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यह गाढ़उ विट्य सुरताणि, को सलकी न सकइ तिणि ठामि ।
महो मांहि मरइ लखकोड़ि, पातिसाह नवि जाए छोड़ि ॥२११॥ ऐसी अवस्था में दुर्ग में प्रायः अन्न की कमी पड़ जाती और उसे आत्मसमर्पण करना पड़ता । अन्दर के लोगों में से किसी को लालच देकर फोड़ लेना दूसरा साधन था । राजपूतों के अनेक दुर्गों को इसी साधन के प्रयोग से मुसल्मानों ने प्रायशः हस्तगत किया था। सुरंग लगा कर रणथंभोर लेने के प्रयत्न का हम्मीर महाकाव्य में वर्णन है । पाशीब या शीबा बना कर रणथंभोर को हस्तगत करने की भी कोशिश की गई थी । पाशीब बनाने में लकड़ियां डाल-डाल कर एक ऊँची बुर्ज तैयार की जाती और जब उसकी उँचाई प्रायः दुर्ग की उंचाई तक पहुंच जाती तो उस पर मगरिबियां रख कर दुर्ग के अन्दर के भागों पर गोलाबारी की जाती । बालू की बोरियों से भी पाशीब तैयार हो सकता था । हम्मीरायण ( १६८ - २०० ) और खजाइनुलफुतूह के अस्पष्ट वर्णनों से प्रतीत होता है कि अलाउद्दीन ने कुछ ऐसा ही प्रयत्न किया था, किन्तु वह कृतकार्य न हुआ। हम्मीरायण ने जलप्रवाह से बालू बहजाने पर घाटी का रिक्त होना लिखा है ( २०२), किन्तु खजाइनुलफुतूह ने मुसल्मानी सेना को रोकने का श्रेय वीर दुर्गस्थ राजपूतों को ही दिया गया है। उनके अग्निबाणों मैं से हो कर जाना आग में से गुजरना था । साथ ही ऊपर से बाणों की वर्षा और मगरिबियों की निरन्तर मार भी थी ।
यंत्र नालि बहइ ढींकुल, सुभट राय मनि पूजई रलि ।
मरइ मयंगल आवटइ अपार, आहुति लइ जोगिणि तिणि बार ॥ १८७॥ ( देखें 'खजाइनुलफुतूह, जर्नल ऑफ इण्डियन हिस्ट्री ८, पृ० ३६१-३६२ )
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