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और चार मुख्य फाटक थे। इनमें पहले दरवाजे का नाम नवलखी था, जो अब भी इसी नाम से प्रसिद्ध है (९)। . कलशध्वजादि से मंडित उसमें अनेक मन्दिर थे, उसमें कोटिध्वज अनेक व्यापारियों की दानशालाएं थी, नगर में अनेक जती, व्रती रहते। हजारों वेश्याएं भी उसमें थी। राजा त्रैलोक्यमन्दिर शैली के बने महल में रहता। पास ही गरमी और सर्दी के लिए उपयुक्त महल भी थे।
रिण और थंम के बीच में नीची जमीन थी (१७)। जब अलाउद्दीन रणथंभोर पहुंचा तो हम्मीर ने चारों दरवाजे सजाए (१३५) गढ़ को सेना के बल से लेने में अपने को असमर्थ पाकर उसने गढ़ की बनावट को ध्यान में रखते हुए उसे लेने के अन्य उपाय किये थे (१९३)। हम ऊपर बता चुके हैं किस प्रकार रिण पर पाशीब बनाने का प्रयत्न किया था। भाण्डउ ने इसका वृत्तान्त खूब मनोरञ्जक बनाया है। कहा जाता है कि अलाउद्दीन ने सब फौज को आज्ञा दी कि वह उस झोल को बालू से भरे । मुसलमानी फौजियों ने लड़ना छोड़ दिया सूथन की पोटली बनाकर उस से बालू ला लाकर वे वहाँ डालने लगे। छठे महीने यह काम पूरा हुआ। कंगूरों तक अब मुसलमानी फौज के हाथ पहुँचने लगे उससे राजा हम्मीर को अत्यन्त चिन्ता हुई (१९८-२०१)। किस प्रकार यह प्रयत्न विफल हुआ यह ऊपर बताया जा चुका है ।
हम्मीर महाकाव्य में रणथमोर के पद्मसर का वर्णन है (१३-९२) । यह तालाव अब भी पद्मला के नाम से प्रसिद्ध है। अबुलफज्ल ने इस प्रसिद्ध दुर्ग के बारे में लिखा है, 'यह दुर्ग पहाड़ी प्रदेश के बीच में । इसलिए लोग कहते हैं कि दूसरे दुर्ग नंगे है, किन्तु यह बख्तरबन्द है।
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