ञा भंग की थी (११,५९-६०)। हम्मीर ने उसे धमकाते हुए कहा, यदि तुम दृत रूप में न आये होते तो मैं तुम्हारी जीम निकलवा डालता। जिस तरह हाथी आदि के जीवित रहते कोई हाथी के दाँत, सर्प की मणि और सिंह की केसर-पंक्ति को नहीं ले सकता, इसी तरह चौहान के धन को उसके जीते कोई ग्रहण नहीं कर सकता। शरणागत शत्रुओं की सामान्य पुरुष भी रक्षा करते हैं। मुझ से मुगलों को मांगने वाले तुम्हारे स्वामी तो सर्वथा मूर्ख होंगे। मैं एक विस्वे के शतांश को भी देने के लिए तैयार नहीं हूं। जो तुम्हारे स्वामी से बन पड़े, वह करे (११-२५-६८)
हम्मीर ने उसके बाद पूरी तैयारी की मुसलमान सेनापतियों के दुर्ग-ग्रहण के अनेक प्रयत्नों को उसने विफल किया। एक दिन युद्ध में दुर्ग से चलाया हुआ एक गोला शत्रु के गोले से भिड़कर उछला और उससे निसुरत्तिखान मारा गया । (११-६९-९९)
निसुरत्तिखान का अन्तकृत्य कर इस बार अलाउद्दीन स्वयं रणथंभोर पहुँचा | प्रातःकाल होते ही हम्मीर ने आक्रमण किया। दिन भर घोर युद्ध हुआ। इसी प्रकार दूसरा दिन मी भयंकर युद्ध में
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